राहुल देव
ऐसा नहीं कि सभी हिन्दी एंकर अंग्रेजी माध्यम में पढ़े हुए हैं और अंग्रेजी की पृष्ठभूमि से आए हैं। अधिकांश हिन्दी पृष्ठभूमि और माध्यम के हैं। संपादकों का भी यही सच है। गिने चुने ही अंग्रेजी के हैं। लेकिन कई बड़े विचारवान, अन्यथा गंभीर संपादक भी अपनी मूल भाषा, अपने चैनल की भाषा की गरिमा, शील और प्रतिष्ठा के प्रति अगंभीर, उदासीन दिखते हैं। वे भी अपने आप पर पड़े अंग्रेजी-ज्ञानी दिखने के व्यापक दबाव के असर को देख नहीं पाते शायद। यह दबाव हर हिन्दी वाला महसूस करता है। जो सजग हैं वे बच जाते हैं। जो अपने भाषा-व्यवहार में अचेत हैं, कहीं उसी हीनता बोध से ग्रस्त हैं वे नहीं बच पाते।
कुछ एंकर ऐसे भी मिले जो सचेत होना ही नहीं चाहते। वे जिस हिन्गलिश के अभ्यस्त हो गए हैं उसे छोड़ना नहीं चाहते, खुद को बदलना नहीं चाहते। उसकी जरूरत ही महसूस नहीं करते। कुछ ऐसे हैं जो टोके जाने पर चिढ़ जाते हैं। टोके जाना किसी को अच्छा नहीं लगता। मुझे भी। पर यह हमारे ऊपर है कि टोके जाने पर हम उसके कारण को तटस्थ होकर देख सकते हैं, उसपर विचार कर सकते हैं और यूं अपने को बेहतरी के लिए बदल सकते हैं या सिर्फ अपने अहंकार के आहत होने पर जिद करके वही काम करने लग जाते हैं।
एक सामूहिक समस्या यह भी है कि अधिकांश टीवी न्यूज़रूमों में, चैनलों की संपादकीय नीतियों में सही हिन्दी लिखने, बोलने और भाषा के दूसरे गंभीर पक्षों पर कोई ध्यान और ज़ोर नहीं दिखता। जहां संपादक ही घोर हिन्ग्लिश बोलते हैं वहां, ज़ाहिल है, ऐसी किसी भाषा नीति, नियम और संवेदनशीलता की उम्मीद करना नादानी ही होगी।
ऐसे अपने सभी मित्रों से विनम्रता के साथ सिर्फ एक बात कहना चाहता हूं — आपकी हमारी और आपके चैनलों की पहचान, उनके अस्तित्व का आधार हिन्दी है। आप हिन्दी पत्रकार और हिन्दी चैनल के रूप में ही जाने जाते हैं। इसलिए आपकी हिन्दी अच्छी होगी, सिर्फ हिन्दी होगी तो आपकी निजी और आपके चैनल की ही प्रतिष्ठा बढ़ेगी। आप बाजारू हिन्ग्लिश बोल-लिख कर अपनी ही पहचान को मटमैला और बाजारू कर रहे हैं।
ज़रा अंग्रेजी चैनलों के संपादकों, संवाददाताओं, एंकरों का भाषा-व्यवहार देखिए। क्या वह अपनी अंग्रेजी में हिन्दी या दूसरी भारतीय भाषाओं के शब्द, वाक्यांश, वाक्य, अभिव्यक्तियां मिलाते हैं जैसे हम?
क्या हम उनसे कमतर, कमज़ोर और हीन हैं?
(वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव के एफबी वॉल से )