जगदीश्वर चतुर्वेदी
आज हिन्दी दिवस है और इस मौके पर बहुत कुछ ऐसा है जिसे हम प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी से सीख सकते हैं। उनका मानना था ” अंदर जो भी घुमड़ रहा हो,घुमड़े ,मैं अपने को भावनाओं के हवाले नहीं करूँगा।” इस नियम का उन्होंने जिंदगीभर पालन किया। लेखक और पत्रकार के नाते प्रभाषजी बहुत कुछ ऐसा लिख गए हैं जो ‘ई’ लेखकों के भी काम का है। जो ‘ई’ लेखन में आ गए हैं, ‘ई’ पत्रकारिता कर रहे हैं। उनके लिए प्रभाषजी बड़ी चुनौती छोड़ गए हैं। ‘ई’ लेखन में अभी चार चीजों की कमी नजर आती है,पहला है सुंदर गद्य का अभाव। दूसरा ,लेखकीय ईमानदारी का अभाव। तीसरा ,लेखन के प्रति पेशेवराना दायित्व और परिश्रम का अभाव और चौथा है आलोचना और जिम्मेदारी के बीच संतुलन का अभाव। ‘ई’ लेखक का मानकर चलता है कि वह जो लिख रहा है,सही लिख रहा है और उसे लेखनकला के बारे में ,गद्य को और सुंदर बनाने के बारे में अब किसी से सीखने की जरूरत नहीं है। संपादनकला के बारे में उसे किसी से सीखने की जरूरत नहीं है। ‘ई’ लेखकों को परिश्रम करके इंटरनेट पर रीयल टाइम में सुंदर गद्य लिखने की कला विकसित करनी होगी। प्रभाषजी इस मामले में आदर्श थे, वे सुंदर गद्य लिखते थे, सुंदर गद्य बोलते भी थे। पत्रकारिता में उनके आदर्श थे एस. मुलगांवकर। मुलगांवकर अंग्रेजी प्रेस के आजाद भारत के श्रेष्ठतम पत्रकार-संपादक थे। अखबार के मालिकों (घनश्याम दास बिडला से लेकर रामनाथ गोयनका तक ) से लेकर प्रधानमंत्री नेहरू तक सभी उनके पत्रकारीय कौशल और ईमानदारी के कायल थे , उनका सम्मान करते थे। उनके व्यक्तित्व का प्रभाष जी पर भी गहरा असर था।
प्रभाषजी ने मुलगांवकर के बारे में जो बातें कही हैं,उन बातों पर प्रभाषजी ने भी अमल किया था। प्रभाषजी ने उनके बारे में लिखा ” संपादकी को कभी निजी या बाहरी तत्वों से प्रभावित नहीं होने दिया। अपने लिए संपादकी का कोई लाभ नहीं मिला न किसी को लेने दिया। संपादकी का इस्तेमाल संबंध बढ़ाने ,सत्ता में भागीदारी करने,राजनीति करने और घरबार भरने में नहीं किया। अपने संपादकी पव्वे और प्रभामंडल का इस्तेमाल किसी और क्षेत्र या प्रयोजन में नहीं किया।” (जनसत्ता ,23-03-1993) मुलगांवकर ” लल्लो-चप्पो की बजाय धरती की सख्त और कटु वास्तविकता को पसंद करने वाले आदमी थे।” ‘टाइम्स ऑफ इंडिया ‘ के सफलतम संपादक थे गिरिलाल जैन। उनकी संपादनकला का मूल्यांकन करते हुए जो बातें प्रभाषजी ने लिखी हैं वे ‘ई’ संपादकों से लेकर ‘प्रिट’ संपादकों तक सबके काम की हैं। प्रभाषजी का मानना था ” अखबार के संपादक को सभी तरह के विचारों और दृष्टिकोणों को पाठकों के सामने रखना होता है और यह अपनी एक अलग सख्त लाइन ले कर अलख नहीं जगा सकता । जगाना नहीं चाहिए। … पत्रकार को तटस्थ आलोचक-समीक्षक होना चाहिए।” हम आम तौर पर विचारों में ‘समानता’ और ‘सातत्य’ खोजते रहते हैं। हिन्दी के लेखकों में यह बीमारी बहुत है। प्रभाषजी ने लिखा ” अंग्रेजी में कहावत है कि आजीवन और निरंतर वैचारिक समानता और सातत्य सिर्फ गधों में होता है और बुद्धिमान अक्सर सहमत नहीं होते और सिर्फ गधे ही हमेशा सहमत होते हैं। गांधीजी से किसी ने पूछा था कि आप कई बार अपने विचार बदल लेते हैं। हम किस पर जाएं और किसे आपकी पक्की राय मानें। गांधीजी ने कहा था कि आप उसी को मेरी राय मानें जो मैंने बाद में कही है। विचारों में परिवर्तन होता हो और वह ठीक नहीं हो तो विचार करने का और लिखने पढ़ने का अर्थ और प्रयोजन ही क्या रह जाएगा ? अगर आपके विचार बदलें नहीं तो इसका एक ही मतलब है कि आपने ज्यादा विचार किया ही नहीं है। और अगर आप दूसरों के विचार बदल नहीं सकें तो इसका भी यही मतलब है कि आपके विचारों और उन्हें लिखने -समझाने में दम नहीं है। विचार से ही विचार बदले और बनाए जाते हैं। विचार परिवर्तन ही सही और सच्चा और स्थायी परिवर्तन है।”
प्रभाषजी ने जो बात प्रेस के बारे में कही थी वह ‘ई’ लेखन के लिए भी सच है,लिखा था, ” अखबार कोई एक गोले की तोप नहीं है और न पत्रकारिता एक राउंड गोली की बंदूक । अगर आप में दम नहीं है तो आपका भंड़ाफोड़ देखते- देखते हो जाएगा। दम प्राप्त परिस्थिति में किसी मान्यता पर खडे होकर टिके रहने में है। जिसमें दम नहीं होता वह बिखरता है और जिसमें होता है वह समय,कसौटियों और अग्नि परीक्षाओं में से निखरता जाता है।” (जनसत्ता, 26-12-1993)
(स्रोत-एफबी)