अपराध और राजनीति के भंवर में फंस सा गया कवि डीपी

बी.पी. गौतम,स्वतंत्र पत्रकार

बी.पी.गौतम
बी.पी.गौतम

आम जनमानस के मध्य बाहुबलि, धनबलि और माफिया के रूप में कुख्यात राजनेता डीपी यादव उर्फ़ धर्मपाल यादव के अंदर एक रचनाकार और एक कलाकार भी रहता है। डीपी यादव की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, साथ ही कई फिल्मों में डीपी ने अभिनय किया है एवं एक “आकांक्षा” नाम की फिल्म का निर्माण भी किया है।

जिला गाजियाबाद में नोएडा सेक्टर- 18 के पास स्थित गाँव शरफाबाद के एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे डीपी यादव शुरुआत में दूध बेचने का कार्य करते थे। बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर डिग्रीधारी डीपी यादव राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी रहे हैं। एमएमएच डिग्री कॉलेज- गाजियाबाद में छात्र संघ के अध्यक्ष भी रहे हैं।

अपराध जगत में नाम चमकाने के बाद डीपी यादव ने राजनीति में कदम रखा, तो वर्ष- 1985 में प्रथम बार अपने गाँव के निर्विरोध प्रधान चुने गये, इसके बाद वर्ष- 1987 में विकास क्षेत्र विसरख के प्रमुख बने और फिर वर्ष- 1989 से 1994 तक बुलंदशहर विधान सभा क्षेत्र से लगातार विधायक चुने गये, इस बीच प्रदेश सरकार में राज्यमंत्री भी रहे।

संभल लोकसभा क्षेत्र से वर्ष- 1996 में सांसद चुने गये, इसके बाद राज्यसभा में भी गये और फिर सहसवान विधान सभा क्षेत्र से एक बार फिर विधान सभा के लिए चुने गये। अपराध और राजनीति में धूम मचाते रहने वाले वाले डीपी यादव ने कई फिल्मों में अभिनय किया। “आकांक्षा” नाम की एक फिल्म का निर्माण भी किया। कलाकार को संतुष्ट करने के साथ डीपी यादव ने अपने अंदर के रचनाकार को भी रुष्ट नहीं किया।

डीपी यादव ने कई किताबें लिखी हैं, जिनके भावार्थ ऐसे हैं कि लगता ही नहीं यह डीपी यादव का ही मन है, उस डीपी यादव का मन, जो बाहुबलि, धनबलि और बड़े माफिया के रूप में कुख्यात है। वर्ष- 2003 में डीपी यादव की “यात्रा के मध्य” नाम से एक किताब प्रकाशित हो चुकी है, जिसे उन्होंने अपनी माँ को समर्पित किया है। सराय रोहिल्ला- नई दिल्ली से प्रकाशित इस किताब में कुल 27 रचनायें हैं। किताब का मूल्य सौ रूपये है। पार्लियामेंट के सेंट्रल हॉल में बैठे डीपी ने 5 फरवरी 2003 को एक कविता लिखी, जिसका शीर्षक है “लोकतंत्र”, इसमें है कि …

हमारे लोकतंत्र की शायद यही नीयति है

कुछ करने को हृदय पुकारता है, चीखता है लेकिन

कुछ ताकतवर हाथ उसे रोक देते हैं

और कहते हैं क्यों शोर मचाते हो

क्यों चिल्लाते हो

नहीं कुछ कर पाओगे

अकेले हो

बेशक तुम्हारी आवाज

कर्कश हो या मधुर वाणी

चाहे उसमें सारे युगों का दर्द भरा हो

चाहे धरा के सारे दर्द बटोर कर

सुनाने निकले हो

कहीं चिल्लाओ खड़े होकर

और मायूस होकर बैठ जाओ

क्योंकि तुम भी जानते हो

इस नक्कारखाने में एक तूती की आवाज

कुछ नहीं कर सकती

यहाँ कुछ आवाजें हैं

जिनके पास संख्या बल है

या फिर विरासत है, वंशावली की ताकत है

चतुराई और बुद्धि के बल पर

जिन्होंने अपने चारों तरफ

एक कवच बना लिया है

तुम बेकार ही परेशान हो

रोजाना ख़्वाब देखते हो सच्चे लोकतंत्र के

खूब चिल्लाते हो

क्या कोई सुनता है?

हाँ! रिकॉर्ड जरूर बन जाता है

दफ्तर के लिए

तुम्हारी आवाज भी

किसी फाइल में दबा कर रख दी जायेगी

फिर कभी अगले जन्म में

तुम या कोई और

उसे सुनने आयेगा शायद

ये भी कोई नहीं जानता है

ये जो होशियार आँखें बालकोनी में हैं

कलम जिनके हाथों में है

या जो ऊंची कुर्सियों पर बैठे हैं

इनसे भी उम्मीद मत करना

… चल बस अब वक्त हो गया

कल दुबारा आने के लिए

या फिर घर जाने के लिए

मुंबई में जुहू बीच पर 3 जनवरी 1999 को शाम 7: 30 बजे टहलते हुए कवि डीपी ने “लहरों का गीत” शीर्षक से लिखा है कि …

समुद्र की लहरों से सीखो जिंदा रहना

चलते-चलते, मिटते-मिटते जिंदा रहना

वक्त की पुरजोर आंधी जब उन्हें मिटाती

हवा की लहरों पर भी मिट कर जिंदा रहना

अठखेलियाँ कर, आते जाते और मचलते

टूटना, जुड़ कर बिखरना और जिंदा रहना

है जीवन संग्राम, जिंदगी एक सफर है

सिख ले जीना और चल कर जिंदा रहना

वक्त ने दी आवाज जुर्म को दस्तक देकर

मजलूमों का रहबर बन कर जिंदा रहना

राजस्थान में 17 दिसंबर 2000 को कवि डीपी ने “चल लौट के मन” शीर्षक से लिखा है कि …

अपने बचपन में

लौट जाना चाहता हूँ

मैं उस वक्त को फिर

अपने करीब लाना चाहता हूँ

मेरी निर्दोष आँखों में

उन्हीं सपनों की कल्पना है

निर्दयी दुनिया की चोट सहते-सहते घबरा गया हूँ

घुटन भरी इस जिंदगी से छुटकारा पाना चाहता हूँ

कभी-कभी मेरा व्याकुल मन

बगावत पर उतारू हो जाता है

उसी प्यारी सी दुनिया में

लौट जाना चाहता हूँ

समय की आंधी

मेरे ऑंखों को तोड़ने पर आमादा है

मैं इस घुटन से छुटकारा पाना चाहता हूँ

नये शीशे की तरह

आज भी स्वच्छ है मेरा मन

अल्हड़पन के गीत को

गुनगुनाना चाहता हूँ

बागी मन की ताकत

कोशिश तो बहुत करती है

रूढ़ियों को रौंद कर

नई दुनिया बसाना चाहता हूँ

बिहार भ्रमण के दौरान 30 जून 2003 को कवि डीपी ने “वक्त” शीर्षक से लिखा है कि …

वक्त की रेत पर खड़ा हूँ जैसे

नहीं जानता

कब टूट कर बिखर जायेगी

बेरहम दुनिया

अपनी मनहूस तस्वीर लिए

न जाने किस बेकसूर के

सपनों को निगल जायेगी

दूर जाकर गिरेंगी

पतझड़ में पत्तियां

कौन जाने किसकी किस्मत

किधर जायेगी

बेरहम वक्त के

थपेड़े सहकर

शायद

उनकी किस्मत भी संवर जायेगी

मेरी जुंबिश जैसे

कैद हो गई किसी कैदखाने में

मुट्ठियाँ

वक्त की खोल कर निकल जायेगी

तू न सही

तेरी याद का झरोखा ही सही

इसी सहारे और उम्मीद पर

शेष घड़ियाँ भी निकल जायेंगी

कटनी से रेल में आते वक्त रात में डीपी का कवि जाग गया, तो “तुझ से” शीर्षक नाम की रचना का जन्म हुआ …

तू शेर की संतान का इतिहास बन जा

इंसानियत और इंसान का इतिहास बन जा

तेरे अभिमान की इस दिशा में

गरीबों के उत्थान का इतिहास बन जा

दूर क्षितिज के उस कोने से आई आवाजें

मानवता के मान शिखर का इतिहास बन जा

करुणा के घर चल, देख इस करुण प्रयाग को

पीड़ित मानव के हृदय की आवाज बन जा

सदियों के उत्पीड़न के इस अभ्यारण में

लाखों बेबस आवाजों का इतिहास बन जा

आतंक का दानव तेरा दामन न झटके

कर संहार दैवी शक्ति का इतिहास बन जा

संभल लोकसभा क्षेत्र से वर्ष- 2004 में डीपी ने चुनाव लड़ा, इस चुनाव में मुलायम सिंह यादव के अनुज प्रो. रामगोपाल यादव विजयी हुए, उससे पहले डीपी यादव पर कई मुकदमे लिखे गये। तीन दिन के अंदर डीपी पर दो बार रासुका लगी, जिससे डीपी को सहानुभूति भी मिली। डीपी जेल गये और 75 दिनों तक जेल में रहे, इस दौरान “सलाखों के पार” नाम से किताब लिखी, जो प्रकाशित हो चुकी है, इसके शुरुआत में लिखा है कि …

आजादी के दीवानों का शोर मचाना बाकी है

कौन सही हकदार देश का, यह हिसाब लगाना बाकी है

किसके चरित्र में गददारी है, किसने दी कुर्बानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी

गददारी की और गददी मिल गई, ये तो गजब कहानी है

समाजवाद के झूठे नारे लोग लगाते गलियों में

गाँव की खाक छानने वाले अब मुंबई की रंगरलियों में

धूल भरी उस पगडंडी से, ये उनकी बेईमानी है

देखने में रोई सी सूरत, माल देश का खा बैठे

किसान मजदूर को लूट लिया और किनारे जा बैठे

जन-क्रांति आयेगी जिस दिन, तुम पर आफत आनी है

नशे में चूर हो सत्ता वालों, मानवता को मत ठुकराओ

इतिहास को ठोकर मारने वालों, मानवता को मत ठुकराओ

कोमलता से भरी पवन का, विकराल रूप तुमने देखा है

निर्मल जल की जलधारा का, विकराल रूप तुमने देखा है

समय की सुनो आवाज ध्यान से, मानवता को मत ठुकराओ

रौद्र रूप की जली अग्नि की, ज्वलनशीलता तुमने देखी है

आकाश-धरा के बीच बहकती सुमनलता तुमने देखी है

नंगे बदनों को निहारने वालों, मानवता को मत ठुकराओ

गरीब की दुनिया भी दुनिया है, हंसी उड़ाना ठीक नहीं है

बस जाने दो उनकी दुनिया, उन्हें उजाड़ना ठीक नहीं है

झूठ से सच को हराने वालों, मानवता को मत ठुकराओ

उस चुनाव के दौरान डीपी पर कई फर्जी मुकदमे लिखाए गये, तो अख़बार डीपी की आवाज बन गये, इस पर कवि डीपी ने लिखा है कि …

अखबारों ने जेल के अंदर मेरे मन का दर्द लिखा है

लिख डाली है जेल की पाती सरकार को बेदर्द लिखा है

चिट्ठी तो लिख डाली तुमने सोचा कुछ हो जायेगा

रह-रह कर जो उठा दर्द है तानाशाही में खो जायेगा

न्याय की कार्रवाई करने वाले न्यायालय को हमदर्द लिखा है

न्याय के दिन की शाम ढल गई अन्याय के बादल मंडराए हैं

दुआओं में जो हाथ उठे थे जुर्म के आगे घबराये हैं

कब तक वहशीपन बिखरेगा है मायूस जुनूनी मर्द लिखा है

हम भी कुछ खोये-खोये वक्त भी कुछ घबराया सा है

शासक जुल्मी वहशी दरिंदे जनता का मन घबराया सा है

जुल्म की जुंबिश खुलेगी एक दिन खुदा नाम हमदर्द लिखा है

डीपी यादव को कवि के रूप में महसूस करते समय प्रतीत होता है कि डीपी को अपराध और राजनीति में हालात के साथ महत्वाकांक्षा ने फंसा दिया, वरना डीपी के अंदर भी एक आम इंसान छिपा रहता है, जो आम इंसान की तरह ही न सिर्फ महसूस करता है, बल्कि एक आम इंसान जैसी जिंदगी भी चाहता है, जिसमें परिवार, शांति, सम्मान और और वैभव भी हो। आम जनमानस के बीच डीपी यादव की छवि कुख्यात माफिया सी ही है, लेकिन कवि डीपी के मन से लगता है, वो भी परिवर्तन का हिमायती है। शोषित व आम आदमी का हिमायती है और वर्तमान राजनैतिक वातावरण से त्रस्त है, पर मूल जीवन में कवि डीपी नहीं था। मूल भूमिका में बाहुबलि, धनबलि और माफिया डीपी था, जो अब सलाखों के पीछे पहुंच चुका है। हो सकता है कि भयमुक्त वातावरण में सलाखों के पार बाहुबलि और धनबलि डीपी पर एक बार फिर कवि डीपी हावी हो जाये, ऐसा हुआ, तो एक बार फिर सृजन भी हो सकता है।

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