वे पूरी जिंदगी ‘निर्मल गंगा’ के लिए लड़ते रहे। अंतिम सांस तक वे एक योद्धा की तरह डटे रहे। वे अपने साथ यही सपना ले गए कि एक न एक दिन पवित्र गंगा एकदम निर्मल होकर जरूर बहेगी। क्योंकि, पवित्र नदी को बचाने और संवारने का जो जन-आंदोलन शुरू हो गया है, वह एक न एक दिन जरूर रंग लाएगा। उनके मरने के बाद भी यह नदी ज्यादा स्वच्छ हो पाई, तो उनकी आत्मा को बहुत सुकून मिलेगा। क्योंकि, जिंदगी में इससे बड़ा उन्होंने कोई सपना देखा ही नहीं। बीमारी के दौर में अपने इस खास ‘सपने’ की चर्चा उन्होंने अपने मित्रों से की थी। 14 साल की छोटी उम्र से ही उनका वास्ता गंगा से हो गया था। फिर तो उन्होंने पूरी जिंदगी अपने को गंगा का ही अभिन्न हिस्सा माना। वे कहते भी रहे कि वे गंगा के हैं और गंगा मैया उनकी अपनी है। ऐसे में ‘स्वच्छ गंगा’ का अभियान, मां को बचाने जैसा है। इस अभियान को एक न एक दिन जरूर सफलता मिलेगी। एक वीरभद्र नहीं रहेगा, तो सैकड़ों वीरभद्र तैयार हो जाएंगे। क्योंकि, गंगा को बचाना एक बड़ी सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करना भी तो है।
75 वर्षीय वीरभद्र मिश्र ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के अस्पताल में 13 मार्च को अंतिम सांस ली। वे दशकों से गंगा अभियान के पर्याय बन गए थे। ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, इसकी शायद ही कोई और मिसाल मिल पाए। जिस बीएचयू के परिसर में उन्होंने अंतिम सांसें लीं, यही कैंपस दशकों तक उनकी कर्मस्थली भी रहा है। वे बीएचयू के हाइड्रोलिक इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर रहे हैं। आईआईटी बीएचयू में वे सिविल इंजीनियरिंग विभाग के हेड भी रह चुके हैं। अपने क्षेत्र के तकनीकी ज्ञान में उन्हें महारथ हासिल थी। यह बात इसी से समझी जा सकती है कि अमेरिका सहित कई विकसित देशों के मुल्क उन्हें अपने यहां ‘लेक्चर’ के लिए बुलाते रहते थे। 1982 से उन्होंने अपना जीवन एक तरह से गंगा अभियान और पर्यावरण रक्षा के लिए झोंक दिया था। उनके इस जुनून और समर्पण के चलते देश में पर्यावरण रक्षा के लिए बहुत लोगों को प्रेरणा मिलती रही। दुनिया के तमाम विकसित देशों में प्रो. मिश्र के इस जुनून की तारीफ हुई। उन्हें तमाम अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया। इतनी शोहरत मिलने के बाद भी उनकी जीवन शैली में शायद ही कोई बड़ा बदलाव देखा गया हो। वही सादा लिवास। गंगा के लिए वही समर्पण। इसमें कभी कोई कमी नहीं आई।
सरकारों के तमाम वायदा खिलाफी के बाद भी वे कभी निराश नहीं हुए। अपने साथियों से यही कहते थे कि भगीरथ ने युगों तक तपस्या की थी, तब धरती पर गंगा मैया को ला पाए थे। ऐसे में, मैली गंगा को साफ-सुथरा बनाने के लिए कुछ दशक भी लग जाएं, तो धैर्य बनाए रखो। गंगा के प्रति उनके समर्पण को देखते हुए, उनके अपने उन्हें ‘गंगापुत्र’ ही कह कर पुकारते थे। भले वे इंजीनियरिंग के नामी-गिरामी प्रोफेसर हो गए थे, फिर भी वाराणसी में उनकी खास पहचान एक धार्मिक शख्सियत के रूप में ही रही। वे बीएचयू में प्रोफेसर रहते हुए भी संकटमोचन मंदिर के मुख्य महंत ज्यादा रहे। यहां लोगों के बीच उनकी पहचान प्रसिद्ध संकटमोचन मंदिर के महंत के रूप में ही रही। शायद यह अद्भुत संयोग रहा कि तकनीकी क्षेत्र का इतना बड़ा ज्ञाता, सुबह-शाम मंदिर में आरती के समय सबसे ज्यादा आनंदित दिखाई पड़ता रहा। दरअसल, वे 14 साल की उम्र में ही संकटमोचन मंदिर के मुख्य महंत बना दिए गए थे। पिता की मौत के बाद उन्हें यह जिम्मेदारी विरासत के रूप में मिली थी। गंगा घाट पर ही रहते थे। हर-हर गंगे और मंदिर की घंटियों के स्वर सुनते-सुनते ही वे बड़े हुए थे। पिता ने चाहा था कि बेटा, प्रकांड धार्मिक विद्वान बने। बेटे ने अपने पिता की इस इच्छा का भी पूरा ध्यान रखा। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई के साथ वे वेदों और उपनिषदों के अध्ययन में भी जुटे रहे।
वाराणसी के तमाम लोग हैरानी से बताते हैं कि उन्हें हजारों श्लोक कंठस्थ थे। वेदों के तमाम अध्याय उनकी जुबान पर रहते थे। दूसरे धार्मिक विद्वानों की तरह उन्होंने धार्मिक ज्ञान को केवल रटंत विद्या के रूप में नहीं लिया। उन्होंने वेदों और उपनिषदों के ज्ञान और संदेश को आधुनिक जन-जीवन से जोड़कर देखा। यही कहते रहे कि धार्मिक ग्रंथ नियमित जीवन-शैली की उत्तम गाइड हैं। यदि इनके अनुसार जीवन रहे, तो देश और समाज में ज्यादा सुख-शांति रह सकती है। महंत के रूप में वे पुजारी के वेष में नजर जरूर आते थे, लेकिन उन्होंने धार्मिक कास्ट्यूम को कभी ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं माना। करीब दो दशक पहले इन पंक्तियों के लेखक की मुलाकात प्रो. साहब से हुई थी। उस दौर में वे विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे। मेरे लिए उनसे मुलाकात खासे कौतहूल का विषय थी। क्योंकि उनके बारे में तमाम किस्से जो सुन रखे थे। दरअसल, मैं सहज कल्पना नहीं कर पा रहा था कि मंदिर में पूरे कास्ट्यूम में नजर आने वाला पुजारी, कैसे इंजीनियरिंग छात्रों को इतने जटिल विषय पर सार्थक ज्ञान बांटता होगा? लेकिन, एक घंटे की मुलाकात के दौर में ही मुझे आभास हो गया था कि प्रो. साहब कुछ अलग मिट्टी के बने हैं। उनमें यह क्षमता है कि वे एक साथ कई भूमिकाएं सफलता से निभा लें। मुझे उनके कुछ जुमले आज भी याद आ रहे हैं। उन्होंने कहा था कि आप मीडिया वाले उन जैसों के गंगा अभियान को शायद धार्मिक कर्मकांड के रूप में देख रहे हैं। ऐसे में, इसको ज्यादा गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन, भूलो मत की अगले दो दशकों में पानी का बड़ा संकट पैदा होने वाला है। क्योंकि, हम इतने स्वार्थी हो गए हैं कि पवित्र गंगा मैया को मैली करने में संकोच नहीं करते। सिंचाई के नाम पर जगह-जगह मैया को निर्ममता से बांध दिया जाता है। पानी को बेहूदगी से बर्बाद किया जाता है। यदि हालात यही रहे, तो एक दिन गंगा सहित सभी बड़ी नदियों की धारा थम जाएगी।
खतरा बड़ा है, सो वे लोगों को जगाने के लिए जुट गए हैं। उन्हें विश्वास है कि देर-सवेर लोगों को यह अभियान रास आएगा। डॉ. मिश्र ने 1982 में ‘संकटमोचन फाउंडेशन’ बना लिया था। इसके जरिए उन्होंने पर्यावरण की रक्षा और गंगा की सफाई अभियान की जन-मुहिम शुरू कराई थी। चूंकि वे बनारस के ऐतिहासिक मंदिर के मुख्य पुजारी थे, ऐसे में, उनके इस अभियान के साथ तमाम संत-महात्मा भी जुट गए थे। कुछ ही समय में उन्होंने बनारस में यह अभियान तेज कर दिया था कि लोग गंगा स्नान के समय नदी में गंदगी डालने से परहेज करें। पहले उन्होंने प्रदेश के स्तर पर गंगा आंदोलन शुरू किया। इसके बाद उन्होंने कई स्तरों पर इस लड़ाई को देशव्यापी रूप दिया। डॉ. मिश्र के पर्यावरण प्रेम को ‘यूनाइटेड नेशन प्रोग्राम्स’ (यूएनईपी) में भी सराहा गया। इस संस्था ने उनके गंगा अभियान को पूरी दुनिया के पर्यावरणवादियों के लिए प्रेरक बताया। उन्हें यूएनईपी की तरफ से 1992 में ‘ग्लोबल 500 रोल आॅफ आॅनर’ का प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय सम्मान भी दिया गया। 1999 में विश्व प्रसिद्ध ‘टाइम’ मैगजीन ने अपनी कवर स्टोरी में उन्हें ‘हीरो आॅफ प्लानेट’ करार किया। इस प्रतिष्ठित मैगजीन ने उनके मिशन को इतनी बेहतरीन पहचान दी, कि प्रो. मिश्र की शोहरत वैश्विक बन गई। डॉ. मिश्र देश के पर्यावरणवादियों को एकजुट करने के लिए कड़ी का काम करते रहे। गंगा के प्रति उनका लगाव बड़ा भावुक किस्म का रहा है। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है कि बचपन से हर रोज गंगा ही उनका जीवन रही है। क्योंकि वे सुबह टहलते-टहलते ‘तुलसी घाट’ आ जाते। सीढ़ियों से उतरकर गंगाजल अपने मत्थे पर लगाते। इसके बाद ही वे मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए पहुंचते। इस तरह से उनके लिए मंदिर के भगवान से ज्यादा अपनी रही हैं गंगा मैया। उनके शौक भी एकदम चित्र-विचित्र रहे हैं। बचपन से ही उन्हें अखाड़े में हाथ आजमाने का शौक था। सो वे लंगोट पहनकर अखाड़े के मैदान में आ जाते। इसके बाद पुजारी की भूमिका में पूरे तन्मय होकर धार्मिक काम निपटाते। तय समय पर क्लास लेने पहुंच जाते। लौटते तो शास्त्रीय संगीत के शौक को पूरा करते। उन्हें गाने और गुनगुनाने का भी शौक था। शास्त्रीय संगीत के वे बड़े कद्रदान थे। इसके संरक्षण के लिए भी उनका काफी योगदान रहा है। कई बार अमेरिका जैसे देशों से तमाम प्रोफेसर उन्हें नजदीक से देखने समझने के लिए वाराणसी आ धमकते थे। वे यह देखकर हैरान रह जाते थे कि अखाड़े में लंगोट पहनकर पहलवानी भी वे कैसे कर लेते थे? मंदिर में पुजारी के रूप में वे पूरे तन्मय होकर जुटते। भक्तों को खांटी महंत के रूप में आशीर्वाद भी देते। उनसे पर्यावरण बचाने का संकल्प लेते। कह देते कि भगवान उन भक्तों पर ज्यादा कृपा नहीं करता, जो कि धरती के दुश्मन हैं। ऐसे में वे अपनी भक्ति धारा का प्रयोग भी पर्यावरण अभियान के लिए सहज भाव से कर लेते। हिंदुत्व के प्रति अपार प्रेम रखने वाले प्रो. साहब का जीवन दर्शन एकदम सेक्यूलर रहा है। वे गंगा-जमुनी तहजीब के बहुत हिमायती रहे हैं। 2006 में संकटमोचन मंदिर में आतंकी विस्फोट हुए थे। ऐसे में एक खास संप्रदाय के लोगों के प्रति कुछ लोगों ने घृणा अभियान फैलाने की कोशिश की थी। ऐसे समय में प्रो. साहब ने कहा था कि आतंकियों की न कोई जाति होती है और न संप्रदाय। लिहाजा समाज को बांटने वाले अभियान उन्हें बम-विस्फोटों से ज्यादा खतरनाक लगते हैं। क्योंकि ये तो समूची पीढ़ियों को ही जहरीला बना सकते हैं। बहुतों को हैरानी होती थी कि एक खांटी हिंदू महंत कैसे ये किसी ‘कामरेड’ की तरह बातें कर रहा है? इस पर प्रो. साहब कहते थे, भाई बुरा मानों या भला, मैं तो वही कहूंगा जिसके संस्कार मुझे गंगा मैया से मिले हैं। वे तो सबको तारती हैं। वे नहीं देखती कि कौन किस जाति या संप्रदाय का है?
शायद कम लोगों को जानकारी होगी कि तमाम अनुरोध के बाद भी डॉ. मिश्र ने संघ परिवार के अयोध्या आंदोलन को अपना अंध समर्थन देना कबूल नहीं किया था। वे यही कहते रहे कि मंदिर-मस्जिद कभी आपस में बैर करने का संदेश नहीं देते। जो ईंट-गारे की दीवारों के लिए खून की होली खेलते हैं, वे सच्चे धार्मिक हो ही नहीं सकते। जब प्रो. साहब इस तरह की खरी बातें कहते, तो कुछ संघ परिवारी उन्हें सनकी प्रोफेसर कहने से भी नहीं चूकते थे। लेकिन, इसका भी उन्होंने प्रतिरोध नहीं किया था। कहते थे कि उनकी नजर में शायद मैं सच्चा हिंदू नहीं हूं, लेकिन गंगा मैया तो सच्चाई जानती हैं। गंगा की स्वच्छता अभियान के लिए उनका समर्पण इधर काफी बढ़ गया था। गंभीर बीमारी के बावजूद हर रोज अभियान से जुड़ी गतिविधियों के लिए समय निकलते और उनमें जुट जाते। 2009 में केंद्र सरकार ने गंगा की स्वच्छता के लिए ‘नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी’ (एनजीआरबीए) का गठन किया था। सरकार ने इसमें विशेषज्ञ के तौर पर प्रो. मिश्र को सदस्य के रूप में शामिल किया था। वे एनजीआरबीए की बैठकों में लगातार महत्वपूर्ण सुझाव देते रहे। यही कहते रहे कि योजना को कागजों से जमीन पर उतारो। वरना, अरबों रुपए खर्च करने के बाद गंगा मैया मैली की मैली ही रह जाएंगी। जीवन में इससे बड़ा दंश उन जैसों के लिए कोई और नहीं हो सकता। अपने गंगा अभियान में उन्होंने अमेरिका और स्वीडन जैसे देशों की तमाम समाजसेवी संस्थाओं को जोड़ा था। ये संस्थाएं काफी वित्तीय मदद भी करती आई हैं। प्रो. बीडी त्रिपाठी बड़े पर्यावरणवादी हैं। वे लंबे समय से प्रो. मिश्र के मिशन से जुड़े रहे हैं। सरकार ने उन्हें भी डॉ. मिश्र की तरह एनआरजीबीए का सदस्य बनाया था। वे याद करते हैं कि पिछले साल अप्रैल में वे दोनों लोग बैठक के लिए दिल्ली गए थे। बैठक की अध्यक्षता प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कर रहे थे। इसमें उन्होंने प्रधानमंत्री से कहा था कि मनमोहन जी! अब पीर पर्वत सी हो गई है। कुछ ऐसा कीजिए कि ठोस काम नजर आए। पीएम ने यही कहा था कि डॉ. साहब मन तो उनका भी यही है। इस पर प्रतिप्रश्न उछला था कि फिर रुकावट कहां है? प्रो. त्रिपाठी याद करते हैं कि गंगा के लिए वे अस्पताल के बिस्तर में भी अंतिम समय तक चिंता करते रहे। उन्हें अपनी बीमारी की कम, इस बात की चिंता ज्यादा थी कि केंद्र के अभियान में क्या प्रगति है? उनके दोस्त याद करते हैं, प्रो. साहब कहते थे कि गंगा अभियान कई बार ‘सांप-सीढ़ी’ के खेल की तरह चलता है। बात काफी आगे बढ़ जाती है, तो सांप फन मानकर प्रगति को डस लेता है। लेकिन, उन्हें भरोसा है कि एक न एक दिन बाधा बनने वाले ये सारे ‘सांप’ अपनी मौत मर जाएंगे। तब गंगा मैया फिर से अविरल बहने लगेंगी। शायद, एक दिन ऐसा भी आए कि इस पावन नदी में किसी सीवर का एक बूंद भी पानी न गिरे। काश! ऐसा कभी हो पाए?…
(लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क virendrasengarnoida@gmail.com के जरिए किया जा सकता है।)