आनंद प्रधान
“…आप मानें या न मानें लेकिन यह तथ्य है कि २०१४ के चुनाव जितने जमीन पर लड़े जा रहे हैं, उतने ही चैनलों पर और उनके स्टूडियो में लड़े जा रहे हैं. सोशल मीडिया से ज्यादा यह न्यूज चैनलों का चुनाव है. केजरीवाल और मोदी की ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि गढ़ने में न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है. यह पहला आम चुनाव है जिसमें चैनल इतनी बड़ी और सीधी भूमिका निभा रहे हैं.
इसका अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि हर रविवार को होनेवाली मोदी की रैलियां जिनका असली लक्ष्य चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट के जरिये करोड़ों वोटरों तक पहुंचना है. आश्चर्य नहीं कि इन रैलियों की टाइमिंग से लेकर मंच की साज-सज्जा तक और कैमरों की पोजिशनिंग से लेकर भाषण के मुद्दों तक का चुनाव टी.वी दर्शकों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है.
चुनावी दंगल में इस बढ़ती और निर्णायक भूमिका के कारण ही चैनल नेताओं और पार्टियों के निशाने पर आ गए हैं. इसके जरिये चैनलों पर दबाव बनाने और उन्हें विरोधी पक्ष में झुकने से रोकने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इसके लिए काफी हद तक खुद चैनल भी जिम्मेदार हैं. सच यह है कि चैनल खुद दूध के धोए नहीं हैं….”
(स्रोत-एफबी)