प्रिय विनोद कापड़ी,
आज यह खुला खत लिखने पर विवश हूं। आपकी पहल पर कल जो हुआ है वो किसी भी पत्रकार के लिए सपना हो सकता है। वह एक भावुक क्षण था। बहुत विशेष। बहुत-बहुत विशेष। मैंने कभी नहीं सोचा था कि किसी दिन मैं शो करके न्यूज़ रूम में दाखिल होउंगा, पूरा न्यूज़रूम खड़ा रहेगा और तालियों के साथ मेरी हौसलाअफज़ाई करेगा। यह दुर्लभ था। मैं पूरी रात सो नहीं सका। कई बार रोया और चुप हुआ। रह रहकर घूमती रहीं गीली आंखें। मेरे लेखन का इससे बड़ा पुरस्कार और पारितोषिक कुछ नहीं हो सकता। मेरे भीतर इस एहसास का प्रकाश भरने के लिए आभार और शुक्रिया एक निरर्थक शब्द है कि हम निमित्त मात्र नहीं हैं। अगर लोकतंत्र के खंभे हिलने लगें तो हमें नैतिकता की सीमारेखा को नए सिरे से परिभाषित करना होगा।
मुझे इस बात का गर्व है कि मैं उस टीम का हिस्सा हूं जो सीमित संसाधनों के बीच सोच के खांचे को तोड़ने का साहस रखती है। मुझे इस बात का गुमान है कि हम बनाई हुई लकीरों पर चलने की बजाए नए रास्ते भी ढूंढ रहे हैं। मुझे इस बात का गुरूर है कि हमने नए प्रयोगों के साथ अपनी प्रतिबद्धताओं का विस्तार किया है। मुझे यह भी मालूम है कि इसके अपने खतरे हैं, आलोचनाओं की अंधी हवा हमें खत्म कर देने की कोशिश करेगी। हमें घसीटने की कोशिश की जाएगी अदालतों में, आयोगों में और अनुकंपा पर रखे गए आदेशपालों के सामने। लेकिन हम इसका बिना किसी पूर्वाग्रह के सामना करेंगे। यह हमारी जीत या हार का प्रश्न नहीं है, सड़े हुए सामाजिक संदर्भों को समय के बहाव में रुककर देखने और अपने आपको बदलने की लड़ाई है।
विनोद कापड़ी, रविकांत मित्तल, निखिल, पारितोष.. ये लोग कुछ नाम नहीं हैं। प्रचंड आशावाद से भरे जुझारू योद्धा हैं । एक ऐसे दौर में जब हम नैतिकता के संवैधानिक संस्थानों को खत्म होते देख रहे हैं, उसे बचाने के लिए लड़ने की ललक के चेहरे हैं। आडंबरविहीन जिजीविषा। ये मौकों के मछुआरे नहीं हैं, मौजों के मल्लाह हैं जो किनारे से झांककर नहीं, मझधार के बीच में बैठकर तौल रहे हैं लहरों की ताक़त। यह मेरी खुशकिस्मती है कि मैं सोच की इस लड़ाई का छोटा ही सही लेकिन हिस्सा हूं। हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम के खिलाफ़..
अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे
तोड़ने होंगे मठ
और गढ़ सब
पहुंचना होगा
दुर्गम पहाड़ों के उस पार…
शुक्रिया विनोद कापड़ी, शुक्रिया रविकांत मित्तल.. इस समवेत संघर्ष का साझीदार बनाने के लिए.. वो तालियां अवचेतन में अभी भी वैसे ही गूंज रही हैं.. रुनझुन-रुनझुन.. झनक-झनक.. वैसे ही कायम है वह दृश्य.. शुक्रिया इस अबोध एहसास के लिए.. जैसे किनारा कह रहा हो
बांधो न नाव इस ठांव बंधु
पूछेगा सारा गांव बंधु !
‘बदायूं’ एक चौहद्दी का नहीं, एक घटना का भी नहीं, एक बदनाम सिलसिले नाम है। उसे बदलना ही होगा। इस उम्मीद को आकार देने के लिए दरके हुए हुए दायरों को तोड़ना पड़ा तो तोड़ेंगे..
मुझे नहीं पता
कि वो पहली औरत कौन थी
जिसे दहेज के लिए जलाया गया होगा
लेकिन जो भी रही होगी
मेरी मां रही होगी
मुझे यह भी नहीं पता
कि वो आखिरी औरत कौन होगी
जिसे दहेज के लिए जलाया जाएगा
लेकिन जो भी होगी
मेरी बेटी होगी
और ये मैं होने नहीं दूंगा
ये मैं होने नहीं दूंगा..
आपका,
नवीन
(नवीन कुमार न्यूज़ एक्सप्रेस में ही कार्यरत है और अपनी आवाज़ और दमदार स्क्रिप्ट के लिए जाने जाते हैं.कल नवीन ने बदायूं गैंगरेप पर स्टोरी की थी जिसकी काफी तारीफ़ हुई और चैनल के सीईओ विनोद कापड़ी ने इसे बेहतरीन स्क्रिप्ट बताया था)
(स्रोत-एफबी)