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नेशनल हेराल्ड से उम्मीद जगी

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फ़िरदौस ख़ान-

अख़बारों का काम ख़बरों और विचारों को जन मानस तक पहुंचाना होता है. सूचनाओं के इसी प्रसार-प्रचार को पत्रकारिता कहा जाता है. किसी ज़माने में मुनादी के ज़रिये हुकमरान अपनी बात अवाम तक पहुंचाते थे. लोकगीतों के ज़रिये भी हुकुमत के फ़ैसलों की ख़बरें अवाम तक पहुंचाई जाती थीं. वक़्त के साथ-साथ सूचनाओं के आदान-प्रदान के तरीक़ों में भी बदलाव आया. पहले जो काम मुनादी के ज़रिये हुआ करते थे, अब उन्हें अख़बार, पत्रिकाएं, रेडियो, दूरदर्शन और वेब साइट्स अंजाम दे रही हैं. पत्रकारिता का मक़सद जनमानस को न सिर्फ़ नित नई सूचनाओं से अवगत कराना है, बल्कि देश-दुनिया में घट रही घटनाओं से उन पर क्या असर होगा, यह बताना भी है. लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि जिस तरह पिछले चंद सालों में कुछ मीडिया घरानों ने पत्रकारिता के तमाम क़ायदों को ताख़ पर रखकर ’कारोबारी’ राह अपना ली है, उससे मीडिया के प्रति जनमानस का भरोसा कम हुआ है. ऐसा नहीं है कि सभी अख़बार या ख़बरिया चैनल बिकाऊ हैं. कुछ अपवाद भी हैं. जिस देश का मीडिया बिकाऊ होगा, उस देश के लोगों की ज़िन्दगी आसान नहीं होगी. पिछले कई साल से देश में अराजकता का माहौल बढ़ा है. जिस तरह से सरेआम लोगों पर हमला करके उनकी हत्याएं की जा रही हैं, अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाले दलितों, किसानों पर गोलियां बरसाई जा रही हैं, ऐसे में मीडिया की ख़ामोशी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है. अराजकता भरे दौर में ऐसे अख़बारों की ज़रूरत महसूस की जा रही है, जो सच्चे हों, जिन पर अवाम भरोसा कर सके, जो चंद सिक्कों के लिए अपना ज़मीर न बेचें, जो जनमानस को गुमराह न करें.

ऐसे में कांग्रेस के अख़बार नेशनल हेराल्ड के प्रकाशन का शुरू होना, ख़ुशनुमा अहसास है. गुज़श्ता 12 जून कोकर्नाटक की राजधानी बंगलुरु में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी में इसके संस्मरणीय संस्करण का लोकार्पण किया गया. यह अख़बार दिल्ली से साप्ताहिक प्रकाशित किया जाएगा. इस मौक़े पर राहुल गांधी ने कहा कि मौजूदा वक़्त में जो लोग सच्चाई के साथ हैं, उन्हें दरकिनार किया जा रहा है. दलितों को मारा जा रहा है, अल्पसंख्यकों को सताया जा रहा है और मीडिया को धमकाया जा रहा है. उन्होंने कहा कि नेशनल हेराल्ड के एडिटर एक दिन मेरे पास आए. मैंने उनसे कहा, अगर आपको किसी दिन कांग्रेस पार्टी या मेरे ख़िलाफ़ कुछ लिखना हो, तो बिना ख़ौफ़ के लिखें. ये वो चीज़ है, जो हम नेशनल हेराल्ड से चाहते हैं. सच्चाई से डरने की ज़रूरत नहीं है और ना चुप रहने की.

ग़ौरतलब है कि जवाहरलाल नेहरू और स्वतंत्रता सेनानियों ने लखनऊ से 9 सितंबर, 1938 को नेशनल हेराल्ड नाम से एक अख़बार शुरू किया था. उस वक़्त यह अख़बार जनमानस की आवाज़ बना और जंगे-आज़ादी में इसने अहम किरदार अदा किया. शुरुआती दौर में जवाहरलाल नेहरू ही इसके संपादक थे. प्रधानमंत्री बनने तक वे हेराल्ड बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स के चेयरमैन भी रहे. उन्होंने अख़बार के अंतर्राष्ट्रीय संवाददाता के तौर पर भी काम किया. अख़बार लोकप्रिय हुआ. साल 1968 में दिल्ली से इसके संस्करण का प्रकाशन शुरू हो गया. हिंदी में नवजीवन और उर्दू में क़ौमी आवाज़ के नाम से इसके संस्करण प्रकाशित होने लगे. अख़बार को कई बार बुरे दौर से गुज़रना पड़ा और तीन बार इसका प्रकाशन बंद किया गया. पहली बार यह अंग्रेज़ी शासनकाल में उस वक़्त बंद हुआ, जब अगस्त 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय अख़बारों के ख़िलाफ़ दमनकारी रवैया अपनाया था. नतीजतन, 1942 से 1945 तक नेशनल हेराल्ड को अपना प्रकाशन बंद करना पड़ा. फिर साल 1945 में अख़बार का प्रकाशन शुरू किया गया. साल 1946 में फ़िरोज़ गांधी को नेशनल हेराल्ड का प्रबंध निदेशक का कार्यभार सौंपा गया. वे 1950 तक उन्होंने इसकी ज़िम्मेदारी संभाली. इस दौरान अख़बार की माली हालत में भी कुछ सुधार हुआ. लेकिन आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हार के बाद अख़बार को दो साल के लिए बंद कर दिया गया. कुछ वक़्त बाद अख़बार शुरू हुआ, लेकिन साल 1986 में एक बार फिर से इस पर संकट के बादल मंडराने लगे, लेकिन राजीव गांधी के दख़ल की वजह से इसका प्रकाशन होता रहा. मगर माली हालत ख़राब होने की वजह से अप्रैल 2008 में इसे बंद कर दिया गया.

क़ाबिले-ग़ौर है कि असोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड कंपनी (एजेएल ) के तहत नेशनल हेराल्ड का प्रकाशन किया जाता था, जो एक सेक्शन-25 कंपनी थी. इस तरह की कंपनियों का मक़सद कला-साहित्य आदि को प्रोत्साहित करना होता है. मुनाफ़ा कमाने के लिए इनका इस्तेमाल नहीं किया जाता. मुनाफ़ा न होने के बावजूद यह कंपनी काफ़ी अरसे तक नुक़सान में चलती रही. कांग्रेस ने असोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड कंपनी को चलाए रखने के लिए कई साल तक बिना ब्याज़ के उसे क़र्ज़ दिया. मार्च 2010 तक कंपनी को दिया गया क़र्ज़ 89.67 करोड़ रुपये हो गया. बताया जाता है कि कंपनी के पास दिल्ली और मुंबई समेत कई शहरों में रीयल एस्टेट संपत्तियां हैं. इसके बावजूद कंपनी ने कांग्रेस का क़र्ज़ नहीं चुकाया. पार्टी के वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा को 22 मार्च 2002 को कंपनी के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. इसके कई साल बाद 23 नवंबर 2010 को यंग इंडियन प्राइवेट लिमिटेड नाम की सेक्शन-25 कंपनी सामने आई. गांधी परिवार के क़रीबी सुमन दुबे और सैम पित्रोदा जैसे लोग इसके निदेशक थे. अगले महीने 13 दिसंबर 2010 को राहुल गांधी को इस कंपनी का निदेशक बनाया गया. अगले ही साल 22 जनवरी 2011 को सोनिया गांधी भी यंग इंडिया के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में शामिल हो गईं. उनके साथ-साथ मोतीलाल वोरा और कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य ऑस्कर फ़र्नांडीज भी यंग इंडियन के बोर्ड में शामिल किए गए. इस कंपनी के 38-38 फ़ीसद शेयरों पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की हिस्सेदारी है, जबकि के 24 फ़ीसद शेयर मोतीलाल वोरा और ऑस्कर फर्नांडीज के नाम हैं. दिसंबर 2010 में असोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड कंपनी के प्रबंधकों ने 90 करोड़ रुपये के क़र्ज़ बदले पूरी कंपनी यंग इंडियन के हवाले कर दी. यंग इंडियन ने इस अधिग्रहण के लिए 50 लाख रुपये का भुगतान किया. इस तरह यह कंपनी यंग इंडियन की सहायक कंपनी बन गई.

बहरहाल, कांग्रेस ने नेशनल हेराल्ड शुरू करके सराहनीय काम किया है. पिछले कुछ अरसे से ऐसे ही अख़बार की ज़रूरत महसूस की जा रही थी. आज का अख़बार कल का साहित्य है, इतिहास है. अख़बार दुनिया और समाज का आईना हैं. देश-दुनिया में में जो घट रहा है, वह सब सूचना माध्यमों के ज़रिये जन-जन तक पहुंच रहा है. आज के अख़बार-पत्रिकाएं भविष्य में महत्वपूर्ण दस्तावेज़ साहिब होंगे, क्योंकि इनके ज़रिये ही आने वाली पीढ़ियां आज के हालात के बारे में जान पाएंगी. इसके ज़रिये ही लोगों को समाज की उस सच्चाई का पता चलता है, जिसका अनुभव उसे ख़ुद नहीं हुआ है. साथ ही उस समाज की संस्कृति और सभ्यता का भी पता चलता है. पत्रकारिता सरकार और जनता के बीच सेतु का काम करती है. अख़बारों के ज़रिये अवाम को सरकार की नीतियों और उसके कार्यों का पता चलता है. ठीक इसी तरह अख़बार जनमानस की बुनियादी ज़रूरतों, समस्याओं और उनकी आवाज़ को सरकार तक पहुंचाने का काम करते हैं.

यह बात समझनी होगी कि मीडिया का काम ’सरकार’ या ’वर्ग’ विशेष का गुणगान करना नहीं है. जहां सरकार सही है, वहां सरकार की सराहना की जानी चाहिए, लेकिन जब सत्ताधारी लोग तानाशाही रवैया अपनाते हुए जनता पर क़हर बरपाने लगें, तो उसका पुरज़ोर विरोध होना ही चाहिए. मीडिया को जनता की आवाज़ बनना चाहिए, न कि सरकार का भोंपू.

बहरहाल, नेशनल हेराल्ड एक सियासी पार्टी का अख़बार है, इसलिए इसे अवाम में अपनी साख बनाए रखने के लिए फूंक-फूंक कर क़दम रखना होगा. इसके हिन्दी, उर्दू व अन्य भाषाओं के संस्करण भी प्रकाशित होने चाहिए.
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)
ईमेल : editor.starnewsagency@gmail.com

पंजाब केसरी के वेब टीवी में वैकेंसी

पंजाब केसरी के वेब टीवी में कुछ रिक्तियां हैं जिसके लिए आवेदन किया जा सकता है. उन्हें वेब एडिटर और ग्राफिक डिजाइनर की आवश्यकता है. यदि आप इच्छुक हैं तो इस मेल आईडी पर अपना बायोडाटा भेज सकते हैं – pkgvideoeditor@gmail.com

विशाल शुक्ल को श्री गिरीश स्मृति ग्रामीण पत्रकारिता सम्मान

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हाल में आयोजित एक सम्मान समारोह में शाहजहांपुर के रहने वाले युवा पत्रकार विशाल शुक्ल को श्री गिरीश स्मृति ग्रामीण पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया है। उक्त सम्मान श्री गिरीश स्मृति न्यास द्वारा प्रत्येक वर्ष पत्रकारिता के क्षेत्र में शीर्ष प्रदर्शन करने वाली युवा प्रतिभाओं को दिया जाता है।

ध्यान रहे कि विशाल ने पत्रकारिता की पढ़ाई देश के शीर्ष पत्रकारिता संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन (आईआईएमसी) से की है। छात्र जीवन मे नेशनल डिबेटर रह चुके विशाल वर्ष 2013 में दिल्ली में आयोजित अंतराष्ट्रीय ‘सार्क डिबेट चैंपियनशिप’ में फर्स्ट रनर अप भी रह चुके हैं।

2014 में दैनिक जागरण के डिजिटल विंग के साथ अपने पत्रकारीय सफर का प्रारम्भ करने के बाद विशाल ने अंतराष्ट्रीय पत्रकारिता सन्सथान ‘International Business Times’ के साथ भी कारेसपाण्डेन्ट के तौर पर भी काम किया है।

वर्तमान में ग्रामीण विकास, जन – सरोकार से जुड़े मुद्दों पर स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं। वह सीबीएसई द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित की जाने वाली राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) भी उत्तीर्ण कर चुके हैं।

(नितेश झा)

मीडिया मालिकों की पहरेदारी करने वाले पत्रकारों के मुद्दे पर भी कभी बोलिए

press club of india
प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया - प्रतीकात्मक तस्वीर

एनडीटीवी इंडिया पर छापे पर प्रेस क्लब में एनडीटीवी के नेतृत्व में एक बैठक का आयोजन किया गया और इसे फ्रीडम ऑफ़ प्रेस पर हमला घोषित किया गया. इसमें कई दिग्गज पत्रकार शामिल हुए. इसी पर पुष्कर पुष्प की सोशल मीडिया पर की गयी एक टिप्पणी –

जब पत्रकारों के हित की बात आती है तो ये सब दांत चियार कर गायब हो जाते हैं।। लेकिन जब मालिकों का सवाल होता है तो सीना तानकर खड़े हो जाते हैं।। नेटवर्क 18 में सैकड़ों पत्रकारों को नियम-कानून ताक पर रखकर निकाला गया तो कोई राजदीप, प्रनॉय सामने नहीं आया।। ऐसे दसियों उदाहरण है जब पत्रकारों का दमन हुआ और मालिकों के नुमाइंदे वरिष्ठ पत्रकार अपनी-अपनी जगह पर कुंडली मारे बैठे रहे।। सड़क पर आना तो दूर, दो शब्द भी न कह सके।। हर न्यूज़रूम में न जाने कितने पत्रकारों का कत्ल(वैचारिक) मोदी, सोनिया,केजरीवाल की जूती पहने मीडिया मालिक करते है।। आपको जरा अंदाज़ा भी है।। कभी उनके लिए भी आवाज़ उठाइये।। सिर्फ प्रनॉय रॉय और उन जैसे मीडिया मालिकों की ही पहरेदारी मत कीजिये।। साधारण पत्रकारों पर भी गौर फरमाएं।। टीवी और अखबार के उन संपादकों पर भी दया दृष्टि डालिये जिन्हें मालिकों ने क्लर्क बनने पर मजबूर कर दिया है।। उनकी स्वतंत्रता पर हो रहे हमले पर भी सवाल उठाइये।। प्रेस क्लब में कभी मीटिंग बैठाइए।। फ्रीडम ऑफ प्रेस का राग तब समझ में आएगा।। #मीडिया_खबर

(पुष्कर पुष्प के फेसबुक प्रोफाइल से साभार)

चार लाख में एक ‘पत्रकार’ से मीडिया मैनेज कराती उत्तराखंड सरकार

ramesh bhatt anchor news nation
रमेश भट्ट (Photo Credit - News Nation)

वेद उनियाल – बेबस, लाचार और समस्याओं से घिरे राज्य मे। चार लाख पर मीडिया सलाहकार का केवल अय्याशी का पद। वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट जी के इस लेख को जरूर पढ़िए। और महसूस कीजिए किस तरह उत्तराखंड कौ हर बार की तरह इस बार भी रौंदा जा रहा है। कुछ भी अलग नही

योगेश भट्ट-

सरकार और पत्रकार एक ऐसा रिश्ता ,जो साथ चलें पर मिल ना पायें । सही मायनों में यही इस रिश्ते की सुचिता भी है । लेकिन लगता है ना सरकार और ना हम खुद इसे कायम रखने को तैयार हैं । सरकार पत्रकार को अपना ‘भोंपू’ बनाना चाहती है तो पत्रकार भी सत्ता सुख और सरकारी ‘मलाई’ की फिराक में है । सरकारें तो चाहती ही नहीं कि पत्रकार अपनी हद में रहें, अपने पवित्र पेशे की सुचिता बनाये रखें । आज सरकार चाहती है कि पत्रकार उसके लिए मीडिया मैनेज करे, अभी तक तो यह ‘खेल’ पर्दे के पीछे का था पर अब तो खुला खेल है । किसी पत्रकार को सरकार सलाहकार नियुक्त करे अच्छा है, फीड बैक और फ्लानिंग के लिहाज से यह बात तो समझ में आती है । मगर एक पत्रकार को मीडिया सलाहकार बनाए जाने की बात समझ से परे है। यूं तो जब-जब सरकार सलाहकार नियुक्त करती है, तब-तब सवाल उठते ही हैं, लेकिन कुछ दिन पहले जब सरकार ने एक मीडिया सलाहकार की नियुक्ति की तो उस पर सोशल मीडिया में अच्छी-खासी प्रतिक्रियाएं आईं।

सरकार ने उत्तराखंड मूल के दिल्ली में कार्यरत एक पत्रकार रमेश भट्ट को मीडिया सलाहकार बनाने का फैसला किया। मीडिया सलाहकार यानी मीडिया मैनेजर ,आश्चर्य इस बात को लेकर है कि कोई ‘पत्रकार’ सरकार को मीडिया मैनेजमेंट संबंधी क्या सलाह दे सकता है ? सच तो यह है कि सरकार का पत्रकार को मीडिया एडवाइजर बनाना यानी एक तीर से कई निशाने साधने जैसा है । यह एक पत्रकार को खत्म करना तो है ही , बाकी बिरादरी के लिए मैसेज भी है। सोचनीय यह है कि कोई पत्रकार, खासकर मुख्यधारा से जुड़ा रहने वाला पत्रकार आखिर किस तरह सरकार के लिए मीडिया को मैनेज कर सकता है? बतौर मीडिया एडवाइजर जो भी लोग अभी तक सरकारों के लिए काम करते रहे हैं, उनका काम यही तय करना रहा है कि किस पत्रकार को ‘सरकार’ से मिलाया जाए और किसे नहीं। क्या छपवाया , रुकवाया जाए और क्या चलवाया जाए ? किस मीडिया समूह के लिए रेड कार्पेट बिछाई जाई, किसको हतोत्साहित किया जाए। अगर कहीं स्थितियां मुख्यमंत्री के पक्ष में नहीं हैं तो साम,दाम,दंड,भेद करके सब कुछ कंट्रोल में कैसे किया जाए। किस समूह, किस पत्रकार को कितना और किस-किस तरह से उपकृत किया जाए? किसे विज्ञापन दिया जाए, किसे डराया-धमकाया जाए। सवाल यह है कि कोई खांटी पत्रकार क्या इस पर खरा उतर सकता है? जो व्यक्ति लंबे वक्त तक सक्रिय और जनसरोकारी पत्रकारिता करता रहा हो, वह तो किसी भी सूरत में ऐसा नहीं कर सकता।

सच यह है एक पत्रकार यदि सरकार का मीडिया एडवाइजर बन जाए तो फिर या तो वो उस भूमिका में नाकाम होगा या अपने सिद्धातों के साथ अन्याय करेगा। पत्रकारों को मैनेज करने की ही बात की जाए तो आज के दौर में यह भी कम मुश्किल टास्क नहीं है। पत्रकारों के बीच जिस तरह की गुटबाजी है , मीडिया हाउसों की प्रतिद्वंदता है, उसे देखते हुए किसी भी मैनेजर के लिए सबको संतुष्ट करना बेहद मुश्किल है। सरकार की कृपा आंकाक्षी पत्रकारों का हाल यह है कि आपस में वह एक दूसरे को फूटी आंख पसंद नहीं सुहाते । पिछली सरकार के कार्यकाल में यह साबित भी हो चुका है। तब किसी एक पत्रकार को उपकृत किए जाने की खबर चलाकर सरकार ने पत्रकारों का खूब तमाशा कराया। बताईये ऐसे में क्या कोई पत्रकार मीडिया सलाहकार की भूमिका निभा सकता है? यह अपने आप में बड़ा सवाल है । मंशा सही हो तो पत्रकारों के अनुभवों का लाभ सरकार तमाम दूसरी जिम्मेदारी देकर ज्यादा बेहतर कर सकती है , पर नहीं सरकार तो पत्रकार से सिर्फ ‘खेलना’ चाहती है। सवाल यह है कि एक पत्रकार को मीडिया एडवाइजर बना कर ही सरकार क्या संदेश देना चाहती है? सच यह है कि पत्रकार को पत्रकारों को मैनेज करने का जिम्मा देकर सरकार चाहती है कि मीडिया आपस में ही उलझता रहे ,और सरकार अपना उल्लू सीधा करती रहे।

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