तारकेश कुमार ओझा
कुछ साल पहले मेरे शहर के कारपोरेशन चुनाव में दो दिग्गज उम्मीदवारों के बीच कांटे की टक्कर हुई। चुनाव प्रचार के दौरान दोनों उम्मीदवारों ने एक – दूसरे की सात पीढ़ियों का उद्धार तो किया ही, कार्यकर्ताओं व समर्थकों के बीच मार – कुटाई और थाना – पुलिस का भी लंबा दौर चला। संयोग से चुनाव परिणाम घोषित होने के कुछ दिन बाद ही विजयी उम्मीदवार की बेटी की शादी थी। कमाल देखिए कि चुनाव के दौरान की तमाम कटुता को परे रख कर उन्होंने अपने उस विरोधी उम्मीदवार को न सिर्फ प्रेम पूर्वक आमंत्रित किया, बल्कि पराजित उम्मीदवार खुशी – खुशी उसमें शामिल भी हुए। वैवाहिक समारोह में दोनों गले मिले और फोटो खिंचवाई। यह दृश्य देख कर दोनों ओर के समर्थक हैरान रह गए। दोनों खेमे से सवाल उठा … यह क्या नेताजी। चुनाव प्रचार के दौरान लड़ाई – झगड़े हमने सहे, थाने – अदालत का चक्कर हम झेल रहे हैं, और आप दोनों गले मिल कर फोटो खिंचवा रहे हैं। नेताओं ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया… समझा करो… यही राजनीति है…।
महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर भाजपा व शिवसेना की कभी रार तो कभी मनुहार वाली स्थिति भी कुछ एेसी ही है। चुनाव से पहले साथ थे, लेकिन चुनाव के दौरान अलग हो गए, और अब फिर जरूरत आन पड़ी तो एक बार फिर फिर गले मिलने को आतुर…। चलन के मुताबिक समझना मुश्किल कि साथ हैं या नहीं। परिस्थितयों के मद्देनजर बेशक उच्च स्तर पर सब कुछ सहज रूप से निपट जाए, लेकिन दोनों पार्टियों के निचले स्तर पर कायम कटुता क्या इतनी जल्दी दूर हो पाएगी। हालांकि राजनीति में यह रिवाज कोई नया नहीं है। कार्यकर्ता करें तो गद्दारी और नेता करें तो राजनीति वाला यह खेल अमूमन कमोबेश हर राज्य में खेला जाता रहा है। बताते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी की जब 70 के दशक में विमान हादसे में मौत हुई, तो शोक जताने पहुंचने वालों में सबसे अग्रणी स्व. चंद्रशेखर थे। जो उस समय संसद में इंदिरा गांधी की नीतियों के कटु आलोचक थे। इसी तरह कभी बिहार के लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता सुर्खियों में रहा करती थी। हालांकि इस दौरान तबियत बिगड़ने या बच्चों की शादी में दोनों की गले मिलते हुए तस्वीरें अखबारों में प्रमुखता से प्रकाशित होती थी। समय का फेर देखिए कि अब दोनों फिर साथ हैं।
इतिहास गवाह है कि 90 के दशक में केंद्र में जब संयुक्त मोर्चे की सरकार थी, और देवगौड़ा प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने नवपरिणिता प्रियंका गांधी और रावर्ट वढेरा को दिल्ली में रहने के लिए एक शानदार बंगला उपहार में दिया था। यद्यपि उस दौर में कुछ और लोगों को बंगले उपहार में मिले थे या फिर आवंटन की तिथि बढ़ाई गई थी। पश्चिम बंगाल की बात करें तो कभी राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु औऱ विरोधी नेत्री के तौर पर ममता बनर्जी एक दूसरे को कोसने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देती थी। विरोधियों के मुद्दों में ज्योति बसु के बेटे चंदन बसु की कथित अकूत संपत्ति का मसला जरूर शामिल रहता था। लेकिन बताया जाता है कि ज्योति बसु के बेटे चंदन बसु जब भी दिल्ली जाते थे, वे ममता बनर्जी से जरूर मिलते थे। कहते हैं दोनों के बीच किताबों का आदान प्रदान भी होता था। लेकिन मसले का चिंतनीय पक्ष यह है कि राजनीति के उच्च स्तर पर प्रचलित यह कथित सौहार्द्र् निचले स्तर पर कतई अपेक्षित नहीं है। निचले स्तर पर यदि कोई कार्यकर्ता विरोधी खेमे के किसी आदमी से बात भी कर लें तो झट उसे गद्दार करार दे दिया जाता है। उसे काली सूची में डालने से भी गुरेज नहीं किया जाता। पश्चिम बंगाल में ही कम्युनिस्ट राज में यदि दक्षिणपंथी दलों का कोई कार्यकर्ता कम्युनिस्टों से बात करता भी देख लिया जाता तो उसे झट तरबूज कांग्रेस की उपाधि दे दी जाती। तरबूज कांग्रेस यानी ऊपर से हरा लेकिन अंदर से लाल। यहां हरे रंग से आशय कांग्रेस या टीएमसी जबकि लाल रंग कम्युनिस्टों का प्रतीक है। सवाल उठता है कि सत्ता के लिए कभी भी लड़ने – झगड़ने और मौका पड़ते ही फिर गले मि्लने की यह अवसरवादिता क्या राजनीति में उचित कही जा सकती है। बेशक राजनेता इसे राजनीतिक दांव – पेंच, समय की मांग या फिर मुद्दा आधारित समर्थन की संज्ञा दे, वैचारिक विरोध और सौहार्द्र पूर्ण राजनीति की दलीलें पेश करें। लेकिन सच्चाई यही है कि उच्च स्तर पर होने वाले इन फैसलों के बाद निचले स्तर के कार्यकर्ताओं को काफी कुछ झेलना पड़ता है। दो दलों के बीच कायम कटुता शीर्ष स्तर पर जितनी जल्दी दूर हो या कर ली जाती है, निचले पायदान में स्थिति बिल्कुल विपरीत होती है। कार्यकर्ता और समर्थक इसका खामियाजा लंबे समय तक भुगतते रहते हैं।
(लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।)