इंडियन एक्सप्रेस ने बताया, अखबार के सामने बौने हैं न्यूज़ चैनल

india express report on surgical strike
सर्जिकल स्ट्राइक पर इंडियन एक्सप्रेस

ख़बरों की दुनिया में अखबारों के सामने टीवी न्यूज़ की हैसियत नासमझ बच्चे से ज्यादा कुछ नहीं. टीवी न्यूज़ का काम है उछलना,कूदना,शोर मचाना और कहीं मेला लगा हो तो भीड़ में शामिल होकर मेला देख आना. यदि ऐसा ना होता तो आज अखबारों की बजाए टीवी चैनलों पर बड़ी ख़बरें ब्रेक होती और तहलका मचाती.लेकिन न्यूज़ चैनल उस एग्रीगेटर की तरह हो गए हैं जहाँ वेब,टीवी और अखबार से ख़बरें जमा कर उसपर तड़का लगाकर ब्रेकिंग न्यूज़ की शक्ल में पेश कर दिया जाता है.तथ्यपरक और खोजी पत्रकारिता का ज़िम्मा अब भी अखबारों के ही हिस्से में है.चैनलों का काम अखबार की हेडलाइन मारकर बस अपनी हेडलाइन बना लेना भर है.यदि ऐसा न होता तो पिछले कुछ समय में की गयी लगभग सारी बड़ी ख़बरें अखबार के खाते में न गए होते. 

याद ही होगा कि शहाबुद्दीन की बगल में खड़े शूटर कैफ को भी एक अखबार ने ही ढूंढा था,बाद में तमाम चैनलों ने बस रायता फैलाया.सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी कुछ ऐसा ही माहौल ही था. उसमें इंडियन एक्सप्रेस ने ऐसी स्टोरी की फिर न्यूज़ चैनलों को अखबार की शरण में आना पड़ा.यानी एक बार फिर सिद्ध हो गया कि दो दशक बीतने के बावजूद न्यूज़ चैनलों के दूध के दांत अबतक नहीं टूटे हैं और ख़बरों के मामले में अखबारों के सामने उसकी हैसियत अब भी किसी बच्चे से ज्यादा नहीं.इसी मसले पर सोशल मीडिया पर आयी कुछ टिप्पणियाँ –

पुष्कर पुष्प -सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर न्यूज़ चैनलों पर बेहिसाब ख़बरें चली.लेकिन इंडियन एक्सप्रेस ने एक खबर छापी तो तहलका मच गया.अखबार की यही ताकत है और इसीलिए टीवी और वेब के ज़माने में भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने में कामयाब है.अफ़सोस हिंदी के अखबार ऐसा नहीं कर पाते. #MediaKhabar

Ambrish Kumar मीडिया में सबसे ज्यादा संशाधन निजी चैनलों के पास होता है वे किसी भी घटना पर फौरन विदेश पहुंच जाते है .ऐसे में अगर इंडियन एक्सप्रेस का पत्रकार एलओसी पार कर या बिना पार किए कवरेज कर सकता है तो चैनलों को पहले रिपोर्ट देनी चाहिए थी.वे क्यों चूक गए .कौन सा वीजा चाहिए था जो नहीं मिला उन्हें.एनक्रिप्टेड चैट सिस्टम की मदद तो वे भी ले सकते थे .पहचान भी नहीं बतानी थी .

Vishnu Rawal कमाल यहां ये भी है कि हिंदी भाषी इलाकों से अंग्रेजी के अखबार बड़ी खबर या ब्रेकिंग ढूंढ निकालते हैं। या तो हम हिंदी वाले आलसी हो गए हैं , या फिर अनुवादक भर बनकर रह गए हैं

Manish Thakur टीवी मीडिया का चरित्र गंभीरता वाला बन ही नहीं पाया। वजूद में आने के बाद ही टीवी पर हलके लोगो ने कब्ज़ा कर लिया क्योंकि गंभीर लोग कैमरे से डर गए। लफंदरो ने इसका फायदा उठाया यह साबित कर की टीवी में गंभीरता की जरूरत नही। खबर के नाम पर वह परजीवी बना कभी अख़बार का तो कभी सोशल मीडिया का। रही बात हिंदी अखबारों की तो वह कभी कुंठा से बाहर निकल ही नहीं पाया। चलिए कही तो पत्रकारिता हो रही है।

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