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आइबीएन 7 प्रधानसेवक से गड्डे में गिरे प्रिंस जैसा काम लेने में लगा है

टीआरपी की दौड़ में आइबीएन-7 लगातार पिछड़ रहा है. इसका मतलब ये है कि रिलांयस मीडिया के धंधे में पिछड़ रहा है…इलाज ? इलाज ये कि उधर मोबाईल के लिए प्रधानसेवक की छवि का इस्तेमाल करो और इधर साक्षात प्रधानसेवक का ही. इंडिया टीवी, जी न्यूज इससे पहले ये हथकड़ें अपना चुका है.

अब बस ऐसा मत कर दो आपलोग कि एक समय ऐसा आ जाए कि प्रधानसेवक एक-एक घंटे तक आपके चैनल पर रहें और टीआरपी में आप लसफसा जाओ..मेरा क्या है, मैं तो अज्ञेय की कविता की पंक्ति- वासन घिसने से मुलम्मा छूट जाता है, दोहराने लग जाउंगा लेकिन आप ?

क्या बेहतर नहीं होगा कि प्रधानसेवक को गड्डे में गिरे प्रिंस जैसा काम लेने से पहले अपने गड्डे भरने का दूसरा तरीका खोजा जाए..ऐसा तरीका जिसमे कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री का आभामंडल भी बरकरार रहे और आपकी क्रिएटिविटी भी इन्हें छोड़कर दूसरी दिशा में सोच सके. @fb

आशुतोष को उस बेवकूफी के लिए माफी मांगनी चाहिए !

आम आदमी के बीच बेख़ौफ़ - बेबाक आशुतोष

आशुतोष की नेतागिरी वाली भाषा
आशुतोष की नेतागिरी वाली भाषा
आम आदमी पार्टी के बड़े नेता हैं आशुतोष। आशुतोष ने एनडीटीवी में एक ब्लॉग लिख कर कहा है कि बर्खास्त मंत्री संदीप की सेक्स सीडी दिखाकर न्यूज चैनलों के संपादकों ने बेवकूफी का काम किया है। आशुतोष का कहना है कि जब मामला दो व्यक्ति के बीच का है फिर तीसरे का क्या काम। अगर ऐसा है तो पहले आशुतोष को उस बेवकूफी के लिए माफी मांगनी चाहिए जो उन्होंने संपादक रहते हुए आईबीएन 7 में 2012 में की थी। आशुतोष को जवाब देना चाहिए कि उन्होंने अभिषेक मनु सिंघवी की खबर क्यों दिखाई थी? सिंघवी ने भी किसी का बलात्कार तो नहीं किया था। दूसरा, अगर संपादकों ने संदीप की खबर दिखाने की बेवकूफी की है तो आशुतोष को अपने सबसे बड़े नेता अरविंद केजरीवाल से ये सवाल करना चाहिए कि मेरे प्यारे महामहिम मुख्यमंत्री जी- यदि ये दो लोगों के बीच का मामला था तो आपने बीच में कूदने की बेवकूफी क्यों की है?

@fb




ईश्वर करे आशुतोष के पिता संदीप की यह सीडी न देखे

वेद उनियाल

वेद विलास उनियाल
वेद विलास उनियाल

आप पार्टी के दिल्ली विधानसभा चुनीव जीतने पर आशुतोष के पिता ने गदगद होकर एक चिट्ठी मीडिया के नाम लिखी थी। चिट्ठी का लब्बोलुआव यह था कि उन्हें उनके बेटे पर गर्व है जो अब बहुत बड़ा नेता हो गया है। अब यही बड़ा नेता खुलआम कह रहा है कि संदीप के विडियो में हर्ज क्या है। यह तो दो लोगों का मामला है। पता नहीं इस पर उनके पिता की क्या राय होगी। लेकिन पत्रकारिता से राजनीति में आए व्यक्ति की समझ इससे उजागर हो जाती है। ईश्वर करे आशुतोष के पिता संदीप की यह सीडी न देखे , शायद उन्हें दुख होगा कि उनका बेटे की पार्टी किन किन बुलंदियों को छू रही है। वैसे भी पंजाब से कुछ और विडियो क्लीपिंग आ रही है।

पत्रकार रहते हुए वैसे भी आशुतोष ने न कभी कोई ऐसा विश्लेषण लिखा जिसपर चर्चा हुई हो। जिसे याद रखा जाए। न कभी कोई खास खबर। बिहार में बाढ़ के जाकर एबीपी के संवाददाता जैसा साहस दिखा पाना तो बहुत बड़ी बात वे जनवरी में दिल्ली का जाड़े की खबर दिखाने के लिए भी कभी नहीं निकले। पत्रकारिता में उनका कोई भी ऐसा योगदान नहीं है कि जिसे याद रखा जा सके। न राजनीति की खबर न आर्थिक विश्लेषण। दंगे प्रभावित क्षेत्र में रिपोर्टिंग के लिए जाना तो दूर वह बारिश में भीगते शहर को भी दिखा पाए। उनकी चर्चा अगर कभी हुई तो कांशीराम से जुड़े एक प्रसंग से ही हुई। टीवी में वे दिखते जरूर थे लेकिन लिखा हुआ ही पढ़ते थे।

लेकिन जुगाड उन्होंने आप पार्टी में घुसने का लगाया। और चांदनी चौक की उस सीट का टिकट ले लिया जहां से वह शायद ही कभी पराठा गली में भी घुसे हों। जिस चांदनी चौक का उन्होंने टिकट लिया , वहां के आठ बजारों के नाम भी वो शायद ही जानते रहे होंगे। और चुनाव लड़ा तो अपना नाम आशुतोष और जाति का जोरदार उल्लेख करना नहीं भूले। यह अलग बात है कि चांदनी चौक से समझदार बनिया समाज ने उनके जातिवाद आग्रह को ठुकरा दिया। हालांकि ध्यान खींचने के लिए उन्होंने इलाके में हंगामा भी किया था।
अच्छा है कि यह बयान आशुतोष ने नेता बनने के बाद दिया है। मंत्री के अश्लील विडियो पर उनकी टिप्पणी है कि दो लोगों का मामला है इस पर इतना तूल क्यों। दिल्ली में आप पार्टी के नेताओं के स्तर पर उनका एक नेता यही कह सकता है। हां अगर पत्रकार रहते आशुतोष ने यह बयान दिया होता तो हम सब पत्रकार शर्मशार हो जाते। ऐसे लोग अब राजनीति में हैं और तुर्रा यह कि जयप्रकाश नारायण और अन्ना से अपने को जोड़ते हैं। और लोग उन्हें राष्ट्रीय नेता कहें इसके लिए सुबह मुर्गे की बाग के साथ ही मोदी मोदी कहने लगते हैं। ताकि उन्हें बिना ग्राम प्रधान का चुनाव जीते मोदी के ही समकक्ष नेता मान लिया जाए। जिंदगी में शार्टकट से सफलता पाने वाले अक्सर ऐसे ही करते हैं।

नवजोत सिंह सिद्धू के साथ केजरीवाल का छल

तकदीर के तिराहे पर नवजोत सिंह सिद्धू
तकदीर के तिराहे पर नवजोत सिंह सिद्धू

haresh-kumar-अरविंद केजरीवाल को नवजोत सिंह सिद्धू की आह लग जाएगी। बेचारे को राज्यसभा से इस्तीफा दिलवा दिया कि पंजाब में आम आदमी पार्टी का सीएम कैंडिडेट बनाएंगे और हाथ में थमा दिया लड्डू। नवजोत सिंह सिद्धू के साथ केजरीवाल ने जैसा किया इसका उादहरण आपको पूरे राजनीतिक इतिहास में नहीं मिलेगा। कहां बेचारे के मन में पंजाब का सीएम बनने के लिए लड्डू फूट रहे थे और कहां आज न घर के रहे न घाट के।

पिछली लोकसभा में अमृतसर क्षेत्र के मतदाता अपने प्रतिनिधि सिद्धू को पोस्टर लगा-लगा कर खोज रहे थे और भाग्य की बिडंवना देखिए कि अगले चुनाव में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया तो नाराज हो गए। आखिर, इसी पार्टी ने उन्हें सांसद बनाया था। और चुनाव बाद अपने वादे को निभाते हुए राज्यसभा का सदस्य भी बनाया, लेकिन सिद्धू की महत्वाकांक्षा ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। लोकसभा चुनाव के दौरान सिद्धू ने खुले तौर पर अरुण जेटली को हराने में भूमिका निभाई थी, ये सबको पता है। नरेंद्र मोदी की लहर के बावजूद अरुण जेटली चुनाव हार गए। हालांकि, मोदी ने उन्हें अपनी टीम में न सिर्फ शामिल किया, बल्कि वित्त मंत्री बनाया। इससे जेटली के प्रति मोदी के विश्वास को समझा जा सकता है।

अब सिद्धू साहब कॉमेडी शो करते-करते अपने दिमाग को भी वहीं रख आए थे तो हम आप क्या कर सकते हैं।

सिद्धू साहब को सोचना चाहिए कि ये वही केजरीवाल हैं जिनके पास दिल्ली में चुनाव से पहले शीला दीक्षित के खिलाफ कॉमनवेल्थ गेम में भ्रष्टाचार करने का 370 पेज का सबूत था और पहली बार कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाते ही गिरगिट की तरह पैंतरा बदलने में एक पल की देरी नहीं की। जब इनसे दिल्ली विधानसभा में शीला दीक्षित के खिलाफ भ्रष्टाचार के लिए केस करने की बात पूछी गई तो महाशय का जवाब था- आप सबूत लाओ हम केस करते हैं। कुछ दिनों के बाद जनाब दिल्ली की गद्दी को त्यागकर लोकसभा के चुनाव में बनारस पहुंच गए और वहां कम्युनिस्टों ने इनका दिल खोलकर स्वागत किया, लेकिन इन्हें मालूम नहीं था कि देश की जनता पहले ही मूड बना चुकी है।

इन सबके बावजूद दिल्ली की जनता ने इन्हें 67-3 से दोबारा गद्दी सौंपी थी। दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र इनके झांसें में नहीं आए और वहां केजरीवाल के उम्मीदवारों को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था। ये स्थिति तब थी जब उम्मीदवारों ने केजरीवाल के फोटो का इस्तेमाल किया था।

लेकिन आदतन लाचार इस व्यक्ति ने दिल्ली में शराब कारोबारियों के हाथों खेलते रहने के बावजूद पंजाब में नशे के कारोबार और युवाओं की बर्बादी पर अपना सारा ध्यान लगा रखा है। इनके लिए नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं है।

(लेखक दैनिक भास्कर डॉट कॉम में कार्यरत हैं)

हरेश कुमार

पुण्य प्रसून बाजपेयी ने केजरीवाल को लताड़ा!

पुण्य प्रसून आजतक पर फिर हुए क्रांतिकारी, बहुत ही क्रांतिकारी !

अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को पत्रकारों के एक बड़े वर्ग का सहयोग और समर्थन शुरूआती दौर से हासिल रहा है. ऐसे पत्रकारों में आजतक के प्रख्यात पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी का नाम भी लिया जाता है. लेकिन लगता है अब पूरी तरह से उनका मोहभंग हो चुका है. तभी केजरीवाल के मंत्री संदीप कुमार सेक्स स्कैंडल मामले के बाद पुण्य प्रसून बाजपेयी ने लेख लिखकर केजरीवाल को लताड़ा है.पढ़िए पूरा लेख –

राजनीति को कीचड़ मान कर उसमें कूदकर सिस्टम बदलने का ख्वाब केजरीवाल ने अगर 2012 में देखा तो उसके पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन का दबाव था । रामलीला मैदान में लहराता तिरंगा और जनलोकपाल के दायरे में पीएम सीएम सभी को लाने की सोच। यानी भ्रष्टाचार से घायल देश के सामने यही सवाल सबसे बड़ा है कि अगर सत्ता में बैठे राजा जो खुद को सेवक कहकर देश में लूट मचाते है, उन पर रोक कैसे लगे तो आंदोलन से निकली पार्टी को सत्ता सौपकर जनता ने भी माना कि उसने न्याय किया । लेकिन वोट डालने वालों को कहां पता था कि जिन्हे वह अपना नुमाइन्दा बना रहा है । उम्र के लिहाज से ना उनके पास अनुभव है। शिक्षा के लिहाज से ना डिग्री वाले है । जनता से सीधे सरोकार भी नहीं है । जो इन्हें जिम्मेदार बनाये। सपने जागे और हवा चली तो हर कोई जीतता चला गया।

इसीलिये सवाल सिर्फ इतना नहीं कि केजरीवाल के तीन मंत्री तीन ऐसे मामलो में फंसे जो आंदोलन में शामिल किसी के लिये भी शर्मनाक हों । सवाल तो ये भी है कि तोमर हो या असीम अहमद खान या फिर संदीप कुमार इन्होंने अन्ना आंदोलन में ना तो कोई भूमिका निभायी, ना ही केजरीवाल के राजनीति में कूदने से पहले कोई राजनीतिक संघर्ष किया। और दिल्ली जहां सबसे ज्यादा शिक्षित युवा है, वहां कैसे युवा विधायक बने। जो ग्रेजुएट भी नहीं थे । पांच विधायक नौंवी पास । तो 5 विधायक दसवीं पास । दर्जन भर विधायक ग्यारहवी और बारहवीं पास । और शुरु में ही कानून मंत्री बने जितेन्द्र तोमर तो कानून की फर्जी डिग्री के मामले में ही फंस गये। तो क्या आम आदमी पार्टी ने ठीक उसी तर्ज पर राजनीति में जीत के लिये बीज बो दिये जैसा देश की तमाम पार्टियां करती है । क्योंकि जिस जनलोकपाल का सवाल भ्रष्ट राजनीति पर नकेल कसने निकला। और दिल्ली में सत्ता पलट गई । उसी दौर में देश में जनता के मुमाइन्दे ही सबसे दागदार दिखे । मसलन लोकसभा में 182 सांसद दागदार है । देश भर की विधानसभाओं में 1258 विधायक दागदार हैं । तमाम राज्यो में 33 फीसदी मंत्री दागदार है । ऐसे में केजरीवाल के 11 दागदार विधायक भी चल गये । तो क्या राजनीति करते हुये सत्ता पाने का रास्ता ही दागदार है । तो फिर जनता से जुडे मुद्दे कहा टिकेंगे । या कितने मायने रखेंगे । और जब सत्ता ही जनता से घोखा देने वाली व्यवस्था बना रही हो तब दिल्ली के सीएम केजरीवाल का ये दर्द कितना मायने रखेगा कि सैक्स स्कैंडल में फंसे संदीप कुमार ने आंदोलन को धोखा दे दिया । क्योंकि सवाल ये नहीं है कि जो भ्रष्ट फर्जी या स्कैंडल में लिप्त पाया गया केजरीवाल ने उसे मंत्रीपद से हटा दिया । सवाल तो ये है कि जिन आदर्शो के साथ आम आदमी पार्टी बनी । जिस सोच के साथ राजनीति में आई । जो उम्मीद जनता ने बांधी वह सब इतनी जल्दी कैसे और क्यों मटियामेट होने लगी । तो सवाल तीन है। आम आदमी पार्टी में जो चेहरे जुड़े क्या वह वाकई संघर्ष करते हुये निकले। या फिर अन्ना के आंदोलन और राजनीति से होते मोहभंग की स्थिति में दिल्ली की जनता से आप का विकल्प चुना । जो चेहरे विधायक बन गये । जो चेहरे मंत्री बन गई । वह ईमानदारी या व्यवस्था बदलने की सोच को लेकर राजनीति में नहीं कूदे । बल्कि देश में एक हवा बही और उस हवा में मौका परस्ती के साथ ऐसे चेहरे आप में आ गये । तो क्या केजरीवाल इन हालातों को समझ नहीं पाये या फिर वह एसे लोगो की ही फौज को लेकर आगे बढ़ना चाहते थे । क्योकि वैचारिक तौर पर या कहे बोध्द्दिक तौर पर कोई प्रतिबद्दता समाज के साथ आप की विधायक बनी भीड़ में है भी या नहीं ये भी सवाल है ।

तो क्या जनता के सामन एक ऐसा शून्यता आ रही है, जहां राजनीतिक सत्ता से उसका भोहभंग हो जाये । क्योंकि हालात राजनीतिक सत्ता के साथ सुलझ सकते ये सवाल लगातार अनसुलझा है । सत्ता बदलती है । लेकिन हालात कही ज्यादा बदतर हो जाते है । तो क्या भारत में आंदोलन भी सिर्फ सत्ता पलटने से आगे बढता नहीं । और संघ ने इस महीन लकीर को पक़ड कर खुद की उपयोगिता लगातार बनायी रखी । तो क्या केजरीवाल को भी राजनीति में आने के बदले संघ की तर्ज पर दबाब समूह के तौर पर काम करना चाहिये था । क्योंकि याद कीजिये राजनीतिक भ्रष्ट्रचार के खिलाफ जेपी का आदोलन हो या अन्ना आंदोलन । दोनो ही दौर में संघ के स्वयसेवक आंदोलन के पीछे खडे नजर । और दोनो ही दौर में देश की राजनीतिक सत्ता पलटी । आंदोलन क राजनीतिक लाभ 1977 में जनता पार्टी की जीत के साथ सामने आया तो 2013 और 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की जीत और 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सू़पड़ा साफ होने के साथ सामने आया ।

यानी संघ की राजनीतिक दखलअंदाजी जनता के मर्म को छुने वाले मुद्दो पर खडे आंदोलनो को सफल बनाने की जरुर रही । लेकिन खुद किसी आंदोलन को खड़ा करने की स्थिति में सीधे तौर पर संध सामने कभी नही आया । और याद किजिये तो ये सवाल 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त भी उभरा की संघ की राजनीतिक सक्रियता का मतलब है मोदी को पीएम उम्मीदवार बनवाने से लेकर वोटरो को घरो से बाहर कैसे निकाला जाये । तो क्या संघ राजनीतिक सक्रियता सत्ता पलटने , दिलाने की भूमिका में रहती है क्योंकि वह राजनीति दाग में राजनेताओ की खत्म होती नैतिकता को पहचानती है । और केजरीवाल व्यवस्था परिवर्तन की बात कहकर भी खुद ही बदलते दिखे । और बीजेपी संघ का राजनीतिक संगठन बनकर सियासत को महत्व देती है संघ के आदर्श का नहीं । मसलन-गोवा में ईसाई वोटों के लिये बीजेपी समझौता कर सकती है संघ नहीं । कश्मीर में धार 370 पर सत्ता में रहकर बीजेपी खामोश रह सकती है संघ नहीं । जाति की राजनीति को सोशल इंजिनियरिंग का मुल्लम्मा बीजेपी चढा सकती है, संघ नहीं । यानी राजनीतिक दल कुछ भी कर राजनीति कर सकता है क्योकि उसके लिये नैतिकता या जिम्मेदारी कोई मायने नहीं रखती है । ध्यान दें तो आंदोलन से मिली सत्ता चाहे वह 1977 की हो या 2013 की । दोनो ही डगमगायी । 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार दो बरस में ही ढहढहाकर गिर गई । और दिल्ली में 2013 के 49 दिनो के बाद 2015 में दोबारा इतिहास रचकर केजरीवाल सत्ता में आये लेकिन डेढ बरस के भीतर ही राजनीतिक हमाम में सभी एक सरीखे दिखने लगे ।

(लेखक के ब्लॉग से साभार)

पुण्य प्रसून बाजपेयी

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