मनोज कुमार
मीडिया गरीब की लुगाई भले ही न हो लेकिन गांव भर की भौजाई तो बन ही चुकी है
गांव-देहात में एक पुरानी कहावत है गरीब की लुगाई, गांव भर की भौजाई. शायद हमारे मीडिया का भी यही हाल हो चुका है. मीडिया गरीब की लुगाई भले ही न हो लेकिन गांव भर की भौजाई तो बन ही चुकी है और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है. मीडिया का जितना उपयोग बल्कि इसे दुरूपयोग कहें तो ज्यादा बेहतर है, हमारे देश में सब लोग अपने अपने स्तर पर कर रहे हैं, वह एक मिसाल है. आमिर खान की लगभग अर्थहीन फिल्म पीके में जिस तरह मीडिया का उपयोग किया गया है, वह इसी बात की तरफ इशारा करती है.
पीके के पहले एक और फिल्म आयी थी और उसके चर्चे भी खूब हुये. आप भूल रहे हैं? उस फिल्म के नाम का पहला अक्षर भी पी से था अर्थात पीपलीलाईव. दोनों फिल्मों का खासतौर पर उल्लेख करना जरूरी पड़ता है क्योंकि दोनों फिल्में एक पत्रकार होने के नाते मुझे जख्म देती हैं. यह बात और साथियों के साथ भी होगी लेकिन वे कह नहीं रहे हैं या कहना नहीं चाहते हैं. खैर, मैं अपनी बात कहता हूं. पीपली लाईव में मीडिया को इस तरह समाज के सामने प्रस्तुत किया गया था कि मानो मीडिया का सच्चाई से कभी कोई लेना-देना नहीं रहा. इतनी अतिशयोक्ति के साथ फिल्म बनायी गयी थी कि मन खट्टा हो जाता है. बावजूद मीडिया का दिल देखिये, इस फिल्म को उसने सिर-आंखों
बिठाया और उसे लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया. अब एक और फिल्म हमारे सामने है पीके. इसमें मीडिया का सकरात्मक चेहरा तो दिखाने की कोशिश नहीं की गई है लेकिन अनजाने में वह सकरात्मक हो गया है. मीडिया के कारण जनमानस बदलता है और एक संशय, एक गलतफहमी दूर होती है. वाह रे फिल्म निर्माताओं तुम्हारी तो जय हो. राजनीति में जिस तरह मीडिया का उपयोग किया जाता है, वह किसी से छिपा नहीं है. मन की खबरें छपी तो मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया बन जाता है और मन की न छपे तो मीडिया पर जिस तरह के आक्षेप लगाये जाते हैं, वह शर्मनाक है. खैर, इस समय बात फिल्म की कर रहा हूं.
सवाल यह है कि जिस पीपलीलाईव में मीडिया टीआरपी बटोरने के लिये सबकुछ दांव पर लगा देता है वही मीडिया पीके में सच्चाई का साथ देने के लिये स्वयं को आगे करता है. यह उलटबांसी मुझ जैसे कम अनुभव वाले पत्रकार के समझ नहीं आया. पीपली लाईव और पीके बनाने वालों को याद भी नहीं होगा कि इसी देश में एक फिल्म बनी थी न्यू देहली टाइम्स. इस फिल्म को बनाने वाले आसमान से नहीं उतरे थे. इन्हीं में से कोई था और उसे पता था कि ग्लैमरस दिखने वाले मीडिया के भीतर कितना अंधियारा है. एक पत्रकार बड़ी मेहनत से खबर लाता है और अखबार मालिक-राजनेता के गठजोड़ से खबर रोक दी जाती है. खबर क्या मरती है, पत्रकार मर जाता है.
न्यू देहली टाइम्स के पत्रकार की तरह तो नहीं लेकिन कुछ मिलते-जुलते हादसे का शिकार मैं भी अपनी पत्रकारिता के शुरूआती दिनों में हुआ हूं. इस पीड़ा को बखूबी समझ सकता हूं. जब मेरे अखबार मालिक के दोस्त के खिलाफ लिखा तो वह हिस्सा ही छपने से रोक दिया गया. यह भी सच है कि तब वह पत्रकारिता का जमाना था और आज यह मीडिया का जमाना है लेकिन सच तो यही है कि आज भी स्थिति इससे अलग नहीं है. दोस्ती निभायी जा रही है, अपना नफा-नुकसान देखा जा रहा है, टीआरपी न गिरे, अखबार-पत्रिका का सेल न घटे और इस गुणा-भाग से आज भी मीडिया जख्मी है.
पीपली लाईव बनाने वाले या पीके बनाकर करोड़ों कमाने वालों को भी अपनी ही पड़ी है. वे भी कौन सा समाज का भला कर रहे हैं, यह सवाल भी उठना चाहिये. पीपली लाईव के कलाकार आज किस स्थिति में है, किसी को खबर है? खबर हो भी क्यों? मीडिया तो गांव भर की भौजाई है. चाहे जैसे उसका इस्तेमाल करो. दुख तो इस बात का है कि मीडिया को भी अपने इस्तेमाल हो जाने का दुख नहीं है क्योंकि आखिरकार मीडिया समाज का चौथा स्तंभ है और वह अपनी जवाबदारी स्वार्थहीन होकर निभाता है. वह समाज की चिंता करता है और करता रहेगा. मीडिया के इस बड़ेपन, बड़े दिल को सलाम करता हूं और अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूं कि इस मीडिया का मैं हिस्सा हूं. भले ही कण भर.