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राजस्थान पत्रिका से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी

om thanvi journalist
ओम थानवी, वरिष्ठ पत्रकार

दिल्ली. वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता के पूर्व संपादक ‘ओम थानवी’ बतौर सलाहकार सम्पादक राजस्थान पत्रिका समूह से जुड़ गए है. इस बाबत उन्होंने सोशल मीडिया पर सूचना देते हुए लिखा –

“आज औपचारिक रूप से मैंने राजस्थान पत्रिका समूह के सलाहकार सम्पादक का ज़िम्मा संभाल लिया। ‘औपचारिक रूप से’ इसलिए कि अनौपचारिक विमर्श हफ़्ते भर पहले शुरू हो गया था!

पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत मैंने पत्रिका से ही की थी। 1980 में, संस्थापक कर्पूरचंद कुलिश के बुलावे पर। तीस वर्ष पहले पत्रिका से आकर ही चंडीगढ़ में जनसत्ता का सम्पादक हुआ। वहाँ से दिल्ली आया। आप कह सकते हैं, आज घरवापसी हुई।

इस बीच पत्रिका समूह बहुत व्यापक हो गया है। अख़बार, टीवी, रेडियो, डिज़िटल आदि विभिन्न मीडिया क्षेत्रों में उसकी अपनी जगह है। दैनिक पत्रिका का प्रकाशन अब राजस्थान के अलावा दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, गुजरात, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और तमिलनाडु से भी होता है। 33 संस्करण छपते हैं। कोई 1 करोड़ 29 लाख पाठक इसे पढ़ते हैं। बीबीसी-रायटर के एक सर्वे में देश के सर्वाधिक विश्वसनीय तीन अख़बारों में पत्रिका एक था।

मेरे लिए पत्रिका का प्रस्ताव स्वीकार करने की एक बड़ी वजह रहा समूह का जुझारू अन्दाज़। संघर्ष की ललक और सत्ता के समक्ष न झुकने का तेवर। इसकी एक वजह शायद यह है कि मीडिया ही इस समूह का मुख्य व्यवसाय है। इससे समझौते की जगह लिखना अहम हो जाता है। हाल में राजस्थान सरकार ने मीडिया को क़ाबू करने के लिए जिस काले क़ानून को थोपने की कोशिश की, वह पत्रिका के मोर्चा लेने के कारण ही आंदोलन बना और अंततः सरकार झुकी। क़ानून का इरादा हवा हुआ।

पत्रिका के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी केंद्र सरकार के कामकाज पर तीखे संपादकीय नाम से लिखते आए हैं। उनके सम्पादक भी स्वतंत्र भाव से लिखते हैं। जब पत्रकारों-संपादकों में बिछने की चाह बलवती हो, पत्रिका की इस भूमिका ने भी मुझे उससे जोड़ा है। समूह के अनेक पत्रकारों के साथ मैंने पहले भी काम किया है।

तो उम्मीद है काम का मज़ा रहेगा। पत्रिका की सार्थक पत्रकारिता में कुछ योगदान कर सका तो उसका संतोष भी।

मेरा मुख्यालय दिल्ली (कहिए एनसीआर) रहेगा।”

इकबाल परवेज़ के एनडीटीवी इंडिया में दस साल पूरे

iqbal parvez journalist
इकबाल परवेज़, पत्रकार, एनडीटीवी इंडिया

फिल्म पत्रकार इकबाल परवेज ने एनडीटीवी इंडिया में दस साल पूरे कर लिए हैं. इस मौके पर उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए फेसबुक पर लिखा – “Today I am very excited for completing 10 years of my services with NDTV. I don’t know how fast these years passed but one thing is sure that all these years were incredible for me. I am proud to be part of NDTV Group…
Thank you NDTV for giving me this opportunity…”
टीवी न्यूज़ की दुनिया में इकबाल परवेज की गिनती देश के बेहतरीन फिल्म पत्रकारों में की जाती है. उन्होंने इसके पहले ईटीवी और ज़ूम के साथ भी काम किया है. वैसे वे मूलतः गया (बिहार) के रहने वाले हैं और पिछले 15 वर्षों से मुंबई में हैं.

Iqbal Parvez Journalist
इकबाल परवेज़, पत्रकार, एनडीटीवी

‘गवर्नमेंट ऑफ मीडिया’ पर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में ‘रवीश कुमार’ का हिंदी में भाषण

ravish kumar
रवीश कुमार

एनडीटीवी के प्रख्यात एंकर रवीश कुमार की ख्याति देश-विदेश तक फ़ैल चुकी है. हाल ही में उन्हें हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम इंडिया कॉन्‍फ्रेंस 2018 में हिस्‍सा लेने के लिए आमंत्रित किया गया था जहाँ मीडिया पर उन्होंने अपना लेक्चर हिंदी में दिया. अपने भाषण में मीडिया और सरकार के गठजोड़ को इंगित करने के उद्देश्य से उन्होंने मीडिया को ‘गवर्नमेंट ऑफ़ मीडिया’ की संज्ञा दे डाली. उन्होंने कहा कि भारत के न्यूज़ एंकर राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिक हो चुके हैं. पढ़िए उनका भाषण जिसे एनडीटीवी से साभार लेकर हम प्रकाशित कर रहे हैं –

आप सभी का शुक्रिया. इतनी दूर से बुलाया वो भी सुनने के लिए जब कोई किसी की नहीं सुन रहा है. इंटरव्यू की विश्वसनीयता इतनी गिर चुकी है कि अब सिर्फ स्पीच और स्टैंडअप कॉमेडी का ही सहारा रह गया है. सवालों के जवाब नहीं हैं बल्कि नेता जी के आशीर्वचन रह गए हैं. भारत में दो तरह की सरकारें हैं. एक गवर्नमेंट ऑफ इंडिया. दूसरी गर्वनमेंट ऑफ मीडिया. मैं यहां गवर्नमेंट ऑफ मीडिया तक ही सीमित रहूंगा ताकि किसी को बुरा न लगे कि मैंने विदेश में गर्वनमेंट ऑफ इंडिया के बारे में कुछ कह दिया. यह आप पर निर्भर करता है कि मुझे सुनते हुए आप मीडिया और इंडिया में कितना फ़र्क कर पाते हैं.

एक को जनता ने चुना है और दूसरे ने ख़ुद को सरकार के लिए चुन लिया है. एक का चुनाव वोट से हुआ है और एक का रेटिंग से होता रहता है. यहां अमरीका में मीडिया है, भारत में गोदी मीडिया है. मैं एक-एक उदाहरण देकर अपना भाषण लंबा नहीं करना चाहता और न ही आपको शर्मिंदा करने का मेरा कोई इरादा है. गर्वनमेंट ऑफ मीडिया में बहुत कुछ अच्छा है. जैसे मौसम का समाचार. एक्सिडेंट की ख़बरें. सायना और सिंधु का जीतना, दंगल का सुपरहिट होना. ऐसा नहीं है कि कुछ भी अच्छा नहीं है. चपरासी के 14 पदों के लिए लाखों नौजवान लाइन में खड़े हैं, कौन कहता है उम्मीद नहीं है. कॉलेजों में छह छह साल में बीए करने वाले लाखों नौजवान इंतज़ार कर रहे हैं, कौन कहता है कि उम्मीद नहीं बची है. उम्मीद ही तो बची हुई है कि उसके पीछे ये नौजवान बचे हुए हैं.

एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में मरा हुआ नागरिक पैदा करता है. एक डरा हुआ पत्रकार आपका हीरो बन जाए, इसका मतलब आपने डर को अपना घर दे दिया है. इस वक्त भारत के लोकतंत्र को भारत के मीडिया से ख़तरा है. भारत का टीवी मीडिया लोकतंत्र के ख़िलाफ़ हो गया है. भारत का प्रिंट मीडिया चुपचाप उस क़त्ल में शामिल है जिसमें बहता हुआ ख़ून तो नहीं दिखता है, मगर इधर-उधर कोने में छापी जा रही कुछ काम की ख़बरों में क़त्ल की आह सुनाई दे जाती है.

सीबीआई कोर्ट के जज बी एच लोया की मौत इस बात का प्रमाण है कि भारत का मीडिया किसके साथ है. कैरवान पत्रिका की रिपोर्ट आने के बाद दिल्ली के एंकर आसमान की तरफ देखने लगे और हवाओं में नमी की मात्रा वाली ख़बरें पढ़ने लगे थे. यहां तक कि इस डर का शिकार विपक्षी पार्टियां भी हो गईं हैं. उनके नेताओं को बड़ी देर बाद हिम्मत आई कि जज लोया की मौत के सवालों की जांच की मांग की जाए. जब हिम्मत आई तब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की बेंच जज लोया के मामले की सुनवाई कर रही थी. इसके बाद भी कांग्रेस पार्टी ने जब जज लोया से संबंधित पूर्व जजों की मौत पर सवाल उठाया तो उसे दिल्ली के अख़बारों ने नहीं छापा, चैनलों ने नहीं दिखाया.

ऐसा नहीं है कि गर्वनमेंट ऑफ मीडिया सवाल करना भूल गया. उसने राहुल गांधी के स्टार वार्स देखने पर कितना बड़ा सवाल किया था. आप कह सकते हैं कि गर्वनमेंट ऑफ इंडिया चाहती है कि विपक्ष का नेता सीरीयस रहे. लेकिन जब वह नेता सीरीयस होकर जज लोया को लेकर प्रेस कांफ्रेंस कर देता है तो मीडिया अपना सीरीयसनेस भूल जाता है. दोस्तों याद रखना मैं गर्वनमेंट ऑफ मीडिया की बात कर रहा हूं, विदेश में गर्वनमेंट ऑफ इंडिया की बात नहीं कर रहा हूं.

मीडिया में क्या कोई ख़ुद से डर गया है या किसी के डराने से डर गया है, यह एक खुला प्रश्न है. डर का डीएनए से कोई लेना देना नहीं है, कोई भी डर सकता है, ख़ासकर फर्ज़ी केस में फंसाना और कई साल तक मुकदमों को लटकाना जहां आसान हो, वहां डर सिस्टम का पार्ट है. डर नेचुरल है. गांधी ने जेल जाकर हमें जेल के डर से आज़ाद करा दिया. ग़ुलाम भारत के ग़रीब से ग़रीब और अनपढ़ से अनपढ़ लोग जेल के डर से आज़ाद हो गए. 2जी में दो लाख करोड़ का घोटाला हुआ था, मगर जब इसके आरोपी बरी हो गए तो वो जनाब आज तक नहीं बोल पाए हैं. जिनकी किताब का नाम है NOT JUST AN ACCOUNTANT, THE DIARY OF NATIONS CONSCIENCE KEEPER. जब 2जी के आरोपी बरी हुए, सीबीआई सबूत पेश नहीं कर पाई तब मैंने पहली बार देखा, किसी किताब को कवर को छिपते हुए. आपने देखा है ऐसा होते हुए. लगता है कि किताब कह रही है कि ये बात सही निकली कि ये सिर्फ एकाउंटेंट नहीं हैं, मगर ये बात झूठ है कि वे नेशंस के कांशिएंस कीपर हैं.

एक डरा हुआ मीडिया जब सुपर पावर इंडिया का हेडलाइन लगाता है तब मुझे उस पावर से डर लगता है. मैं चाहता हूं कि विश्व गुरु बनने से पहले कम से कम उन कॉलेजों में गुरु पहुंच जाएं, जहां 8500 लड़कियां पढ़ती हैं मगर पढ़ाने के लिए 9 टीचर हैं. फिर आप कहेंगे कि क्या कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है. क्या यह अच्छा नहीं है कि बिना टीचर के भी हमारी लड़कियां बीए पास कर जा रही हैं. क्या आप ऐसा हावर्ड में करके दिखा सकते हैं? कैंब्रिज में दिखा सकते हैं, आक्सफोर्ड में दिखा सकते हैं, क्या आप येल और कोलंबिया में ऐसा करके दिखा सकते हैं?

मीडिया ने इंडिया के बेसिक क्वेश्चन को छोड़ दिया है. इसलिए मैंने कहा कि इतनी दूर से आकर मैं गर्वनमेंट ऑफ मीडिया की बात करूंगा ताकि आपको न लगे कि मैं गर्वनमेंट ऑफ इंडिया की बात कर रहा हूं. मैं इंडिया की नहीं मीडिया की आलोचना कर रहा हूं. आप I और M में कंफ्यूज़ मत कर जाना.

एक ही मालिक के दो चैनल हैं. एक ही चैनल में दो एंकर हैं. एक सांप्रदायिकता फैला रहा है, एक किसानों की बात कर रहा है. एक झूठ फैला रहा है, एक टूटी सड़कों की बात कर रहा है. सवाल, हम जैसे सवाल करने वाले से है, जवाब हम जैसों के पास नहीं है. आप उनसे पूछिए जो आप तक मीडिया को लेकर आते हैं, जो आप तक इंडिया लेकर आते हैं. फेक न्यूज़ आज ऑफिशियल न्यूज़ है. न्यूज़ रूम में रिपोर्टर समाप्त हो चुके हैं. रिपोर्टर का इस्तेमाल हत्यारे के रूप में होता है. एक चैनल में एक सांसद के पीछ चार पांच रिपोर्टर एक साथ भेज दिया. देखने से लगा कि सारा मीडिया उसके पीछे पड़ा है. यह नया दौर है. डरा हुआ मीडिया अपने कैमरों से आपको डराने निकला है.

चैनलों पर सांप्रदायिकता भड़काने वाले एंकरों को जगह मिल रही है. इन एंकरों के पास सरकार के लिए कोई सवाल नहीं है, सिर्फ एक ही क्वेश्चन सबके पास है. इस सवाल का नाम है हिन्दू मुस्लिम क्वेश्चन, HMQ. भारत के न्यूज़ एंकर राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिक हो चुके हैं. इस हद तक कि जब उदयपुर में नौजवान भगवा झंडा लेकर अदालत की छत पर चढ़ जाते हैं तो एंकर चुप हो गए हैं. क्या हम ऐसा भारत चाहते थे, चाहते हैं? अदालत जिस संविधान के तहत है, उसी संविधान की एक धारा से मीडिया अपनी आज़ादी का चरणामृत ग्रहण करता है. चरणामृत तो समझते होंगे. गर्वनमेंट ऑफ मीडिया के पास एक ही एजेंडा है. हिन्दू मुस्लिम क्वेश्चन. इससे जुड़े फेक न्यूज़ की इतनी भरमार है कि आप आल्ट न्यूज़ डॉट इन पर पढ़ सकते हैं. अब तो फेक न्यूज़ दूसरी तरफ़ से बनने लगे हैं.

My dear friends, believe me, Media is trying to murder our hard earned democracy. Our Media is a murderer. यह समाज में ऐसा असंतुलन पैदा कर रहा है, अपनी बहसों के ज़रिए ऐसा ज़हर बो रहा है जिससे हमारे लोकतंत्र के भीतर भय का माहौल बना रहे. जिससे एक भीड़ कभी भी कहीं भी ट्रिगर हो जाती है और आपको ओवरपावर कर देती है. आप कहेंगे कि क्या इतना बुरा है, कुछ भी अच्छा नहीं है. मुझे पता है कि आपको बीच बीच में पॉज़िटिव अच्छा लगता है. एक पोज़िटिव बताता हूं. भारत का लोकतंत्र मीडिया के झुक जाने से नहीं झुक जाता है. वह मीडिया के मिट जाने से नहीं मिट जाएगा. वह न तो आपातकाल में झुका न वह गोदी मीडिया के काल में झुकेगा. भारत का लोकतंत्र हमारी आत्मा है. हमारा ज़मीर है. आत्मा अमर है. आप गीता पढ़ सकते हैं. मैं गर्वनमेंट ऑफ मीडिया की बात कर रहा हूं.

आपकी तरह मैं भी भारत को लेकर सपने देखता हूं. मगर जागते हुए. सामने की हकीकत ही मेरे लिए सपना है. मैं एक ऐसे भारत का सपना देखता हूं जो हकीकत का सामना कर सके. सोचिए ज़रा हम आज कल अतीत के सवालों मे क्यों उलझे हैं. अगर इन सवालों का सामना ही करना है तो क्या हम ठीक से कर रहे हैं, क्या इन सवालों का सामना करने की जगह टीवी का स्टुडियो है? या क्लासरूम है, कांफ्रेंस रूम हैं, और सामना हम किस तरह से करेंगे, क्या हम आज हिसाब करेंगे, क्या हम आज क़त्लेआम करेंगे? तो क्या आप अपने घर से एक हत्यारा देने के लिए तैयार हैं? नफ़रत की यह आंधी हर घर में एक हत्यारा पैदा कर जाएगी, वो आपका भाई हो सकता है, बेटा हो सकता है, दोस्त हो सकता है, पड़ोसी हो सकता है, क्या आपने मन बना लिया है? क्या हमने सीखा है कि इतिहास का सामना कैसे किया जाए? हम क्लास रूम में नहीं, सड़क और टीवी स्टुडियो में इतिहास का हिसाब करने निकले हैं. नेहरू को मुसलमान बना देने से या अकबर को पराजित बना देने से आप इतिहास नहीं बदल देते, इतिहास जब शिक्षा मंत्री के आदेश से बदलने लगे तो समझिए कि वह मंत्री केमिस्ट्री का भी अच्छा विद्यार्थी नहीं रहा होगा. क्या आप यहां हार्वर्ड में बैठकर इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि इतिहास के क्लास रूम में कोई मंत्री आकर इतिहास बदल दे. प्रोफेसर के हाथ से किताब लेकर, अपनी किताब पढ़ने के लिए दे दे. क्या आप बर्दाश्त करेंगे? जब आप खुद के लिए यह बर्दाश्त नहीं कर सकते तो भारत के लिए कैसे कर सकते हैं?

ज़रूर इतिहास में नई बहस चलनी चाहिए, नए शोध होने चाहिए. लेकिन हम वैसा कर रहे हैं. एक फिल्म पर हमने तीन महीने बहस की है. इतनी बहस हमने भारत की ग़रीबी पर नहीं की, भारत की संभावनाओं पर नहीं की, हमने तीन महीने एक फिल्म पर बहस की. तलवारें लेकर लोग स्टुडियो में आ गए, अब किसी दिन बंदूकें लेकर आएंगे.

महाराणा की हार के बाद भी लोगों ने महान विजेता के रूप में स्वीकार किया था. उनकी वीरता की गाथा पर उस हार का कोई असर ही नहीं था, जिसे एक शिक्षा मंत्री ने अपनी ताकत से बदलने की कोशिश की. लोक श्रुतियों में अपराजेय महाराणा के लिए किताबों में बड़ी हार है. मुझे नहीं लगता कि महाराणा प्रताप जैसे बहादुर क़ाग़ज़ पर हार की जगह जीत लिख देने से खुश होते. जो वीर होता है वो हार को भी गले लगाता है. पर यह सही है कि पब्लिक में इतिहास को लेकर वैसी समझ नहीं है जैसी क्लास रूम में है. क्लास रूम में भी भारी असामनता है. इतिहास के लाखों छात्रों को अच्छी किताबें नहीं मिलीं, शिक्षक नहीं मिले इसलिए सबने किताब की जगह कूड़ा उठा लिया. कूड़े को इतिहास समझ लिया. हम आज भी इतिहास को गौरव गान और गौरव भाव के बिना नहीं समझ पाते हैं. सोने की चिड़िया था हमारा देश. विश्व गुरु था देश. ये सब विशेषण हैं, इतिहास नहीं है. SUPERLATIVES CANT BE HISTORY.

वैसे इस तीन महीने में भारत मे जितने इतिहासकार पैदा हुए हैं, उतने ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज अपने कई सौ साल के इतिहास में पैदा नहीं कर पाए होंगे. भारत में आप बस जलाकर, पोस्टर फाड़कर इतिहासकार बन सकते हैं. किसी फिल्म का प्रदर्शन रुकवा कर आप इतिहासकार बन सकते हैं. तीन साल में हमने जिनते इतिहासकार पैदा किए हैं, उनके लिए अब हमारे पास उतनी यूनिवर्सटी भी नहीं हैं.

अंग्रेज़ों की कल्पना थी कि भारत के इतिहास को हिन्दू इतिहास मुस्लिम इतिहास में बदल दो. आज बहुत से लोग अंग्रेज़ी हुकूमत की सोच को पूरा कर रहे हैं. वो वापस इतिहास को हिन्दू बनाम मुसलमान के खांचे में ले जा रहे हैं. वर्तमान पर पर्दा डालने के लिए इतिहास से वैसे मुद्दे लाए जा रहे हैं जिनके ज़रिए नागरिक का, मतदाता का धार्मिक पहचान बनाई जा सके. हम क्यों अपनी भारतीयता कभी अनेकता में एकता में खोजते खोजते, धार्मिक एकरूपता में खोजने लगते हैं? हम संविधान से अपनी पहचान क्यों नहीं हासिल करते, जिसके लिए हमने सौ साल की लड़ाई लड़ी. दिन रात बहस किए, लाखों लोग जेल गए.

अगर बहुतों को लगता है कि इस सवाल पर बहस होनी चाहिए तो क्या हम सही तरीके से अपने सवाल रख रहे हैं, बहस कर रहे हैं, क्या उसका मंच अख़बार तक न पढ़ने वाले ये एंकर होंगे. आख़िर क्यों बहुसंख्यक धर्म इतिहास के किरदारों पर धार्मिक व्याख्या थोपना चाहता है? कभी मीडिया के स्पेस में हमारी भारतीयता मिले सुर मेरा तुम्हारा से बनती थी, आज हमारा सुर हमारा, तुम्हारा सुर तुम्हारा या तुम्हारा सुर कुछ नहीं, हमारा ही सुर तुम्हारा.

हम भारतीयों का भारतीय होने का बोध और इतिहास बोध दोनों संकट से गुज़र रहा है. हमें एक खंडित नागरिकता के बोध के साथ तैयार किए जा रहे हैं. जिसके भीतर फेक न्यूज़ और फेक हिस्ट्री के ज़रिए ऐसी पोलिटिकिल प्रोग्रामिंग की जा रही है कि किसी भी शहर में छोटे छोटे समूह में लोगों को ट्रिगर किया जा सकता है. क्या आप इतिहास का बदला ले सकते हैं तो फिर आप न्याय की मूल अवधारणा के खिलाफ जा रहे हैं जो कहता है कि खून का बदला खून नहीं होता है. अगर हम खून का बदला खून की अवधारणा पर जाएंगे तो हमारे चारों तरफ हिंसा ही हिंसा होगी.

इस समय भारत में दो तरह के पोलिटिकल आइडेंटिटि हैं. एक जो धार्मिक आक्रामकता से लैस है और दूसरा तो धार्मिक आत्मविश्वास खो चुका है. एक डराने वाला है और डरा हुआ है. यह असंतुलन आने वाले समय में हमारे सामने कई चुनौतियां लाने वाला हैं जिन्हें हम ख़ूब पहचानते हैं. हमने इसके नतीजे देखे हैं, भुगते भी हैं. अलग-अलग समय पर अलग-अलग समुदायों ने भुगते हैं. हमारी स्मृतियों से पुराने ज़ख़्म मिटते भी नहीं कि हम नए ज़ख़्म ले आते हैं.

जैसे हिन्दुस्तान एक टू इन वन देश है. जिसे हमारी सरकारी ज़ुबान में इंडिया और भारत के रूप में पहचान मिल चुकी है. उसी तरह हमारी पहचान धर्म और जाति के टू इन वन पर आधारित है. आप इन जाति संगठनों की तरफ से भारत को देखिए, आप उसका चेहरा सबके सामने देख नहीं पाएंगे. आप जाति का चेहरा चुपके से घर जाकर देखते हैं. हमने जाति को ख़त्म नहीं किया. हमने आज़ाद भारत में नई नई CAST COLONIES बनाई हैं. ये CAST COLONIES CONCRETE की हैं. इसके मुखिया उस आधुनिक भारत में पैदा हुए लोग हैं. पूछिए खुद से कि आज क्यों समाज में ये जाति कोलोनी बन रही हैं.

आज का मतलब 2018 नहीं और न ही 2014 है. हम भारत का गौरव करते हैं, धर्म का गौरव करते हैं, जाति का गौरव करते हैं. हम अपने भीतर हर तरह की क्रूरता को बचाते रहना चाहते हैं. क्या जाति वाकई गौरव करने की चीज़ है? इस सवाल का जवाब अगर हां है तो हम संविधान के साथ धोखा कर रहे हैं, अपने राष्ट्रीय आंदोलन की भावना के साथ धोखा कर रहे हैं. टीम इंडिया का राजनीतिक स्लोगन कास्ट इंडिया, रीलीजन इंडिया में बदल चुका है.

आंध्र प्रदेश में ब्राह्ण जाति की एक कोपरेटिव सोसायटी बनी है. इसका मिशन है ब्राह्मणों की विरासत को दोबारा से जीवित करना और उसे आगे बढ़ाना. ब्राह्मणों की विरासत क्या है, राजपूतों की विरासत क्या है? तो फिर दलितों की विरासत भीमा कोरेगांव से क्या दिक्कत है? फिर मुग़लों की विरासत से क्या दिक्कत है जहां इज़राइल के राष्ट्र प्रमुख भी अपनी पत्नी के साथ दो पल गुज़ारना चाहते हैं. आप इस सोसायटी की वेबसाइट http://www.apbrahmincoop.com पर जाइये. मुख्यमंत्री चंद्रा बाबू नायडू इसकी पत्रिका लांच कर रहे हैं क्योंकि इस सोसायटी का मुखिया उनकी पार्टी का सदस्य है.

इस सोसायटी के लक्ष्य वहीं हैं जो एक सरकार के होने चाहिए. जो हमारी आर्थिक नीतियों के होने चाहिए. क्या हमारी नीतियां इस कदर फेल रही हैं कि अब हम अपनी अपनी जातियों का कोपरेटिव बनाने लगे हैं. इसका लक्ष्य है ग़रीब ब्राह्मण जातियों का सेल्फ हेल्फ ग्रुप बनाना, उन्हें बिजनेस करने, गाड़ी खरीदने का लोन देना. इसके सदस्य सिर्फ ब्राह्मण समुदाय से हो सकते हैं. आईएएस हैं, पेशेवर लोग हैं. इसके चेयमैन आनंद सूर्या भी ब्राह्मण हैं. अपना परिचय में खुद को ट्रेड यूनियन नेता और बिजनेसमैन लिखते हैं. दुनिया में बिजनैस मैन शायद ही ट्रेड यूनियन नेता बनते हैं. वे बीजेपी, भारतीय मज़दूर संघ, जनता दल, समाजवादी जनता पार्टी, जनता दल सेकुलर में रह चुके हैं. जहां उन्होंने सीखा है कि ब्राह्ण समुदाय को नैतिक और राजनीतिक समर्थन कैसे देना है. हमें पता ही नहीं था समाजवादी पार्टी में लोग ये सब भी सीखते हैं. 2003 से वे टीडीपी में हैं.

यह अकेला ऐसा संस्थान नहीं है. विदेशों में भी और भारत में भी ऐसे अनेक जातिगत संगठन कायम हैं. इनके अध्यक्षों की राजनीतिक हैसियत किसी नेता से अधिक है. इस स्पेस के बाहर बिना इस तरह की पहचान के लिए नेता बनना असंभव है. बंगलुरू में तो 2013 में सिर्फ ब्राह्मणों के लिए वैदिक सोसायटी बननी शुरू हो गई थी. सोचिए एक टाउनशिप है सिर्फ ब्राह्मणों का. ये एक्सक्लूज़न हमें कहां ले जाएगा, क्या यह एक तरह का घेटो नहीं है. 2700 घर ब्राहमणों के अलग से होंगे. ये तो फिर से गांवों वाला सिस्टम हो जाएगा. ब्राह्मणों का अलग से. क्या यह घेटो नहीं है?

आज़ाद भारत में यह क्यों हुआ? अस्सी के दशक में जब हाउसिंग सोसायटी का विस्तार हुआ तो उसे जाति और खास पेशे के आधार पर बसाया गया. दिल्ली में पटपड़गंज है, वहां पर जाति, पेशा, इलाका और राज्य के हिसाब से कई हाउसिंग सोसायटी आपको मिलेगी. तो फिर हम संविधान के आधार पर भारतीय कैसे बन रहे थे. क्या बिना जाति के समर्थन के हम भारतीय नहीं हो सकते.

जयपुर के विद्यानगर में जातियों के अलग अलग हॉस्टल बने हैं. श्री राजपूत सभा ने अपनी जाति के लड़कों के लिए हॉस्टल बनाए हैं. लड़कियों के भी हैं. यादवों के भी अलग हॉस्टल हैं. मीणा जाति के भी अलग छात्रावास हैं. ब्राह्मण जाति के भी अलग हॉस्टल हैं. अब आप बतायें, इन हॉस्टल से निकल जो भी आगे जाएगा वो अपने भीतर किसकी पहचान को आगे रखेगा. क्या उसकी पहचान का संविधान आधारित भारतीयता से टकराव नहीं होगा? खटिक छात्रावस भी है जो सरकार ने बनाए हैं. क्यों राज्य सरकारों को दलितों के लिए अलग से हॉस्टल बनाने की ज़रूरत पड़ी? क्या हमारी जातियों के ऊंचे तबके ने संविधान के आधार पर भारत को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, क्या वह संविधान आधारित नागरिकता को पसंद नहीं करता है? क्या जातियों को कोई ऐसा समूह है जो धर्म के सहारे अपना वर्चस्व फिर से हासिल करना चाहता है? क्या कोई ऐसा भी समूह है जो अब पहले से कई गुना ज़्यादा ताकत से इस वर्चस्व को चुनौती दे रहा है?

भारत की राजनीति की तरह मीडिया भी इन्हीं कास्ट कॉलोनी से आता है. उसके संपादक भी इसी कास्ट कालोनी से आते हैं. उन्हें पब्लिक में जाति की पहचान ठीक नहीं लगती मगर उन्हें धर्म की पहचान ठीक लगती है. इसलिए वे धर्म की पहचान के ज़रिए जाति की पहचान ठेल रहे हैं. यह काम वही कर सकता है जो लोकतंत्र में यकीन नहीं रखता हो क्योंकि जाति लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है. गर्वनमेंट ऑफ मीडिया में सब कुछ ठीक नहीं है. पोज़िटिव यही है कि लोकतंत्र के ख़िलाफ़ यह पूरी आज़ादी से बोल रहा है. भाईचारे के ख़िलाफ़ पूरी आज़ादी से बोल रहा है. हमारी गर्वनमेंट ऑफ मीडिया आज़ाद है. पहले से कहीं आज़ाद है. इसी पोज़िटिव नोट पर मैं अपना भाषण समाप्त कर रहा हूं.

कुल मिलाकर हम यथास्थिति को प्रमोट कर रहे हैं. धर्म के गौरव को हम राष्ट्र बता रहे हैं. आप चाहें तो डार्विन को रिजेक्ट कर सकते हैं. आप चाहें तो गणेश पूजा को ही मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई घोषित कर सकते हैं.

सईद अंसारी बने सर्वश्रेष्ठ हिंदी एंकर

sayeed ansari,Anchor
सईद अंसारी, न्यूज़ एंकर

एक्सचेंज 4 मीडिया न्यूज ब्रॉडकास्टिंग 2017 (Exchange4media News Broadcasting Awards 2017) में आजतक के मशहूर एंकर सईद अंसारी को बेस्ट हिंदी एंकर का विशेष ज्यूरी अवार्ड मिला है.

सईद टीवी न्यूज़ के चुनेंदा पत्रकारों में से एक हैं जो अपनी भाषाई तहजीब के लिए जाने जाते हैं. उनकी बिना चीखे चिल्लाए ऐंकरिंग करने की शैली काफ़ी पसंद की जाती है.

सईद टीवी न्यूज़ इंडस्ट्री के पढ़े-लिखे एंकरों में एक माने जाते हैं. हिंदी भाषा पर अच्छी पकड़ रखने वाले अंसारी साहित्यिक अभिरुचि के इंसान हैं.

सईद की समीक्षाएं और लेख इंडिया टुडे मैगज़ीन के साथ देश के तमाम अख़बार और पत्रिकाओं में छापते हैं. सईद के नाम लगातार अट्ठारह घंटे नान स्टॉप ऐंकरिंग का वर्ल्ड रिकॉर्ड भी दर्ज है.

सईद अंसारी का प्रोफाइल –

  • सईद अंसारी भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय एंकर्स में से एक हैं. पिछले चौदह सालों में स्टार न्यूज, सहारा, दूरदर्शन, आकाशवाणी और न्यूज 24 जैसे चैनलों में लगातार एंकरिंग रिपोर्टिंग करने के बाद अब देश के नंबर वन चैनल आजतक में एंकरिंग कर रहे हैं.
  • सईद को लाइव एंकरिंग में दक्षता हासिल है.सईद उन गिने-चुने एंकर्स में से हैं जो राजनीति, खेल, व्यापार सभी तरह की खबरों को बेहद प्रभावशाली ढंग से पेश करते हैं.
  • गंभीर छवि वाले सईद से भावनात्मक खबरों के दौरान दर्शकों का अभूतपूर्व जुड़ाव दिखता है.
  • सईद ने देश-विदेश में तमाम बड़ी घटनाओं की रिपोर्टिंग की है.
  • रिपोर्टिंग के लिहाज से बेदह संवेदनशील अफगानिस्तान में जान की परवाह किए बगैर सईद ने अफगानी लोगों की जिन्दगी, उनके सपने, उनकी आकांक्षाओं पर कार्यक्रम बनाया.
  • बाबरी मस्जिद फैसले पर अयोध्या से सईद ने लाइव रिपोर्टिंग के साथ कई कार्यक्रमों को पेश किया.
  • 2004 लोकसभा चुनाव पर कहिए नेताजी, इंसाफ का तराजू और देश की अहम राजनैतिक, सामाजिक शख्सियतों पर स्टार ट्रैक सईद के मुख्य कार्यक्रम हैं.
  • मास कम्यूनिकेशन में मास्टर्स डिग्री हासिल करने वाले सईद ने क्रिएटिव राइटिंग, मास मीडिया और जर्नलिज्म में डिप्लोमा भी किया है.
  • देश की ज्वलंत समस्याओं पर अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में सईद के लेख लगातार छपते रहते हैं.
  • स्टार न्यूज में लगातार 18 घंटे बिना ब्रेक के एंकरिंग करने का वर्ल्ड रिकॉर्ड सईद अंसारी के नाम दर्ज है.
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सईद अंसारी को बेस्ट न्यूज़ एंकर का अवार्ड

पत्रकारों की संस्‍था पर कारोबारी कब्‍ज़ा,प्रेस क्लब पर कारोबारियों की नजर

press club of india
प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया - प्रतीकात्मक तस्वीर

अभिषेक श्रीवास्तव –

पत्रकारों की किसी भी संस्‍था में केवल पत्रकार होने चाहिए। क्‍या इस बात से किसी को असहमति है? होनी भी नहीं चाहिए। यह सवाल थोड़ा नाजुक इसलिए हो जाता है क्‍योंकि पत्रकार रहते हुए भी कई लोग दूसरे धंधों में लिप्‍त रहते हैं। इससे हितों का टकराव पैदा होता है। आपकी विश्‍वसनीयता संदिग्‍ध हो जाती है। ऐसे बहुत से लोग होंगे जिन्‍हें हम पूरे तौर से नहीं पहचानते, लेकिन जानकारी मिलने पर चुप रह जाएं, ऐसा नहीं कर सकते। इस बार प्रेस क्‍लब के चुनाव में कुछ ऐसा ही दृश्‍य सामने आ रहा है। प्रेस क्‍लब के अध्‍यक्ष पद पर उस ‘पत्रकार’ के लिए वोट मांगा जा रहा है जो कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के मुताबिक कुल 12 कंपनियों का निदेशक है और एक मूल कंपनी का चेयरमैन।

बादशाह सेन उर्फ अनिकेन्‍द्र नाथ सेन 1994 में टाइम्‍स ऑफ इंडिया से दिलीप पड़गांवकर के साथ बाहर निकले थे। उसी साल इन लोगों ने मिलकर एक कंपनी बनाई। कंपनी का नाम उनकी प्रोफाइल पर जाकर देखें। चेयरमैन लिखा हुआ है। नाम से यह मीडिया कंपनी है लेकिन धंधे बहुतेरे हैं। नेपाल से लेकर मॉरीशस तक इनके कारोबारी हित हैं। जो दिलीप पडगांवकर अपने संपादक पद पर रहते हुए भारत के मीडिया में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश का विरोध करते रहे, उन्‍हीं के साथ मिलकर सेन ने नेपाल में राजा की निकटता का लाभ उठाते हुए एफडीआइ नियमों को तोड़ा और वहां की प्रिंट इंडस्‍ट्री में एकाधिकार जमा लिया। सोचिए, कितने पत्रकारों की नौकरियां गई होंगी। कितने अख़बार बंद हुए होंगे।

कम कहा, ज्‍यादा सम‍झना। बारह कंपनियों का निदेशक, दूसरे देश में अपने देश के पैसे से एफडीआइ ले जाने वाला, वहां के पत्रकारों की नौकरी खाने वाला आदमी कम से कम ‘पत्रकार’ का हित नहीं सोच सकता। एक जमाने में भले बादशाह साहब पत्रकार रहे हों। हम अब नहीं मानते। प्रेस क्‍लब के अध्‍यक्ष पद पर ऐसे शख्‍स के लिए प्रचार करने वाले जनवादी साथियों से अपील है कि एक बार फिर सोचें। समझ कर प्रचार करें। अपनी इज्‍जत का भी ख़याल रखें और हमारा सम्‍मान भी अपने प्रति बनाए रखें। सबका बुनियादी ईमान बचा रहे। और क्‍या चाहिए हमें।

कृपया पत्रकारों की संस्‍था पर कारोबारी कब्‍ज़ा होने से रोकें।

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