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युवा ही लाएंगे हिंदी समय !

अब लडाई अंग्रेजी को हटाने की नहीं हिंदी को बचाने की है

संजय द्विवेदी

सरकारों के भरोसे हिंदी का विकास और विस्तार सोचने वालों को अब मान लेना चाहिए कि राजनीति और सत्ता से हिंदी का भला नहीं हो सकता। हिंदी एक ऐसी सूली पर चढ़ा दी गयी है, जहां उसे रहना तो अंग्रेजी की अनुगामी ही है। आत्मदैन्य से घिरा हिंदी समाज खुद ही भाषा की दुर्गति के लिए जिम्मेदार है। हिंदी को लेकर न सिर्फ हमारा भरोसा टूटा है बल्कि आत्मविश्वास भी खत्म हो चुका है। यह आत्मविश्वास कई स्तरों पर खंडित हुआ है। हमें और हमारी आने वाली पीढियों को यह बता दिया गया है कि अंग्रेजी के बिना उनका कोई भविष्य नहीं है। हमारी सबसे बड़ी अदालत भी इस देश के जन की भाषा को न तो समझती है, न ही बोलती है। ऐसे में सिर्फ मनोरंजन और वोट मांगने की भाषा भर रह गयी हिंदी से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं।

सरकारों का संकट यह है कि वे चीन, जापान, रूस जैसे तमाम देशों के भाषा प्रेम और विकास से अवगत हैं किंतु वे नई पीढ़ी को ऐसे आत्मदैन्य से भर चुके हैं कि हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर उनका आत्मविश्वास और गौरव दोनों चकनाचूर हो चुका है। आप कुछ भी कहें हिंदी की दीनता जारी रहने वाली है और यह विलाप का विषय नहीं है। महात्मा गांधी के राष्ट्रभाषा प्रेम के बाद भी हमने जैसी भाषा नीति बनाई वह सामने है। वे गलतियां आज भी जारी हैं और इस सिलसिले की रुकने की उम्मीदें कम ही हैं। संसद से लेकर अदालत तक, इंटरव्यू से लेकर नौकरी तक, सब अंग्रेजी से होगा तो हिंदी प्रतिष्ठित कैसे होगी? आजादी के सत्तर साल बाद अंग्रेजी को हटाना तो दूर हम हिंदी को उसकी जगह भी नहीं दिलवा पाए हैं। समूचा राजनीतिक, प्रशासनिक, न्यायिक तंत्र अंग्रेजी में ही सोचता, बोलता और व्यवहार करता है। ऐसे तंत्र में हमारे भाषाई समाज के प्रति संवेदना कैसे हो सकती है। उनकी नजर में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं एक वर्नाक्यूलर भाषाएं हैं। ये राज काज की भाषा नहीं है। कितना आश्चर्य है कि जिन भाषाओं के सहारे हमने अपनी आजादी की जंग लड़ी, स्वराज और सुराज के सपने बुने, जो केवल हमारे सपनों एवं अपनों ही नहीं अपितु आकांक्षाओं से लेकर आर्तनाद की भाषाएं हैं, उन्हें हम भुलाकर अंग्रेजी के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।

हिंदी दिवस मनाता समाज यह बता रहा है कि हम कहां हैं? यह बात बताती है कि दरअसल हिंदी के लिए बस यही एक ही दिन बचा है, बाकी 364 दिन अंग्रेजी के ही हैं। यह ढोंग और पाखंड हमारी खूबी है कि हम जिसे जी नहीं सकते, उसके उत्सव मनाते हैं। घरों से निष्काषित हो रही, शिक्षा से हकाली जा रही हिंदी अब दिनों, सप्ताहों और पखवाड़ों की चीज है। यह पाखंड पर्व निरंतर है और इससे हिंदी का कोई भला नहीं हो रहा है। राजनीति, जिससे उम्मीदें वह भी पराजित हो चुकी है।

समाजवादियों से लेकर राष्ट्रवादियों तक ने भाषा के सवाल पर अपने मूल्यों से शीर्षासन कर लिया है। अब उम्मीद किससे की जाए? इस घने अंधेरे में महात्मा गांधी, डा. राममनोहर लोहिया, पुरूषोत्तमदास टंडन जैसे राजनेता और मार्गदर्शक हमारे बीच नहीं हैं। जो हैं भी वे सब के सब आत्मसमर्पणकारी मुद्रा में हैं। कभी लगता था कि कोई अहिंदी भाषी देश का प्रधानमंत्री बनेगा तो हिंदी के दिन बहुरेगें। लेकिन लगता है वह उम्मीद भी अब हवा हो चुकी है। राजनेताओं ने जिस तरह से अंग्रेजी के आतंक के सामने आत्मसमर्पण किया है, वह एक अद्भुत कथा है। वहीं हिंदी समाज भी लगभग इसी मुद्रा में है। इसलिए राजनीति और उसके सितारों से हिंदी को कोई उम्मीद नहीं पालनी चाहिए। नया दौर इस अंग्रेजी और अंग्रेजियत को पालने-पोसने वाला ही साबित हुआ है। हमारे समय के एक बड़े कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखते हैं- “दिल्ली हमका चाकर कीन्ह, दिल दिमाग भूसा भर दीन्ह।”

हिंदी में वोट मांगते और हिंदी के सहारे राजसत्ता पाने वाले ही, दिल्ली पहुंचकर सबसे पहले देश की भाषा को भूलते हैं और उन्हें प्रशासनिक तंत्र के वही तर्क रास आने लगते हैं, जिसकी पूर्व में उन्होंने सर्वाधिक आलोचना की हुई होती है। दिल्ली उन्हें अपने जैसा बना लेती है। अनेक हिंदी भक्त प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे पर हिंदी तो वहीं की वहीं है, अंग्रेजी का विस्तार और प्रभाव कई गुना बढ़ गया। लार्ड मैकाले जो नहीं कर पाए, वह हमारे भूमि पुत्रों ने कर दिया और गांव-गांव तक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए। अंग्रेजी सिखाना एक उद्योग में बदल गया। अंग्रेजी न जानने के कारण आत्मविश्वास खोकर इस देश की नौजवानी आत्महत्या तक करती रही, लेकिन सत्ता अपनी चाल में मस्त है।

ऐसे में भरोसा फिर उन्हीं नौजवानों का करना होगा जो एक नए भारत के निर्माण के लिए जुटी है। जो अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहती है। जो जड़ों में मुक्ति खोज रही है। भरोसे और आत्मविश्वास से दमकते तमाम चेहरों का इंतजार भारत कर रहा है। ऐसे चेहरे जो भारत की बात भारत की भाषाओं में करेंगे। जो अंग्रेजी में दक्ष होंगे, किंतु अपनी भाषाओं को लेकर गर्व से भरे होंगे। उनमें हिंदी मीडियम टाइप (एचएमटी) या वर्नाकुलर पर्सन कहे जाने पर दीनता पैदा नहीं होगी बल्कि वे अपने काम से लोगों का, दुनिया का भरोसा जीतेंगे। हिंदी और भारतीय भाषाओं की विदाई के इस कठिन समय में देश ऐसे युवाओं का इंतजार कर है जो अपनी भारतीयता को उसकी भाषा, उसकी परंपरा, उसकी संस्कृति के साथ समग्रता में स्वीकार करेंगे। जिनके लिए परम्परा और संस्कृति एक बोझ नहीं बल्कि गौरव का कारण होगी।

एक युवा क्रांति देश में प्रतीक्षित है। यह नौजवानी आज कई क्षेत्रों में सक्रिय दिखती है। खासकर सूचना-प्रौद्योगिकी की दुनिया में। जिन्होंने इस भ्रम को तोड़ दिया कि आई टी की दुनिया में बिना अंग्रेजी के गुजारा नहीं है। ये लोग ही भरोसा जगा रहे हैं। ये भारत को भी जगा रहे हैं। एक गुजराती भाषी अपनी राष्ट्रभाषा में ही इस देश को संबोधित कर प्रधानमंत्री बना है। भरोसा जगाते ऐसे कई दृश्य हैं अमिताभ बच्चन हैं, प्रसून जोशी हैं, बाबा रामदेव, नरेंद्र कोहली हैं, लता मंगेश्कर हैं। जिनके श्रीमुख और कलम से मुखरित-व्यक्त होती हिंदी ही तो देश की ताकत है। आजादी के सात दशक के बाद हिंदी दिवस मनाने के बजाए हम हिंदी को उसका वास्तविक स्थान दिलाने, घरों और नई पीढ़ी तक हिंदी और भारतीय भाषाओं को पहुंचाने का काम करें तो ही अंग्रेजी के विस्तारवाद से लड़ सकेंगे। अब लड़ाई अंग्रेजी को हटाने की नहीं, हिंदी और भारतीय भाषाओं को बचाने की है, अपने घर से बेधर न हो जाने की है।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)

झिझक मिटे तो हिंदी बढ़े …!!




तारकेश कुमार ओझा,वरिष्ठ पत्रकार

एक बार मुझे एक ऐसे समारोह में जाना पड़ा, जहां जाने से मैं यह सोच कर कतरा रहा था कि वहां अंग्रेजी का बोलबाला होगा। सामान्यतः ऐसे माहौल में मैं सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता। लेकिन मन मार कर वहां पहुंचने पर मुझे अप्रत्याशित खुशी और सुखद आश्चर्य हुआ। क्योंकि ज्यादातर वक्ता भले ही अहिंदी भाषी और ऊंचे पदों को सुशोभित करने वाले थे, लेकिन समारोह के शुरूआत में ही एक ने हिंदी में भाषण क्या शुरू किया प्रबंधक से लेकर प्रबंध निदेशक तक ने पूरा भाषण हिंदी में प्रस्तुत किया। बात वहां मौजूद हर छोटे – बड़े के हृदय तक पहुंची। इस घटना ने मेरी धारणा बदल दी। मुझे लगा कि अंग्रेजीदां समझे जाने वाले लोग भी हिंदी पसंद करते हैं और इस भाषा में बोलना चाहते हैं।

लेकिन अक्सर वे बड़े समारोह जहां ऊंचों पदों को सुशोभित करने वाले लोग मौजूद हों हिंदी बोलने से यह सोच कर कतराते हैं कि यह शायद उन्हें पसंद न आए। जीवन प्रवाह में मुझे इस तरह के कई और अनुभव भी हुए। मसलन मैं एक नामी अंग्रेजी स्कूल के प्राचार्य कक्ष में बैठा था। स्वागत कक्ष में अनेक पत्र – पत्रिकाएं मेज पर रखी हुई थी। जिनमें स्कूल की अपनी पत्रिका भी थी। जो थी तो अंग्रेजी में लेकिन उसका नाम था शैशव। इससे भी सुखद आश्चर्य हुआ। क्योॆंकि पूरी तरह से अंग्रेजी वातावरण से निकलने वाली अंग्रेजी पत्रिका का नाम हिंदी में था। बेशक इसके प्रकाशकों ने हिंदी की ताकत को समझा होगा। इस घटना से भी मैं गहरे सोच में पड़ गया कि आखिर क्या वजह है कि बड़े – बड़े कारपोरेट दफ्तरों व शॉपिंग मॉलों में भी रोमन लिपि में ही सही लेकिन हिंदी के वाक्य कैच वर्ड के तौर पर लिखे जाते हैं। जैसे.. शादी में अपनों को दें खास उपहार… खास हो इस बार आपका त्योहार… शुभ नववर्ष… शुभ दीपावली… हो जाए नवरात्र पर डांडिया … वगैरह – बगैरह। यही नहीं सामुदायिक भवनों के नाम भी मांगलिक आर्शीवाद, स्वागतम तो बड़े – बड़े आधुनिक अस्पतालों का नामकरण स्पंदन, नवजीवन , सेवा – सुश्रषा होना क्या यह साबित नहीं करता कि बोलचाल में हम चाहे जितनी अंग्रेजी झाड़ लें लेकिन हम भारतीय सोचते हिंदी में ही है। क्या इसलिए कि अंग्रेजीदां किस्म के लोग भी जानते हैं कि बाहर से हम चाहे जितना आडंबर कर लें लेकिन हिंदी हमारे हृदय में बसती है। मुझे लगता है हिंदी की राह में सबसे बड़ी रुकावट वह झिझक है जिसकी वजह से उच्चशिक्षित माहौल में हम हिंदी बोलने से कतराते हैं। जबकि किसी भी वातावरण में अब हिंदी के प्रति दुर्भावना जैसी कोई बात नहीं रह गई है।

अपने पेश के चलते मुझे अक्सर आइआइटी जाना पड़ता है। बेशक वहां का माहौल पूरी तरह से अंग्रेजी के रंग में रंगा होता है। लेकिन खास समारोह में जब भी मैने किसी संस्थान के छात्र या अन्य प्राध्यापकों से हिंदी में बातचीत की तो फिर माहौल बनता चला गया। यह तो हमारी झिझक है जो हम अपनी भाषा में बात करने से कतराते हैं। आइआइटी के ही एक कार्यक्रम में एक अति विशिष्ट हस्ती मुख्य अतिथि थे। जो दक्षिण भारतीय पृष्ठभूमि के तो थे ही उनकी अंतर राष्ट्रीय ख्याति भी थी। उनके संभाषण से पहले एक हिंदी देशभक्ति गीत बजाया गया तो उन्होंने अपने संभाषण की शुरूआत में ही इस गीत का विशेष रूप से उल्लेख किया। ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं कि आज के दौर में किसी को हिंदी से परहेज है .या कहीं हिंदी सीखने – सिखाने की आवश्यकता है। अपने पेशे के चलते ही मुझे अनेक नामचीन लोगों के मोबाइल पर फोन करना पड़ता है जिनमें देश के विभिन्न प्रांतो के लोग होते हैं। लेकिन मैने ज्यादातर अहिंदीभाषी विशिष्ट हस्तियों का कॉलर टोन हिंदी में पाया। बेशक कुछ हिंदी भाषियों के मोबाइल पर अहिंदीभाषी गानों की धुन टोन के रूप में सुनने को मिली। भाषाई उदारता और देश की एकता की दृष्टि से इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। दरअसल हीन ग्रंथि हमारे भीतर है । हम सोचते हैं कि उच्च शिक्षित और पढ़े लिखे लोगों के बीच मैं यदि भारतीय भाषा में बात करुंगा तो वहां मौजूद लोगों को अजीब लगेगा।लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है।हमें अपनी इस झिझक से पार पाना ही होगा। मुझे याद आता है श्री हरिकोटा में प्रधानमंत्री का हिंदी में दिया गया वह भाषण जिसे वहां मौजूद वैज्ञानिक पूरी तन्मयता से सुनते रहे। फिर भाषाई वैशिष्टय या संकीर्णता को लेकर हम आधारहीन शिकायत क्यों करें।

(लेखक पत्रकार हैं)

हिंदी दिवस या हिन्दी विमर्श: व्यंग्य

एम् एम्. चन्द्रा

हिंदी दिवस पर बहस चल रही थी. एक वर्तमान समय के विख्यात लेखक और दूसरे हिंदी के अविख्यात लेखक. हम हिंदी दिवस क्यों मानते है? कोई दिवस या तो किसी के मरने पर मनाया जाता है या किसी उत्सव पर, तो ये हिंदी दिवस किस उपलक्ष में मनाया जा रहा है. अविख्यात लेखक महोदय तुरंत बोल उठे! आज के दिन हिंदी व्यापार दिवस है. हिंदी को बेचने वालों और खरीदने वालों की मंडी लगी है. इस दिन लेखक अपने ऊपर होने वाली इनायत का फल भोगते है. यही हिंदी विभ्रम! सॉरी हिंदी दिवस! सॉरी हिन्दी विमर्श की सार्थकता है.

ऐसी कोई बात नहीं अविख्यात लेखक जी! पिछले कुछ दिनों से हिंदी विमर्श भी चल रहा है- हिंदी वाले अंग्रेजी में हस्ताक्षर क्यों करते है ? उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूल में क्यों पड़ते है. बलकट हिंदी और बलकट अंग्रेजी का बंद हो . हिंगलिश क्यों? हिंदी बिकती क्यों नहीं है? पुरस्कार राशि बहुत कम है. क्या ये मुद्दे हिंदी विमर्श के नहीं है. दिन रात हिंदी में आलोचकों और समीक्षकों पर विमर्श भी तो हो रहा है .मठ मठाधीश पर भी खूब लिखा जा रहा है. इन्हीं सब से तो हिंदी का विकास होगा. किसी के रचनाकर्म पर विमर्श करने से हिंदी का भला तो होने वाला नहीं .

सरकारी गैर-सरकारी संस्थाएं भी तो हिंदी सम्मेलन, हिंदी पखवाड़ा, अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस पर भी तो करोड़ों रुपये खर्च कर रही. विज्ञापन, पुरस्कार, आने जाने का, रहने खाने-पीने का खर्च भी तो हिंदी विमर्श है . अब क्या बच्चे की जान लोगे. भाई मनुष्य गलतियों का पुतला है इसलिए हिंदी को बचाने के लिए नई तकनीकी का इस्तेमाल हो रहा है . आज किसी को कागज कलम लेकर किताब के प्रूफ देखने की जरूरत नहीं. सॉफ्टवेयर अपने आप स्पेलिंग चेक कर लेते है. व्याकरण की हिंदी को जरूरत भी नहीं. बड़ी बड़ी दुकानें हिंदी के विकास का पूरा ठेका ले चुकी है.

विख्यात लेखक जी! ये बताओ की हिंदी में बिंदी लगती है या आधा ‘न’ लगता है. फिर आप विमर्श पर उतर आये. आपको बता दे! दोनों चलता है. दोनों को मान्यता मिल गयी है. अब चाँद बिंदु की भी जरूरत नहीं. नुक्ता लगाना तो साम्प्रदायिक हो गया है.

मुझे लगता है अविख्यात लेखक जी! आप बहुत ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति है. थोड़ा सा व्यवहारिक बनो. आज हिंदी के रूप बदल चुके. हिंदी लेखन बाजार की सुविधा अनुसार होता है. यही समझ काफी है हिंदी दिवस और हिंदी विमर्श की. आपको भी इस हिंदी में भेद करना आना चाहिए. सैद्धांतिक हिंदी और व्यवहारिक हिंदी को एक साथ मत मिलाओ, बोलचाल की हिंदी और लेखन की हिंदी को पहचानो. वैचारिक हिंदी को आपने पास मत आने दो. तभी आपका हिंदी लेखन सफल होगा वरना इसी प्रकार अविख्यात लेखक बने रहोगे.

हम तो अविख्यात ही रहना पसंद करेंगे क्योंकि जिस दिन हमारा नाम हिंदी लेखकों की श्रेणी आना शुरू हो जायेगा उस दिन बड़े-बड़े लेखक बेनकाब होंगे. किताबें हम लिखते है, एडिटिंग हम करते है, प्रूफ हम करते और नाम आप जैसे बड़े लेखकों का होता है. क्या हिंदी विमर्श में हम जैसे अविख्यात लेखकों पर विमर्श करते हो.
आरे अरे सर आप तो नाराज हो गये.

ये विमर्श ही गलत है., और सुनाये! मेरी नयी किताब कब तक लिखकर पूरा कर दोगे.

संस्कृत की तरह प्रतीकात्मक होती हिंदी

ब्रह्मानंद राजपूत-

ब्रह्मानंद राजपूत,
ब्रह्मानंद राजपूत,
हिंदी शब्द है हमारी आवाज का हमारे बोलने का जो की हिन्दुस्तान मैं बोली जाती है। आज देश में जितनी भी क्षेत्रीय भाषाएँ हैं उन सबकी जननी हिंदी है। और हिंदी को जन्म देने वाली भाषा का नाम संस्कृत है। जो की आज देश में सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से हिंदी माध्यम के स्कूल में एक विषय के रूप मैं पढाई जाती है। आज देश के लिए इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है की जिस भाषा को हम अपनी राष्ट्रीय भाषा कहते हैं। आज उसका हाल भी संस्कृत की तरह हो गया है जिधर देखो उधर ही अंग्रेजी से हिंदी और समस्त भारतीय भाषाओं को दबाया जा रहा है। चाहे आज देश में इंटरमीडिएट के बाद जितने भी व्यावसायिक पाठयक्रम हैं। सब अंग्रेजी में पढाये जाते हैं । अगर देश की शिक्षा ही देश की राष्ट्रीय भाषा में नहीं है तो हिंदी जिसे हम अपनी राष्ट्रीय भाषा मानते है। जिसे हम एक दुसरे का दुःख दर्द बांटने की कड़ी मानते है। उसका प्रसार कैसे हो पायेगा।

महात्मा गांधी हिन्दी भाषी नहीं थे लेकिन वे जानते थे कि हिन्दी ही देश की संपर्क भाषा बनने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। उन्हीं की प्रेरणा से राजगोपालाचारी ने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा का गठन किया था। देशभर में हिन्दी पढ़ना गौरव की बात मानी जाती थी। महात्मा गांधी जी ने 1916 में क्रिश्चियन एसोसिएशन आफ मद्रास की एक सभा में स्पष्ट रूप से कहा था कि धर्मान्तरण राष्ट्रान्तरण है। उन्होंने हरिजन में लिखा था ‘‘यदि मैं तानाशाह होता तो अंग्रेजी की पुस्तकों को समुद्र में फेंक देता और अंग्रेजी के अध्यापकों को बर्खास्त कर देता।’’

सच तो यह है कि ज़्यादातर भारतीय अंग्रेज़ी के मोहपाश में बुरी तरह से जकड़े हुए हैं। आज स्वाधीन भारत में अंग्रेज़ी में निजी पारिवारिक पत्र व्यवहार बढ़ता जा रहा है काफ़ी कुछ सरकारी व लगभग पूरा ग़ैर सरकारी काम अंग्रेज़ी में ही होता है, दुकानों वगैरह के बोर्ड अंग्रेज़ी में होते हैं, होटलों रेस्टारेंटों इत्यादि के मेनू अंग्रेज़ी में ही होते हैं। ज़्यादातर नियम कानून या अन्य काम की बातें किताबें इत्यादि अंग्रेज़ी में ही होते हैं, उपकरणों या यंत्रों को प्रयोग करने की विधि अंग्रेज़ी में लिखी होती है, भले ही उसका प्रयोग किसी अंग्रेज़ी के ज्ञान से वंचित व्यक्ति को करना हो। अंग्रेज़ी भारतीय मानसिकता पर पूरी तरह से हावी हो गई है। हिंदी (या कोई और भारतीय भाषा) के नाम पर छलावे या ढोंग के सिवा कुछ नहीं होता है।

माना कि आज के युग में अंग्रेज़ी का ज्ञान ज़रूरी है, क्योकि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। कई सारे देश अपनी युवा पीढ़ी को अंग्रेज़ी सिखा रहे हैं जिसमे एक भारत देश भी है पर इसका अर्थ ये नहीं है कि उन देशों में वहाँ की भाषाओं को ताक पर रख दिया गया है और ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेज़ी का ज्ञान हमको दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में ले आया है। सिवाय सूचना प्रौद्योगिकी के हम किसी और क्षेत्र में आगे नहीं हैं और सूचना प्रौद्योगिकी की इस अंधी दौड़ की वजह से बाकी के प्रौद्योगिक क्षेत्रों का क्या हाल हो रहा है वो किसी से छुपा नहीं है। सारे विद्यार्थी प्रोग्रामर ही बनना चाहते हैं, किसी और क्षेत्र में कोई जाना ही नहीं चाहता है। क्या इसी को चहुँमुखी विकास कहते हैं? दुनिया के लगभग सारे मुख्य विकसित व विकासशील देशों में वहाँ का काम उनकी भाषाओं में ही होता है। यहाँ तक कि कई सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अंग्रेज़ी के अलावा और भाषाओं के ज्ञान को महत्व देती हैं। केवल हमारे यहाँ ही हमारी भाषाओं में काम करने को छोटा समझा जाता है।

आज हमारे देश में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे हैं। बचपन में हम सुना करते थे कि सोवियत रूस में नियुक्त राजदूत विजय लक्ष्मी पंडित जो कि प्रधानमंत्री नेहरू की सगी बहन थीं, ने रूस के राजा स्टालिन को अपना पहचानपत्र अंग्रेजी में भेजा। उन्होंने स्वीकार करने से इंकार कर दिया और पूछा कि क्या भारत की अपनी कोई भाषा है या नहीं। उन्होंने फिर हिन्दी में परिचय पत्र भेजा तब उन्होंने मिलना स्वीकार किया। अंग्रेजी व्यापार की भाषा है जरूर लेकिन वह ज्ञान की भाषा नहीं। सबसे अधिक ज्ञान-विज्ञान तो संस्कृत में है जिसे भाषा का दर्जा दिया जाना महज औपचारिकता भर रह गया है।

आज जरूरत है हमारी सरकार को हिंदी का अधिक से अधिक प्रसार करना चाहिए। और जैसे की चीन अपनी भाषा को प्रोत्साहन दे रहा है। वैसे ही भारत देश को अपनी भाषा को प्रोत्साहन देना होगा। और जितने भी देश मैं सरकारी कामकाज होते है वो सब हिंदी मैं होने चाहिए। और हिंदी में उच्च स्तरीय शिक्षा के पाठयक्रम को क्रियान्वित करने की जरूरत है। सभी जानते हैं की अंग्रेजी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है मैं अपने विचार से कहना चाहूँगा की अग्रेजी सभी को सीखना चाहिए। लेकिन उसे अपने ऊपर हमें कभी हावी नहीं होने देना है अगर अंग्रेजी हमारी ऊपर हावी हो गयी तो हम अपनी भाषा और संस्कृति सब को नष्ट कर देंगे। इसलिए आज से ही सभी को हिंदी के लिए कोशिशे जारी कर देनी चाहिए। अगर हमने शुरुआत नहीं की तो हमारी राजभाषा एक दिन संस्कृत की तरह प्रतीकात्मक हो जायेगी। जिसके जिम्मेदार और कोई नहीं हम लोग होंगे। अंग्रेजी भाषा की मानसिकता आज हम पर, खासकर हमारी युवा पीढ़ी पर इतनी हावी हो चुकी है कि हमारी अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में है। इसके लिए हमें प्रयास करने होंगे। और इसके लिए जरूरत है की हमें अंग्रेजी को अपने दिलो-दिमाग पर राज करने से रोकें, तभी हिंदी आगे बढ़ेगी और राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की यह घोषणा साकार होगी –

“है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी-भरी
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।”

महाराष्ट्र में गरमाया एट्रोसिटी विवाद राष्ट्रीय मीडिया ने बनाई दूरी

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के कोपरडी गाँव में कुछ दिन पहले एक सवर्ण जाती की अल्पवयीन लड़की से सामूहिक बलात्कार करके कुछ असामाजिक तत्वो के दबंगईयो ने बर्बरता से ह्त्या कराई थी।

माना जाता है की वे दबंगई दलित समुदाय से तालुक रखते है। पीड़ित लड़की मराठा समुदाय से तालुक रखती है, इसीलिए इस मामले ने महाराष्ट्र के राजनीति में भूचाल आया है।

यह मामला इतना गर्माया हुआ है की दलित – मराठा समुदाय एक दूसरे के खिलाफ सोशल मीडिया पर जहर उगल रहे।

मराठा स्ट्रांग मैन और एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार के बयांन के बाद इस मसले ने आग में घी डालने का काम किया। शरद पवार ने अपने बयान में कहा था की संसद में पारित राष्ट्रीय कानून प्रीवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटी एक्ट – १९८९ का दलितों द्वारा गलत इस्तेमाल हो रहा है जिसे खत्म कर देना चाहिए।

किन्तु जब दलित संगठनों ने सोशल मीडिया पर आक्रमकता दिखाई तब शरद पवार ने बयान से पलटी मारी थी।

मराठा स्ट्रांग मैन शरद पवार को कट्टर सेक्युलर, प्रोग्रेसिव, माना जाता है। एवम फुले, शाहू, आम्बेडकर के विचारो पर निष्ठ रखने वाले नेताओ में उनका नाम शुमार है।

किन्तु मराठा समुदाय से जुड़े विभिन्न संगठन मसलन संभाजी ब्रिगेड, मराठा ब्रिगेड, मराठा क्रांति दल, जिजाऊ ब्रिगेड आदि महाराष्ट्र के कई जिलो में बड़ी तादाद में प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटी एक्ट – १९८९ को लेकर लामबंध हो रहे है।

मराठवाड़ा के कई जिलो में लाखो की तादाद मराठा समुदाय धरना, मोर्चा ऑर्गनाइज़ कर रहे।

दूसरी और दलित, आम्बेडकरी समुदाय से जुड़े संगठनों की दलील है की दलित – मराठा समुदाय के बिच कुछ असामाजिक तत्व दरार डाल रहे है।

मराठी न्यूज़ चैनल, अखबार इस मसले को लगातार उठा रहे किन्तु नेशनल मीडिया ने संतुलित भूमिका रखते हुए दुरी बनाना बेहतर समझा है।

सुजीत ठमके

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