शब्दों के कई मतलब होते है. यह समय, परिस्थिति और उसके प्रयोग पर निर्भर करता है. ठीक उसी तरह अलग – अलग प्रतीकों का अपना – अपना महत्त्व होता है. एक प्रतीक से दूसरे प्रतीक की तुलना गैरवाजिब है. आज जब अफजल गुरु को फाँसी दे दी गयी तो समाचार चैनलों पर सुबह से ही ख़बरें चलनी शुरू हो गयी. चूँकि मामला संसद भवन पर हमले का था तो संसद का जिक्र आना लाजमी था और इसमें कोई बुराई भी नहीं. लेकिन बाद में चैनलों पर लोकतंत्र के प्रतीक के लिए ‘मंदिर’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा. मीडिया विश्लेषक ‘विनीत कुमार’ ने इसे गैरवाजिब करार देते हुए कुछ टिप्पणियाँ की हैं जिसे सवाल की शक्ल में हम यहाँ पेश कर रहे हैं :
संसद को लोकतंत्र का मंदिर क्यों ?
चैनलों ने दिनभर संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा, जी हां मंदिर. मस्जिद नहीं, न ही गिरिजाघर और प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए गुरुद्वारा. क्या संसद के लिए मंदिर का प्रयोग सही है. मेरे ख्याल से लोकतंत्र की जमीन इसी तरह के रुपक से कमजोर होती है. आखिर हमारे मीडियाकर्मी धार्मिक शब्दों के प्रयोग से अलग क्यों नहीं सोच पाते, उनकी परवरिश क्या इस तरह से हुई है कि जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, सब हिन्दुओं का है ?
आप दिल्ली मेट्रो की शुरुआत नारियल फोड़कर करोगे, पुल बनाने पर अनुष्ठान करोगे, संसद को मंदिर कहोगे और फिर कहोगे कि ये दिल्ली सबकी है, ये देश सबका है..कैसे आश्वस्त हो जाएगा कोई भाई..आप भाषा के स्तर पर ही हक छीन ले रहे हो तो वास्तविक दुनिया में क्या करोगे, पता नहीं .
कभी-कभी तो लगता है एकाध को छोड़कर पूरे के पूरे न्यूज चैनल ही आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद् हो गए हैं..राष्ट्र के नाम पर उसी तरह के हिन्दू राष्ट्र के जुमले इस्तेमाल करने लगते हैं जो केशव कुंज में किए जाते हैं.
संसद को तो सुबह से चैनलों ने ऐसे बना दिया है जैसे सड़क पर पड़ी किसी की लावारिस जूती हो. मार, हर एंगिल से धक्का दिए जा रहे हैं. माना कि इस पर आतंकवादी हमले हुए लेकिन इसे इतना भी मत घसीटो यार कि लगे ये देश की संसद नहीं आपके गांव के मोहल्ले में दो कमरे का पुश्तैनी मकान था जिसे कि आपके चचरे भाईयों ने कब्जा लिया.