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मीडिया के लिए दिल्ली की रेप – रेप और बाकी सिफर

women molestation

ऐसी कवरेज दूसरे मामलातों में भी होती तो ये नौबत नहीं आती

बीते दो दिनों से जिस तरह से दिल्ली में हुए गैंग रेप मामले को मीडिया द्वारा लगातार तमाम चैनलों में कवरेज दिया जा रहा है काश ऐसी कवरेज मीडिया में देश के बाकी हिस्सों में हो रहे गैंग रेप के मामलों को भी मिलता तो शायद आज हिन्दुस्तान में बलात्कारियों को फांसी की सज़ा दिलाने में सरकार को सोचना नहीं पड़ता. क्योकि सरकार के सामने इतने साक्ष्य होते कि वो समाज का सामना नहीं कर सकती.

चुकी ये मामला देश की राजधानी दिल्ली की है तो मीडिया में लगातार ये खबर आ रही है. ऐसी ही खबर बिहार या उड़ीसा से होती तो यही मीडिया वाले झाँकने भी नहीं आते, ऐसे छोटे राज्यों में आये दिन ऐसी घटना होती है पर मीडिया में खबर नदारद होती है और बलात्कारियों की हिम्मत दुगुनी होती रहती है.

सरकारें, प्रशासन सोती रहती है और मीडिया टीआरपी की तलाश में अपनी जिम्मेवारी से भागती रहती है. ऐसा नहीं है कि ऐसे जगहो के मीडियाकर्मी इन ख़बरों को कवर नहीं करते पर अफ़सोस लो-प्रोफाइल के कारण इन ख़बरों को दरकिनार कर दिया जाता है, आज अगर बलात्कारियों का मनोबल बढाने में शासन, प्रशासन जितना जिम्मेवार है तो उतना ही जिम्मेवार मीडिया भी है जो सिर्फ और सिर्फ अपने टीआरपी कि खातिर इन ख़बरों को अहमियत देती है वो भी प्रोफाइल, जगह और स्टेटस देख कर खबर चलाती है. ये मैं नहीं उन चैनलों के जमीनी पत्रकारों का बयान है.

आज दिल्ली में हुए इस मामले पर समूचा देश उबल पड़ा है क्योकि मीडिया ने इसे जबर्दस्त ढंग से तवज्जो दिया है, तो फिर मीडिया को अपनी भूमिका और ताकत का एहसास होना चाहिए ना की बस टीआरपी हासिल करने की लिए खानापूर्ति की खातिर रोल अदायगी करना. आज इस मामले पर सारा देश शर्मिन्दा है तो फिर इस शर्मिंदगी के लिए सरकार, समाज, प्रशासन के साथ साथ मीडिया भी उतना ही दोषी है वरना क्या मजाल था अगर मीडिया सख्त हो जाए तो कोइ दुबारा ऐसी हिमाकत कर सके और सरकार नपुंसक बन सके. जागो मीडिया जागो. (आलोक पुंज के फेसबुक वॉल से साभार)

24 घंटे का अश्लील तमाशा, वही ब्रेकिंग न्यूज की लाल पट्टी

breaking news

एक वीडियो एडिटर की कलम से …..

इस मुल्क में बेटियाँ क्यों सुरक्षित नहीं है ,संसद की सियासत में इस बार जया की रुलाइयां है।।वो फूट फूट कर रोई ..जो इस बार भी जाया जायेंगी ,सब चीज़े कुछ वक्त बाद फ़ना हो जायेंगी ,लेकिन इसी बीच कुछ पीछे छूट गया ,इस मुल्क की बेटी आज फिर बेबस है और मैं बेचेंन हूँ …

एक वीडियो एडिटर होने के नाते मैं इस मुल्क की बेटियों को जानता भी और पहचानता भी हूँ ,ख़बरों की बेबसी में बस यह बेटियां हर बार चेहरा बदल लेती है ,लेकिन अंत वही होता है ,कभी किसी के चेहरे पर उस वक्त तक तेज़ाब डाला जाता है ,जब तक उसकी कोमलताए ख़त्म ना हो जाए तो कभी किसी घर में जब तक जलाया जाता जब तक उसकी आत्मा न जल जाए ,मन के आँगन में यह 24 घंटे का अश्लील तमाशा है जो हर रोज कभी किसी चोराहे पर लगाया जाता है ,कभी दिल्ली के दिल में ..कभी मुंबई ..कभी कही और …

एक गहरी खामोशी के बाद जब कुछ लिखने की कोशिश कर रहा हूँ तो शब्दों ने इतराना शुरू कर दिया है …शायद यह मेरे लिए आम बात है ..वही शब्द ..वही बातें ..बस आज तारीखे बदल रही है …लेकिन हम नहीं बदले ..वही न्यूज़ फ़्लैश …ब्रैकिंग न्यूज़ की वो लाल पट्टी ..

सब तो वही है ..जैसे सब कुछ स्क्रिप्टड हो !!.

सदियों की चुप्पी तोड़ कर सब इंडिया गेट फिर जायेंगे ..इस बार मोमबत्तियां के सामने वाले बैनर की तस्वीर बदल रही है ..वही शाम ..वही चन्दा मामा ..वही लोग ..बस तस्वीर बदल रही है ..मातम वही है ..आंसू वही है ..बेबसी ..बैचेनी ..और वो रुलाइयां .. इसी बीच ऑफिस का टाइम हो गया है ..

अलविदा

आपका आशीष

+91-8860786891

 

बीबीसी की महिला पत्रकारों की जुबानी छेड़छाड़ की कहानी

women molestation

दिल्ली में एक महिला के साथ दुष्कर्म हुआ तो देश हिल गया. लेकिन हकीकत है कि महिलाओं के साथ दिल्ली में आये दिन दुर्व्यवहार होते रहता है और उसकी सुनवाई कहीं नहीं होती. मनचले अपनी हरकतों से बाज नहीं आते और उन्हें जहाँ मौका मिलता है वहीं महिलाओं के साथ छेड़खानी और बदतमीजी करने लग जाते हैं. कामकाजी महिलाएं जिन्हें घर से अपने काम के लिए निकलना होता है उनके लिए मुसीबत ज्यादा होती है और वही ऐसे मनचलों का ज्यादा शिकार भी बनती है. उनकी फब्तियां सुनती हैं और कई बार वहशी दरिंदों के चंगुल में फंस भी जाती हैं. हरेक महिला को ऐसे मनचलों से कभी -न- कभी पाला जरूर पड़ता है. पत्रकारिता नौ बजे से पांच बजे की नौकरी नहीं है, सो महिला पत्रकारों को भी कई दफे मनचलों से आमना – सामना होता ही है. ऐसे ही कुछ अनुभव बीबीसी की पांच महिला पत्रकार साझा कर रही हैं.

शिल्पा कन्नन-

जहां ये घटना हुई है उसी रास्ते की बात है. मैं अपने पति के साथ बाइक पर जा रही थी. पीछे से दो लड़के आए स्कूटर पर और मेरी बांहों पर चिकोटी काटी. चलती बाइक में. हम लोग गिरते गिरते बचे. फिर थोड़ी ही दूर पर वो स्कूटर वाले रुके. हम पर हंसे और आगे निकल गए.

ये शाम पांच-छह की बात है. हम थाने में गए तो पुलिस ने केस लिखने से मना किया. फिर हमने कई लोगों से कहा तो केस हुआ. उन लड़कों को गिरफ्तार किया गया लेकिन पुलिस ने कहा देख लीजिए छेड़छाड़ के मामले में 50-200 रुपए का जुर्माना है. और आपको हर दिन कोर्ट में आना पड़ेगा इसलिए मैं इसको थप्पड़ मार के छोड़ देता हूं.

और भी अनुभव हैं लेकिन जब लोग कहते हैं कि महिलाओं को लड़ना चाहिए तो लड़ने का परिणाम भी कोई बहुत अच्छा होता नहीं है यहां.

दिव्या शर्मा-

मुझे नहीं लगता कि दिल्ली सुरक्षित है महिलाओं के लिए जबकि मैं काफी समय से दिल्ली में रह रही हूं. जब मैं कॉलेज में थी तभी ऐसा बुरा अनुभव हुआ कि मैंने बसों में चलना ही छोड़ दिया. ऑटो में भी डर तो लगता ही है.

हुआ ये कि मैं ब्लू लाइन बस में बैठी थी और पीछे से कोई बार बार मेरे बाल खींच रहा था. मेरे बाल तब छोटे थे. जब दो तीन बार बाल खींचे गए तो मैंने पीछे मुड़ कर घूर कर देखा. मुझे हिम्मत नहीं थी कि मैं कुछ कहूं लेकिन मैंने कोशिश की कि इसे रोका जाए.

पीछे बैठे आदमी ने कहा कि आपके बाल में कुछ लगा है. कुछ नहीं था बाल में. ये बस मुझे छेड़ने की कोशिश थी. मैं छोटी थी उस समय और इस हादसे ने मुझे इतना अंदर से डरा दिया कि मैं अब भी बस में सफर नहीं करती हूं.

आरती शुक्ला-

मेरा दिल्ली का कोई ऐसा ख़राब अनुभव नहीं है लेकिन दिल्ली में महिला होने का एक अपना साइकोलॉजिकल प्रभाव है. मैं कुछ समय पहले पुणे गई थी. वहां दोस्तों ने कहा कि चलो नाइट शो फिल्म देखने चलते हैं. मैं राज़ी ही नहीं हो रही थी कि आप कैसे नाइट शो जा सकते हैं. सुरक्षित नहीं है क्योंकि मेरे दिमाग में दिल्ली का माहौल था.

पुणे में हम गए नाइट शो देखने फिर ऑटो से वापस लौटे और पुणे के दोस्त मुझ पर हंस रहे थे. मेरी ढाई साल की बेटी है. छोटी है लेकिन मैं उसकी सुरक्षा को लेकर पागलपन की हद तक परेशान रहती हूं क्योंकि जो आसपास होता है सुनते हैं उसका असर तो पड़ता है न.

नौशीन-

मुझे पता है कि मैं विदेशी हूं तो थोड़ी परेशानी ज्यादा हो सकती है लेकिन ऐसा होगा सोचा नहीं था. मैं मेट्रो से उतर कर सुबह के आठ बजे रिक्शा से कहीं जा रही थी. पीछे से बाइक पर सवार दो लोग आए और मेरा बैग छीन कर भाग गए. मैंने पुलिस को फोन किया. थाने भी गई लेकिन बैग तो नहीं ही मिला. तब से मैं बहुत डर गई.

मेट्रो में भी चलती हूं तो महिला वाले डिब्बे में. फिर भी लोग घूरते हैं मानो कपड़े के अंदर देख लेंगे आपको. आप कुछ भी पहनें उन्हें फर्क नहीं पड़ता. अंधेरा होने के बाद मैं बहुत सतर्क हो जाती हूं. आस पास देखते हुए आती हूं कि कहीं कुछ हो न जाए. डर तो लगता है इस शहर में रहने में.

स्वाति अर्जुन-

मैं किसी काम से दक्षिणी दिल्ली के मूलचंद गई थी.लौटते-लौटते शाम हो गई थी. मैंने एक ऑटोरिक्शा लिया और उसपर सवार हो गई.चूंकि रास्ता जाना-पहचाना था इसलिए मैंने ऑटो वाले को मेडिकल फ्लाईओवर से बाएं कट लेने को कहा, लेकिन उसने मेरी बात को अनसुना कर टेपरिकॉर्डर और तेज़ कर दिया और ऑटो को फ्लाईओवर पर चढ़ा दिया. वहां से मेरे घर के लिए कोई टर्न नहीं था.

मैंने जब ऑटोवाले को कहा तो उसने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया. इसके बाद तो मैंने फोन पर पुलिस को फोन किया और ऑटो से बाहर आवाज़ लगाई तो दो कार वालों ने कार से ही पूछा. कार वालों ने ऑटो वाले को रोका, फिर और लोग आ गए और पुलिस भी.

हालांकि कॉन्सटेबल मेरी शिकायत सुनने के बजाय मुझे जल्द से जल्द घर जाने की सला
ह देता रहा. उसने कोई कदम उठाया या नहीं ये तो मुझे नहीं मालूम.

( बीबीसी हिंदी से साभार)

समाचार चैनलों पर ‘बलात्कार’ का ‘बलात्कार’

women molestation

दिल्ली में महिलाओं के साथ बदसलूकी की वारदातें लगातार घटती हैं। मीडिया में इस तरह की घटनाएं सुर्खियां बटोरती हैं। इस तरह की घटनाओं की रिपोर्टिंग करते हुए मीडिया में नियम हैं, पर संयम नहीं!

वारदात की शिकार महिला का नाम, पता, पेशा सब उद्घाटित करके बार-बार ‘बलात्कार’ और ‘गैंगरेप’ जैसे शब्दों को दोहरा-दोहरा कर कितने घंटों बलात्कार किया, कैसे किया –इनका सबका शाब्दिक वर्णन कर जैसे न थके हों तो फिर से पूरी घटना का नाट्य-रूपांतरण पेश करते हैं जैसे ये कोई घृणित पैशाचिक घटना नहीं कोई तमाशा हो!

जिस घटना को मीडिया से बताते हुए दिल्ली पुलिस की महिला ऑफिसर की जुबान कई बार रूकी और अंत में उसने इसके लिए ‘वारदात’ शब्द का प्रयोग किया , वहीं उत्पीड़ितों की आवाज़ होने का दावा करनेवाली मीडिया में इस तरह की जघन्य घटना हमेशा पोर्नोग्रैफिक-भाषा-बिंबों के जरिए बयान की जाती है।

इसे कहते हैं रक्षा में हत्या!

(दिल्ली विश्वविद्यलय में मीडिया और मॉस कम्युनिकेशन विभाग में अध्यापन कार्य कर रही सुधा सिंह के फेसबुक वॉल से साभार)

हेडलाइन टुडे इस बेहतरीन कवरेज के लिए बधाई का पात्र

“हेडलाइन टुडे चैनल” ने एक रिपोर्ट दिल्ली के शोहदों पर दिखाई, इस रिपोर्ट में दिखाया कि किस तरह पुलिस ने अभी भी सक्रियता नहीं दिखाई है और दिल्ली आज भी असुरक्षित शहर है औरतों के लिए।
इस चैनल की महिला संवाददाता के साथ छेड़खानी करने वाले तीन मनचले कैमरे में धरे गए और पुलिस देखती रही ,पुलिस वालों ने कोई एक्शन नहीं लिया, मनचले बदतमीजी करते रहे,बाद में उनको पता चला कि उनके इस कुकर्म को कैमरे में कैद कर लिया गया है तो भागे,लेकिनतब तक वे सभी कैमरे में कैद थे।
यह रिपोर्ट ऐसे समय आई जब संसद से सड़क तक दिल्ली में शोहदों के खिलाफ प्रतिवाद चल रहा था।
इससे यही पता चलता है कि दिल्ली के शोहदे किसी की परवाह नहीं करते।
हेडलाइन टुडे इस बेहतरीन कवरेज के लिए बधाई का पात्र है।
(प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी के फेसबुक वॉल से साभार)

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