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7th MEDIA KHABAR’S MEDIA CONCLAVE & S P SINGH MEMORIAL LECTURE

7th MEDIA KHABAR’S MEDIA CONCLAVE & S P SINGH MEMORIAL LECTURE

 

7th MEDIA KHABAR’S MEDIA CONCLAVE  & S P SINGH MEMORIAL LECTURE
7th MEDIA KHABAR’S MEDIA CONCLAVE & S P SINGH MEMORIAL LECTURE

27 जून को आधुनिक टेलीविजन पत्रकारिता के जनक स्वर्गीय एसपी सिंह की पुण्यतिथि है. इस मौके पर हर साल की तरह इस बार भी मीडिया खबर डॉट कॉम की तरफ से एस.पी.सिंह को याद करते हुए ‘मीडिया कॉन्क्लेव और एस.पी.सिंह स्मृति व्याख्यान’ का आयोजन किया जा रहा है. बहस का विषय होगा – “राजनीतिक दलों की पत्रकारिता : वॉररूम,सोशल मीडिया और प्राइम टाइम की बहस” .

हिंदी टेलीविजन न्यूज़ चैनलों के दिग्गज संपादक इस बहस में शामिल होंगे. यह आयोजन 27 जून को शाम 5.30 बजे से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित किया जाएगा. आप सब सादर आमंत्रित हैं.

विषय : राजनीतिक दलों की पत्रकारिता : वॉररूम,सोशल मीडिया और प्राइम टाइम की बहस

MEDIA KHABAR

Cordially invites you

For the

“MEDIA KHABAR’S MEDIA CONCLAVE” & “S P SINGH MEMORIAL LECTURE”

On

Saturday, 27th June, 2015

Time – 5.30pm Onwards

Location : India International Centre, Multipurpose Hall ( 40,Max Mueller Marg, Lodhi Estate,New Delhi – 110003 (Nearest Metro Station ‘Jor Bagh’)

For further information please contact:

Pushkar : +91 9999177575 , Om : +91 9810127567

Email: mediakhabaronline@gmail.com,
Website : www.mediakhabar.com, www.mediakhabar.in

अरुण जेटली जी प्लीज FTII को आप अपनी पार्टी का दफ्तर मत बनाइये

अरुण जेटली के नाम फिल्मकार पवन कु. श्रीवास्तव की खुली चिठ्ठी

आदरणीय अरुण जेटली जी ,

इस उम्मीद से ये ख़त लिख रहा हूँ कि सोशल मीडिया से गुजरते हुए ये ख़त शायद कभी आपतक भी पहुँच जाए और ये ख़त मेरे विरोध की आवाज भी हैं जो खामोश नहीं रहना चाहता .

अभी कुछ दिन पहले आपके मंत्रालय द्वारा गजेन्द्र चौहान जी को भारतीय फिल्म प्रशिक्षण संस्थान का चेयरमैन नियुक्त किया गया हैं . गजेन्द्र चौहान को हम सब जानते हैं हमने उन्हें टीवी और फिल्मों में देखा हैं और वो एक अच्छे कलाकार भी हैं लेकिन फिर भी मुझे ये कतई नहीं लगता कि उनमे इस संस्थान के चेयरमैन बनने की योग्यता हैं . सिनेमा में काम करना और सिनेमा की समझ होना, उसे एक दिशा देना दोनों एक दूसरे से बहुत अलग हैं .

सिनेमा एक ऐसा माध्यम हैं जो जनचेतना को बहुत प्रभावित करता हैं, हमारा देश सिनेमा से बहुत कुछ सीखता हैं इसका प्रभाव बहुत व्यापक हैं . ऐसे में सिनेमा के इस प्रतिष्ठित संस्थान से निकलने वाले छात्रों की सोच को व्यापक और सिनेमा को लेकर उनकी समझ को विकसित करने के लिए हमे ऐसे लोगों की ज़रूरत हैं जो सिनेमा के माध्यम को न सिर्फ समझते हों बल्कि इस माध्यम के लिए उनके अन्दर एक परिकल्पना भी हो जो इसे और व्यापक और सार्थक बना सके .

हम जिस दौर में जी रहे हैं इसमें सिनेमा और भी महत्वपूर्ण हो जाता हैं इसलिए ये हम सबकी ये जिम्मेदारी हैं कि हम सिनेमा के इस कला में कुछ योगदान कर सकें . ये संस्थान आपके मंत्रालय के अंतर्गत आता हैं इसलिए आपकी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती हैं . लेकिन मुझे नहीं लगता हैं कि आपने इसे गंभीरता से लिया हैं वर्ना आपने गजेन्द्र चौहान जी को इस संस्थान का चेयरमैन कभी नियुक्त नहीं किया होता .

हमारे देश में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिनकी ज़रूरत इस संस्थान को हैं और अगर आप इस संस्थान के इतिहास को पलट कर देखें तो पता चल जाएगा कि इस संस्थान के चेयरमैन में क्या योग्यता और कैसी समझ होनी चाहिए आपको चाहिए था कि आप इस परम्परा को और आगे बढाते लेकिन आपने ऐसा निर्णय लेकर इस संस्थान की सोच को संकुचित करने का काम किया हैं .

एक फिल्म संस्थान में किसी भी खास तरह के विचारधारा को थोपना उस संस्थान के साथ अन्याय हैं उसके मकसद के साथ खिलवाड़ हैं . किसी भी शिक्षण संस्थान की सोच व्यापक होनी चाहिए, क्यूंकि वहां छात्र सिखने के साथ-साथ अपने विचारों का निर्माण भी करते हैं .

आप इसे व्यापक बनाने की बजाये अपनी पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रयोगशाला बना रहे हैं जो बहुत खतरनाक हैं . आपके लिए आपकी पार्टी की विचारधार सही हो सकती हैं लेकिन आपको कोई हक नहीं हैं कि आप उसे इस संस्थान के छात्रों पे भी थोपे . गजेन्द्र चौहान और उनके साथ हुई चार और नई नियुक्तियों को देखकर यही लगता हैं कि आपने इस संस्थान को अपनी पार्टी का दफ्तर समझ लिया हैं या उसे दफ्तर बना देना चाहते हैं . ये सबलोग आपकी पार्टी से जुड़े रहे हैं . उनका चयन करते समय आपके दिमाग में केवल सिनेमा होना चाहिए था लेकिन अफसोस, मुझे लगता हैं कि इनका चयन करते समय सिनेमा को छोड़कर बाकी सबकुछ दिमाग में रखा गया हैं .

किसी भी सरकारी संस्थान पर पूरे समाज का अधिकार होता हैं. इस स्पेस पर पूरे जनमानस का अधिकार होता हैं और आप इसपर अपनी विचारधारा थोप कर पूरे जनमानस के साथ अन्याय कर रहे हैं . आपने ये जरुर देखा होगा कि कैसे पूरे देश भर से सिनेमा और गैरसिनेमाई लोगों ने इसका विरोध किया हैं . ये महज एक विरोध नहीं हैं ये एक सवाल हैं जो आपके चयन पर उठाया गया हैं . मुझे पूरी उम्मीद हैं कि आप इस सवाल को गंभीरता से लेंगे और विचार करेंगे . आपके पास मंत्री रहते हुए भारतीय सिनेमा के विकास में कुछ योगदान करने का एक अवसर हैं. कृपया इस अवसर का सदुपयोग कीजिए .

आपका –
पवन कु. श्रीवास्तव
स्वतंत्र फिल्म निर्माता

मैगी,मीडिया और एप्को पीआर एजेंसी के क्लाईंट नरेन्द्र मोदी

मैगी,मीडिया और एप्को पीआर एजेंसी के क्लाईंट नरेन्द्र मोदी
मैगी,मीडिया और एप्को पीआर एजेंसी के क्लाईंट नरेन्द्र मोदी
मैगी,मीडिया और एप्को पीआर एजेंसी के क्लाईंट नरेन्द्र मोदी
विनीत कुमार, मीडिया विश्लेषक
विनीत कुमार, मीडिया विश्लेषक

अपने बेहद लोकप्रिय उत्पाद मैगी के प्रतिबंधित किए जाने और चौतरफा हो रही बदनामी से उबरने के लिए नेस्ले कंपनी अब अमेरिका की पीआर एजेंसी एप्को की शरण में जा पहुंची है। उत्पाद की जांच पर खर्च करने के मुकाबले लगभग सौ गुना ज्यादा विज्ञापन और मार्केटिंग पर खर्च करने वाली नेस्ले कंपनी (साल 2014 में चार सौ पैंतालीस करोड़ रुपए विज्ञापन और प्रोमोशन पर खर्च, जबकि जांच पर इसका मात्र पांच फीसद खर्च) को यह उम्मीद दिखाई दे रही है कि एप्को पीआर एजेंसी उसे इस बदनामी से उबार लेगी और जल्द ही सब कुछ सामान्य हो जाएगा। साल-दर-साल नेस्ले के अपने उत्पाद की गुणवत्ता की जांच और विज्ञापन-प्रोमोशन पर किए जाने वाले उसके खर्च के अनुपात का अंतर तेजी से बढ़ रहा है और अब तो रिब्रांडिंग के लिए दुनिया की सबसे महंगी पीआर एजेंसी का खर्च उठाने के लिए भी कंपनी तैयार है।

नेस्ले कंपनी का न्यायिक प्रक्रिया के तहत होने वाली जांच और ग्राहकों के हितों की रक्षा की अपेक्षा एप्को जैसी पीआर एजेंसी के प्रति आस्था और फुर्ती दिखाना अकारण नहीं है। उसे पता है कि जो पीआर एजेंसी साल 2002 के गुजरात जनसंहार के कारण दुनिया भर में हुई नरेंद्र मोदी और उनकी गुजरात सरकार की चौतरफा आलोचना से उन्हें उबार ले गई और अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षित राज्य जैसे गुजरात के सच को पीछे धकेल कर निवेशकों के लिए सबसे बेहतर राज्य की उसकी छवि निर्मित की, उसके आगे मैगी को लेकर एफएसएसएआइ (फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया- भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण) के फैसले को बदलना बहुत मुश्किल नहीं है।

दूसरा यह कि जिस मीडिया ने अपनी रिपोर्टों, लगातार फीचर और खबरों के जरिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की एक ऐसी छवि दुनिया के आगे पेश की कि सत्ता में बने रहने की बात तो दूर, सामान्य नागरिक जीवन तक जीना मुश्किल हो जाता, ‘बाइब्रेंट गुजरात’ नामक कार्यक्रम के जरिए यह एजेंसी प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे सुयोग्य उम्मीदवार की उनकी छवि गढ़ने में कामयाब रही तो इसके आगे मैगी का मामला अपेक्षाकृत मामूली है। गुजरात सरकार की तरह अगर नेस्ले भी एक महीने में पंद्रह हजार डॉलर जैसी मोटी रकम खर्च करने को तैयार है तो फिर मुश्किल क्या है? रही बात मौजूदा परिस्थिति में मैगी को लेकर मीडिया के नकारात्मक रवैये की, तो एप्को के हाथ में यह मामला आते ही एक के बाद एक सकारात्मक रिपोर्ट और फीचर से छवि निर्मित करने में बहुत वक्त नहीं लगेगा।

एप्को ने अपनी वेबसाइट पर गुजरात बाइब्रेंट सहित क्लिंग्टन ग्लोबल इनीशिएटिव, गवर्नमेंट आॅफ शारजाह, वॉलमार्ट चाइना और जॉनसन ऐंड जॉनसन के मामले में किस तरह मीडिया को अपने क्लाइंट (ग्राहक) के पक्ष में किया और जिन माध्यमों को हम खास आस्था से देखते आए हैं, उन्हें अपने एजेंडे में शामिल किया, यह सब विस्तार से अपलोड किया है। मीडिया से जुड़ी नैतिकता के लिहाज से यह भले ही पेड न्यूज या प्रोपेगेंडा का मामला हो लेकिन एप्को के लिए यह बड़ी उपलब्धि है।

इस लिहाज से मैगी और एप्को की व्यावसायिक यारी को देखें तो जिस पीआर एजेंसी के क्लाइंट स्वयं तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी रहे हों, ऐसे में कोर्ट-कानून-कचहरी के समांतर नेस्ले को एक दूसरी सत्ता तो हासिल हो ही जाती है। एक ही पीआर एजेंसी के क्लाइंट, दूसरे क्लाइंट को अमूमन परेशान नहीं करते बल्कि रास्ता बनाते हैं।

यह बात हमने 2011 में नीरा राडिया टेप मामले में वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशन जैसी पीआर एजेंसी, रिलायंस इंडस्ट्रीज और टाटा कम्युनिकेशन सहित मीडिया के कई दिग्गज चेहरों और सरकार के नुमाइंदों के रवैये के खुल कर सामने आने के दौरान देख चुके हैं। इस हिसाब से मौजूदा सरकार और नेस्ले कंपनी के बीच भी एक रिश्तेदारी तो बनती ही है।

इधर ऐतिहासिक संदर्भ के लिहाज से देखें तो जिस तरह आज मैगी ने अपनी बदनामी से बचने के लिए दुनिया की सबसे ताकतवर और भरोसेमंद पीआर एजेंसी की शरण ली है, जिसके साथ होने का मतलब है सरकार और मुख्यधारा मीडिया को अपने पक्ष में कर लेने की भरपूर संभावना, आज से करीब तीस साल पहले जब मैगी को गिनती के लोग जानते थे, घर-घर तक पहुंचने के लिए ठीक इसी तरह के विश्वसनीय माध्यम दूरदर्शन का दामन थाम कर वह लोकप्रिय हुआ था।

अभी मैगी विवाद के बाद नेस्ले इंडिया के प्रमुख ए हेलियो वाज्यॉक और प्रबंध निदेशक इटिनी बेनेट ने जो पत्र जारी करते हुए लिखा है, वह दरअसल 1983-84 की उसी दूररर्शन नीति और दर्शकों के बीच बनी पकड़ का अपने पक्ष में इस्तेमाल है जिसे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत विकसित किया। यहां तक कि उत्पाद में सीसे की मौजूदगी की बात कहे जाने के बावजूद कुछ ग्राहक अगर नास्टैल्जिक हो रहे हैं तो इसमें सिर्फ बत्तीस साल की मैगी का ही नहीं, दूरदर्शन नॉस्टैल्जिया भी शामिल है। इन्होंने पत्र में जब लिखा कि भारत बुरी तरह से कुपोषण का शिकार रहा है और ऐसे में नेस्ले ने मुनाफे के गणित से हट कर लगातार इस पर शोध और सुधार का काम किया है, इसका साफ मतलब है कि वे दूरदर्शन की ब्रांड छवि को अब भी अपने उत्पाद के साथ नत्थी कर रहे हैं।

लेकिन यह कम दिलचस्प नहीं है कि सन 1983 में जब तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सचिव एसएस गिल ने मनोहरश्याम जोशी को ‘हमलोग’ नाम से देश के पहले टीवी धारावाहिक की रूपरेखा तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी तो लगभग यही बात दोहराई थी। वे दूरदर्शन के माध्यम से देश के लोगों के बीच ऐसे संदेश का प्रसारण करना चाहते थे जिससे कि देश की आम आबादी जनसंख्या नियंत्रण के महत्त्व को समझ सके, कुपोषण और गरीबी से काफी हद तक बचा जा सके। इनके बीच विशुद्ध सामाजिक उद््देश्य से प्रसारित होने वाले इस धारावाहिक का प्रायोजक बना नेस्ले और उसका उत्पाद मैगी।

यानी कार्यक्रम के स्तर पर जो सामाजिक जागरूकता का संदेश हमलोग धारावाहिक प्रसारित कर रहा था, उत्पाद के स्तर पर यही काम मैगी कर रहा था, ऐसा दावा नेस्ले की ओर से किया गया है। दूरदर्शन का यह वह दौर रहा जब बिल्बर श्रैम मॉडल को अपनाते हुए टेलीविजन पर प्रसारित होने वाली सारी सामग्री को सामाजिक जागरूकता और सरोकार के तहत व्याख्यायित किया जाना अनिवार्य था। लेकिन कार्यक्रम और प्रायोजक की इस जुगलबंदी से क्या दर्शकों के बीच सचमुच एक ही अर्थ संप्रेषित हो रहा था?

हमलोग में दिल्ली के मध्यवर्ग से छीज-छिटक कर निम्न मध्यवर्ग पर जा अटका बसेसर राम का तीन पीढ़ियों का एक ऐसा परिवार है जिसके घर में दो मिनट में मैगी क्या, दो घंटे तक चीनी-चाय पत्ती तक का प्रबंध नहीं हो पाता है। घोर अभावग्रस्त इस परिवार में सबके सब बेरोजगार हैं या छिपी हुई बेरोजगारी से ग्रस्त हैं, लेकिन इस कार्यक्रम के दौरान मैगी एक ऐसा उत्पाद दर्शकों के बीच पेश किया जाता है जिसमें समय की भारी किल्लत के बीच दो मिनट के भीतर पेट भरा जा सके।

हमलोग की कहानी, उसके चरित्रों और मैगी के विज्ञापन, कॉपी और उनमें शामिल लोगों को एक साथ रख कर देखें तो हिंदुस्तान की वह एक दुनिया नहीं है जिसके दावे के साथ दूरदर्शन सालों से काम करता आया है। सरोकार और जागरूकता के नाम पर एक तरह से कार्यक्रम की शक्ल में देश की गरीबी, बेरोजगारी और पारिवारिक कलहों को नागरिक/दर्शक के रूप में बेचा जाता है, जबकि विज्ञापन के जरिए उन्हीं नागरिकों-दर्शकों को उपभोक्ता बनाने की लगातार कोशिश की जाती है। दूरदर्शन की विषयवस्तु में निम्न मध्यवर्ग है जबकि विज्ञापन के जरिए मध्यवर्ग के उभार की आकांक्षा व्यक्त की जाती रही। ऐसे में हमलोग के सफल-असफल होने की चिंता प्रायोजक को भी उतनी ही रही है जितनी कि जागरूकता के संदेश पहुंचने की चिंता दूरदर्शन और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी करते आए हैं। यह बात स्वयं हमलोग के लेखक मनोहरश्याम जोशी ने कही थी।

कार्यक्रम के जरिए सामाजिक जागरूकता और दर्जनों उत्पादों के जरिए कुपोषण से कथित मुक्ति की यह कहानी आगे रजनी, शांति, स्वाभिमान, जुनून जैसे धारावाहिकों तक लगातार दोहराई जाती है। स्वाभिमान, जुनून जैसे कार्यक्रमों के आखिरी दौर में दर्शकों की ओर से बुरी तरह नकार दिए जाने के बावजूद इन्हें जारी रखा गया क्योंकि विज्ञापनदाताओं ने अभी तक हाथ नहीं खींचे थे और दूरदर्शन को इनसे घाटे की भरपाई हो रही थी। यानी दूरदर्शन सरोकार के रास्ते चल कर अर्थशास्त्र की उस जमीन पर भटक रहा था जहां मैगी, फेयर ऐंड लवली, कॉम्प्लान जैसे दर्जनों उत्पादों के विज्ञापन अपनी आकांक्षा का मध्यवर्ग तैयार करने में जुटे थे।

कहा जा सकता है कि इन उत्पादों के दावों के झूठे पड़ने के साथ-साथ दूरदर्शन अपने दर्शकों के साथ पहले ही छल कर चुका है। और तब यह सवाल बहुत पीछे छूट जाता है कि इन सबके बीच स्वयं माध्यम कितना विश्वसनीय रह गया या फिर प्रायोजकों ने माध्यम की विश्वसनीयता के साथ क्या किया? यही सवाल अब पीआर एजेंसी के संदर्भ में भी है। एप्को जिस बहादुरी से गुजरात बाइब्रेंट-2007 की सफलता की फाइल अपनी वेबसाइट पर सजाए हुए है, उतनी ही शालीनता से इस बात का जिक्र कर सकेगा कि साल 2013 में उसने किस करिश्मे के तहत नरेंद्र मोदी और उनकी टीम को एक दिन के भीतर उत्तराखंड भूस्खलन में फंसे लोगों को न केवल बाहर निकालते हुए बल्कि सुरक्षित वापस गुजरात भेजते हुए बता दिया? एक पीआर एजेंसी के तौर पर आखिर एप्को ने ऐसी कौन-सी मशीनरी विकसित कर ली कि जहां सेना के जवान पैदल तक नहीं पहुंच सकते वहां दनादन एनोवा गाड़ी पहुंच गई। ऐसी कौन-सी प्रणाली विकसित कर ली कि तुरंत गुजराती और गैर-गुजराती की पहचान भी हो गई?

(प्रचार का गोरखधंधाः मूलतः प्रकाशित जनसत्ता, 15 जून 2015)

भर्ती में भ्रष्टाचार पर घिरे राज्य सभा टीवी के अफसर,मीडिया खबर की रिपोर्ट का असर

राज्यसभा टीवी में इंटरव्यू के नाम पर नौटंकी
राज्यसभा टीवी में इंटरव्यू के नाम पर नौटंकी
राज्यसभा टीवी में इंटरव्यू के नाम पर नौटंकी
राज्यसभा टीवी में इंटरव्यू के नाम पर नौटंकी

मीडिया खबर पर राज्य सभा टीवी में हुई भर्ती में भ्रष्टाचार की रिपोर्ट प्रसारित होने के तत्काल बाद राज्य सभा टीवी के कर्ता-धर्ता पूरे मामले पर लीपा-पोती की कोशिश में जुट गए हैं. राज्य सभा टीवी ने परिणाम घोषित करने की औपचारिकता पूरी करते हुए, उन लोगों के नाम सार्वजनिक कर दिए जिन्हें चोरी-चोरी अपॉइंटमेंट लेटर थमाए गए थे. जिन लोगों को अपॉइंटमेंट लेटर दिए गए हैं उनके नाम सार्वजनिक होने के बाद एक बार फिर पूरी प्रक्रिया संदेह के घेरे में आ गई है.

सूत्रों के मुताबिक़ जिन लोगों को अपॉइंटमेंट लेटर दिए जा चुके हैं, उनके नाम मीडिया हलकों में पहले से लीक होने बाद किसी विवाद से बचने के लिए राज्य सभा की वेबसाइट पर परिणाम का नोटिस भी लगा दिया हैं. गौरतलब है कि एक साथ चयन का विज्ञापन जारी करने के बावजूद राज्य सभा टीवी ने अभी तक सभी पदों के परिणाम घोषित नहीं किये हैं. शेष पदों लिए अंदरखाने रस्साकशी और जोड़-तोड़ का खेल अभी भी जारी है. राज्य सभा टीवी के सूत्रों की माने तो इन पदों के लिए भी तगड़ी लॉबिंग चल रही है. यहां भी ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है.

सूत्रों के मुताबिक़ जिन लोगों को अपॉइंटमेंट लेटर दिए गए हैं उनमें से अधिकाँश राज्य सभा टीवी के एक आला अधिकारी के करीबी और पूर्व परिचित बताए जा रहे हैं. एंकर सहित घोषित तमाम पदों पर चयन में जिन लोगों को प्राथमिकता दी गई है, उनकी योग्यता और अनुभव पर भी सवाल उठ रहे हैं, जिसे कवर करने की कवायद शुरू हो गई है. मीडिया हलकों में चर्चा है कि देश के सबसे प्रतिष्ठित संसदीय चैनल में हिन्दी एंकर के एकमात्र पद के लिए पूर्वानुमान के मुताबिक़ भोजपुरी चैनल की एक पूर्व एंकर को बड़े न्यूज़ चैनलों के तमाम वरिष्ठ एंकरों के अनुभव पर प्राथमिकता देते हुए अपॉइंटमेंट लेटर दे दिया गया है. वहीं दूसरे पद पर राज्य सभा टीवी ने अपनी पूर्व एंकर को ही बहाल कर दिया है. इस तरह केवल एक ही पद पर बाहर से नियुक्ति की गई है और इंटरव्यू में शामिल तमाम वरिष्ठ एंकरों को अयोग्य घोषित कर दिया गया है.

राज्य सभा की वेबसाइट पर घोषित ये परिणाम विश्लेषण के नज़रिये से बेहद दिलचस्प हैं. क्योंकि राज्य सभा टीवी के इस परिणाम ने टॉप न्यूज़ चैनलों में काम कर रहे एंकरों की योग्यता पर सवालिया निशान लगा दिया है. 80 फीसदी वरिष्ठ एंकरों को इस चयन में पासिंग मार्क्स भी नहीं मिले हैं. जबकि चयनित एंकरों को लेकर चयनकर्ता पूरी तरह आश्वस्त दिखाई दिए और उन्हें फर्स्ट क्लास यानी साठ से अधिक अंकों से उत्तीर्ण घोषित किया गया है. ऐसा अन्य पदों के परिणामों में भी देखा जा सकता है. जिन्हें अपॉइंटमेंट लेटर दिए गए हैं, अन्य कोई भी उम्मीदवार उनके करीबी अंकों को छू भी नहीं पाया है. चयनकर्ताओं को चयन में किसी तरह की कोई दुविधा पेश नहीं आई. इतना ही नहीं कुछ पदों के लिए तो चयनकर्ताओं को योग्य उम्मीदवार ही नहीं मिले, इसे भी परिणामों में दर्शाया गया है. राज्य सभा टीवी के चयनकर्ताओं ने तमाम पत्रकारों को उनके अंक तो बता दिए लेकिन ये नहीं बताया कि चयन का आधार क्या था? अनुभव के लिए कितने अंक निर्धारित थे? और प्रोफाइल और पोर्टफोलियो के लिए कितने अंक दिये गए?

गौरतलब है कि टीवी पत्रकारिता में अनुभव और पोर्टफोलियो का ही सबसे ज़्यादा महत्त्व होता है. लेकिन घोषित परिणामों में इसे ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया गया. ऐसे में चयन प्रक्रिया में शामिल हुए तमाम वरिष्ठ और अनुभवी पत्रकार खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं. अब इंतज़ार है शेष पदों के परिणामों की घोषणा का. जिनमें प्रोड्यूसर और सीनियर प्रोड्यूसर जैसे वरिष्ठ पद शामिल हैं. देखने वाली बात ये होगी कि क्या इन पदों में भी अनुभवहीन और अयोग्य उम्मीदवार जोड़-तोड़े के गणित और ऊंची पहुँच के बल पर योग्य और अनुभवी उम्मीदवारों पर भारी पड़ने वाले हैं?

मंत्री के दवाब में पुलिस ने पत्रकार को जिंदा जलाया

विशाल शुक्ला,दैनिक जागरण

jagendra singhआज शाहजहाँपुर के स्वतंत्र खोजी पत्रकार जगेंद्र सिंह की मौत की खबर मिली। 3- 4 दिन पहले ही खबर मिली थी कि पुलिस-दबिश के दौरान उन्हें गिरफ्तार करते के दैरान जला दिया गया था, जिसमें वो 60 प्रतिशत तक झुलस गए थे. चर्चित आईपीएस अमिताभ ठाकुर ने जब उनसे अस्पताल में मुलाकात की, तो जगेंद्र ने अमिताभ ठाकुर से साफ कहा था कि उन पर ये हमला शाहजहाँपुर के ददरौल विधानसभा क्षेत्र के विधायक और मौजूदा सपा सरकार में राज्यमंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा ने करवाया है।

ध्यान दें, कि इससे पहले जगेंद्र लगातार खोजी पत्रकारिता करते हुए राममूर्ति सिंह वर्मा के बलात्कार और सीलिंग की जद में आने वाली जमीन को कब्जा करके अरबों की संपत्ति बनाने के कुकर्मों का लगातार खुलासा कर रहे थे. इसके अलावा जगेंद्र इससे पहले भी अपनी हत्या की आशंका जताई थी, लेकिन शाहजहाँपुर की सत्ता के तलवे चाटने वाली पुलिस ने भी जगेंद्र को सुरक्षा मुहैया कराने के बजाय किसी अनिल भदौरिया नाम के किसी शख्स की शिकायत पर जगेंद्र के ही खिलाफ जाँच करनी शुरु कर दी.

मैं खुद दैनिक जागरण का एक पत्रकार हूँ और भविष्य में खुद को एक खोजी पत्रकार के तौर पर ही देखता हँ, जिसके लिए ना तो किसी अखबार में काम करने की जरुरत होती है और न किसी चैनल में, बस चाहिए तो –जगेंद्र जैसा हौसला और कलेजा…..

राम ….तुम कान खुलकर सुन लो….वो जमाना चला गया..जब तुम्हारे जैसै दो कौड़ी के भ्रष्ट नेता …लोकल लेवल पर खबरों को दबवा लेते थे….ये सोशल मीडिया का जमाना है….फोन रखने वाला हर एक इंसान पत्रकार है….समझे…और तुम्हे और तुम्हारे सारे चमचों को चुनौती देता हूँ…एक तो पहले ही कितनी ही साइटों और ABP NEWS जैसे चैनलों पर खबर चली है…जहाँ नही चली है…अब वहाँ भी चलेगी….
MR. ….अब तो शर्म कर लो और एसे मंत्रियों को कैबिनेट ले निकाल बाहर करो…

और शाहजहाँपुर वालो…..देखता हूँ…आप लोंगों में से कितने लोग हिम्मत कर पाते हैं….या हमेशा की तरह ये टुच्चे नेता ही DOMINATE करेंगे.

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