अशोक संड
पिछले कुछ दिनों से राजधानी के अखबारों (विशेषकर अंग्रेजी) का जो वजन दिख रहा है, उसे उठाने में लखनवी नजाकत वाली बालाओं की कलाइयां लचक जाएं। दीपावली पास आते ही इनकी सेहत लुभावने स्वादिष्ट विज्ञापनों को ठूंस लेने के चलते खासा तंदुरुस्त हो चली है। त्योहार के बाद इनका ‘मोटापा‘ न केवल छंट जाएगा, बल्कि ये पहले की तरह ही स्लिम-ट्रिम हो जाएंगे। इसके बावजूद हिंदी के अखबार अभी अपनी ‘कमनीयता‘ बनाए हुए हैं।
अपने नरेंद्र भाई हिंदी के लाख हिमायती हों, अंग्रेजी अखबार बांचना एक अभिजात्य-बोध करवाता है। टॉयलेट की सीट पर बैठ पढ़ने से यह अभिजात्य बोध द्विगुणित हो जाता है। निराला, पंत और महादेवी के नगरवासी इस बंदे का मन हिंदी अखबार में ही रमता है। संप्रति ‘प्रवासी‘ होने पर अंग्रेजी का ‘पेपर‘ छज्जे (सॉरी, बालकनी) पर बैठकर पढ़ना अलग फीलिंग देता है।
शिकायत इनकी तंदुरुस्ती से नहीं है (आखिर रद्दी में इजाफा हो ही रहा है), दिक्कत यह है कि कई पन्ने पलट डालिए, तब जाकर विज्ञापनों के बादलों के बीच खबर के सूरज झांकते नजर आते हैं। ऐसी घनघोर बदली में झुंझलाहट में किनारे रख देना पड़ता है अखबार। घर खरीदिए, कार खरीदिए, लेटेस्ट फोन खरीदिए, लैपटॉप बदलिए, जेवर और फर्नीचर भी सिर्फ दिवाली पर ही बिकते हैं। इस बार नई शामत घर के सीएफएल को फेंक एलईडी लगाने पर सारा जोर दिया जा रहा है। छूट का आतंक, सस्ते का ढिंढोरा और साथ ही ईएमआई का प्रलोभन। सेल का सैलाब। दिवाली का त्योहार त्योहार न हो, जैसे ‘हुदहुद‘ हो गया।
बंदा जब अंग्रेजी के मात्र अक्षर पहचानता था, तब दुकान पर कपड़े के बैनर पर अंग्रेजी के बड़े अक्षरों में एस..ए..एल..ई टंगा देखता, तो स्पेलिंग के मुताबिक ‘साले‘ पढ़ पाता। दीपोत्सव के निकट जगह-जगह दिखाई पड़ता यह शब्द न समझ में आता, न बाप-चाचा से पूछने की हिम्मत पड़ती। अब जब इसकी हकीकत समझ में आई है, तो जहां कहीं भी ‘सेल‘ नजर आता है, तो झट समझ में आ जाता है माल रियायत में ले जा ‘साले।‘ ‘सेल‘ के चक्कर में तबाही पैसों की… लक्ष्मी पास आने की बजाय दूर जाती दिखती हैं।
(साई फीचर्स)









