-संजय द्विवेदी
माओवादी आतंकवाद के विकृत स्वरूप पर बौद्धिक विमर्शों का समय अब निकल गया है। आईएसआई, कश्मीर में सक्रिय आतंकी संगठनों, नेपाल के माओवादियों और बंग्लादेश के रास्ते जाली करेंसी, अवैध हथियार लेने वाले इन नरभक्षियों के दिखावटी जनयुद्ध की बकवास पर चोंचें लड़ाने के बजाए इस आतंकी अभियान से निर्णायक जंग लड़ने का समय अब आ गया है। बस्तर के सुकमा जिले की दरभा घाटी में शनिवार की शाम माओवादियों ने जो कुछ किया अब उसके बाद हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र को समझ लेना चाहिए कि भ्रष्ट राजनीति और निकम्मी नौकरशाही की सीमाएं क्या हैं। लोकतंत्र को बचाने के लिए हमें क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है उसकी यह एक मिसाल है।
नीचता और मनोविकारी विचारधारा के पोषक माओवादियों ने जिस अंदाज में समर्पण करने के बाद पूर्व सांसद महेंद्र कर्मा और छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल व उनके बेटे की हत्या की, वह उनके वहशीपन को उजागर करने के लिए काफी है। ऐसे लोगों के लिए टीवी चैनलों पर कुछ भगवाधारी और कथित बुद्धिजीवी कैसे तर्क दे रहे हैं कि उन्हें सुनना भी पाप है। नक्सली तो यही चाहते हैं कि सरकारी और सियासी तंत्र उनके इलाकों से दूर रहे और वे मनचाहा जंगल राज चलाते रहें।
नासूर बना माओवादः
आज जबकि माओवाद एक नासूर के रूप में देश की रगों में फैल रहा है, देश के 17 राज्य और 200 जिले इसकी चपेट में हैं, हमें यह सोचना चाहिए कि आखिर इस जंग में कौन जीतेगा? क्या भारतीय राज्य ने इन नरभक्षियों के आगे समर्पण कर दिया है? अगर कर दिया है तो किस मुंह से हम सुपरपावर होने के नारे दे रहे हैं? यही समय है कि हम इस संकट को इसके सही अर्थ में पहचानें और उसके त्रिस्तरीय समाधान के लिए एक राष्ट्रीय कार्ययोजना बनाएं। इस समस्या से सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और कानून-व्यवस्था तीनों मोर्चों पर लड़ना होगा। हमें उन लोगों की भी पहचान करनी होगी जो माओवादियों को विचारधारात्मक आधार पर मदद कर रहे हैं। शहरों में उनके टुकड़ों पर पल रहे कुछ बुद्धिजीवी,पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं का बाना ओढ़कर इस देश के लोकतंत्र को कमजोर करने में लगी ताकतों को भी हमें बेनकाब करना होगा।
कैसे जीत रहे हैं भरोसाः
यह घोर चिंता का विषय है कि माओवादी किस तरह आम आदिवासियों के बीच अपनी घुसपैठ बना चुके हैं। वे चाहते हैं कि विकास की रोशनी उन तक न पहुंचे। सरकारी तंत्र और राजनीतिक कार्यकर्ता उनके इलाकों तक न जाएं। सुकमा में हुआ हमला इसकी एक नजीर है कि माओवादी चाहते हैं कि कोई राजनीतिक पहल उनके इलाकों में न हो। नंदकुमार पटेल शायद इसलिए उनके एक नए शत्रु बनकर उभरे क्योंकि वे बस्तर इलाके में निरंतर प्रवास करते हुए एक राजनीतिक पहलकदमी को जन्म दे रहे थे। महेंद्र कर्मा से उनकी अदावत तो समझी ही जा सकती है। माओवादी अपने प्रभाव वाले इलाकों को सरकारी और सियासी हस्तक्षेप तथा विकास की गतिविधियों से काटकर आदिवासियों के रहनुमा बनना चाहते हैं। यह साधारण नहीं है कि जब कोई ऐसी पहल होती है जिसमें लोग आदिवासियों से संवाद की कोशिशें करते हैं तो माओवादियों में घबराहट फैल जाती है। सलवा जूडूम से लेकर कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के खिलाफ माओवादियों का गुस्सा इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। सलवा जूडूम के कथित अत्याचारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट से लेकर दुनिया भर में हाय-तौबा मचाने वाले मानवाधिकारवादी, उनके वकील और बुद्धिजीवी इस समय कहां हैं। वे “माओवादी हिंसा, हिंसा न भवति” के सूत्र पर काम करते हैं। वे राज्य की हिंसा पर आसमान उठा लेने वाले माओवादियों की रक्त क्रांति की रूमानियत पर मुग्ध हैं। किंतु अफसोस लड़ने और मारने वालों में उनका कोई परिजन नहीं होता, वरना शायद उनका रोमांटिज्म कुछ टूटता। भय का व्यापार कर रहे माओवादी एक संगठित,सुविचारित, रणनीतिक शैली में काम कर रहे हैं। उन्होंने अपने लक्ष्य कभी छिपाए नहीं। वे साफ कहते हैं कि वे 2050 में भारतीय राजसत्ता पर बंदूकों के बल पर कब्जा कर लेगें। उनके तौर-तरीके गुरिल्ला वार के हैं और अमानवीय हैं। किंतु कुछ लोग किस आधार पर इन नरभक्षियों के मानवाधिकारों की बात करते हैं इसे समझना कठिन ही नहीं, असंभव है। यह मानना होगा कि सामान्य परिस्थियों में जो मानवाधिकार संरक्षित किए जाते हैं, वही युद्ध की परिस्थितियों में नहीं रह जाते। माओवादी इलाके एक असामान्य परिस्थितियों से घिरे हैं। हम जिनके मानवाधिकारों की बात कर रहे हैं क्या वे मानव रह गए हैं? या हम राक्षसों और नरभक्षियों के लिए मानवाधिकार मांग रहे हैं?
सच तो यह है कि हम माओवाद को एक राष्ट्रीय समस्या मानकर इसके समाधान के लिए निर्णायक प्रयास प्रारंभ करने के बजाए तू-तू-मैं-मैं में लगे हैं। राजनैतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करने के बजाए ऐसी घटनाओं के भी छुद्र राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिशें करते हैं।
क्या करें राजनीतिक दलः
राजनीतिक दलों के बारे में देशवासियों की राय अच्छी नहीं है तो इसके लिए वे स्वयं भी जिम्मेदार हैं। इस बात की चर्चाएं आम हैं चुनाव जीतने के अनेक राजनेता माओवादियों की मदद लेते हैं। उनको धन उपलब्ध कराते हैं। अगर यह सच है तो डूब मरने की बात है। किंतु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आजतक किसी राजनीतिक दल ने उनकी आतंकी गतिविधियों का समर्थन नहीं किया। यानि हिंसा के खिलाफ सभी प्रमुख राजनीतिक दल एक हैं। यह एक आधार है जहां हमें साथ आना चाहिए। एक लोकतंत्र में रहते हुए हम किसी तरह के अतिवादी, आतंकवादी स्वरूप को समाज में स्थापित नहीं होने देंगें। इसे एक वैचारिक संघर्ष मानकर हमें आगे बढ़ना होगा। राजनीतिक दलों को इस आरोप को झुठलाना होगा कि वे माओवादियों का राजनैतिक इस्तेमाल करते आए हैं। आंतरिक सुरक्षा के जानकारों के साथ बैठकर राजनीतिक दलों को एक राष्ट्रीय प्लान बनाना होगा। इस योजना पर लंबी और दीर्धकालिक रणनीति बनाकर अमल करना होगा। किंतु अफसोस यह है कि दिल्ली की यूपीए सरकार अपने ही अंतर्विरोधों से घिरी है, उसमें एक दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव भी दिखता है। ऐसे में चुनाव बाद आने वाली किसी भी सरकार के सामने यह संकल्प स्पष्ट होना चाहिए कि माओवाद को समाप्त करने के लिए वह एक निर्णायक जंग छेंड़ें। क्योंकि उस सरकार के पास समय भी होगा और आत्मविश्वास भी। हमें यह मान लेना चाहिए कि यह समस्या राज्यों के बस की नहीं है। केंद्र और राज्यों का समन्वय बनाकर एक साझा रणनीति ही इसका समाधान है।
राजनीति नहीं समझदारी की जरूरतः
केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा इस मुद्दे पर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से बातें बनने के बजाए बिगड़ेंगीं। छत्तीसगढ़ में घटी इस घटना के बाद भी इस तरह की राजनीति शुरू की गयी और माहौल का राजनीतिक लाभ उठाने,वातावरण को बिगाड़ने के जत्न शुरू किए गए। किंतु कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व और राहुल गांधी को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि उन्होंने पूरे मामले को बिगड़ने से बचा लिया। यह भी एक बड़ी बात थी श्री राहुल गांधी शनिवार की रात को ही रायपुर पहुंचे उससे कार्यकर्ताओं को उत्तेजित करने के प्रयासों में लगे कुछ लोगों को निराशा ही हाथ लगी। रविवार सुबह रायपुर पहुंचकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और श्रीमती सोनिया गांधी ने जिस तरह विषय को संभाला उसके लिए कांग्रेस नेतृत्व को बधाई दी जानी चाहिए। दरअसल राष्ट्रीय संकट के समय हमारा यही चरित्र ही हमारी ताकत है। अब राजनीतिक दलों को यह तय करना पड़ेगा कि माओवाद के खात्मे के बिना आप इन इलाकों में विकास नहीं कर सकते। यह घटना एक अवसर भी है हम उस दिशा में बढ़ सकें, क्योंकि हर संकट एक अवसर लेकर भी आता है। राजनीतिक दल अगर इसे पहचान कर इस संकट से उठे प्रश्नों का समाधान ढूंढ सकें तो बड़ी बात होगी।
कैसे होगा विकासः
यह विडंबना ही है कि 11 पंचवर्षीय योजनाएं चलाकर भी हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से की जिंदगी में हम उजाला नहीं ला सके। गरीबी आज भी बनी हुयी है। नई आर्थिक नीतियों ने आदिवासियों और निर्बल लोगों के हिस्से और अँधेरा परोसा है। हमें सोचना होगा कि जनजातियों में इतना आक्रोश क्यों है? क्योंकि यह आक्रोश अकारण भी नहीं है। आज जनजातियों को यह लगता है कि पटवारी से लेकर कलेक्टर तक सब उसके जल, जंगल और जमीन को हड़पने के लिए आमादा हैं। इस भावना को कैसे तिरोहित किया जा सकता है, इस पर विमर्श की जरूरत है। यह तंत्र जिसको भ्रष्टाचार का दीमक लगातार चाट रहा है कैसे यह भरोसा दिला पाएगा कि वह जनजातियों और कमजोर लोगों के साथ है? विकास के प्रकल्पों और उद्योग-धंधों के नाम पर देश में 6 करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं। इन जमीन से उखड़े हुए लोगों के लिए हमारे पास क्या समाधान है? जाहिर तौर पर व्यवस्था के प्रति नाराजगी काफी गहरी है और ये स्थितियां आतंकी माओवादियों के जड़ें जमाने में मददगार हैं। आज हालात यह हैं कि सरकारी तंत्र चाहे भी तो माओवादी आतंक के चलते इन इलाकों में विकास के काम नहीं कर सकता। इसलिए जरूरी है कि हम इलाकों को पहले माओवादियों से खाली कराएं, उन पर भारतीय राज्य का कब्जा हो और तब विकास व सृजन की बात हो पाएगी। सही मायने में यह समस्या एक विचार से जुड़े लोगों की सोची- समझी साजिश तो है ही, साथ ही कुशासन और भ्रष्टाचार इसे बढाने का काम कर रहे हैं। यह हमारी आंतरिक समस्या है जो हमारे कुशासन, निकम्मेपन, लालचों, रक्त में घुस चुके भ्रष्टाचार के चलते ही गहरी हुयी है। नक्सली भी इसी भ्रष्टाचार के सहारे फल-फूल रहे हैं। वरन क्या कारण है कि उन तक विदेशी हथियार, अत्याधुनिक तकनीक और खान-पान का सामान आसानी से पहुंच रहा है। हमारे ही नेताओं, अधिकारियों, पूंजीपतियों की मदद से वे अपना कथित जनयुद्ध चला रहे हैं। अकेले छत्तीसगढ़ में वे 600 करोड़ की लेवी सालाना वसूल रहे हैं और इस पैसे से भारतीय नागरिकों की ही बलि ले रहे हैं। यह कहने में संकोच नहीं है कि माओवादी लेवी वसूली, अपहरण, महिलाओं का शोषण, आदिवासियों के विकास के विरोधी, भारतीय राज्य के शत्रु, अवैध हथियारों के तस्कर और अत्याचार का दूसरा नाम हैं। ऐसे लोगों के प्रति सहानुभूति के बोल रहे लोग क्या देश के शत्रु नहीं हैं? जिनकी इस लोकतंत्र में सांसें घुट रही हैं वे क्या कथित माओवादी राज में चैन ले सकेंगें? सच तो यह है कि माओवादी राज किसी भी बुरे से बुरे लोकतंत्र से बुरा होगा। लाखों चीनियों की हत्याओं पर खड़ा माओवाद, स्टालिनवाद का चेहरा तो अमानवीय नहीं, वीभत्स भी है। चीन ही नहीं पूरी दुनिया इस विचार से पल्ला झाड़ चुकी है। ऐसे हिंसक और अमानवीय विचारों के लिए भारतीय जमीन पर कोई जगह नहीं है, यह माओवादी समर्थकों को मान लेना चाहिए। नई दुनिया में लोकतंत्र सबसे लोकप्रिय विचार है और इसके दोषों को दूर करते हुए हमें एक नया भारत बनाने की ओर बढ़ना होगा।
आतंकवाद और माओवाद को अलग करेः
यह कहा जा रहा है कि आतंकवाद और माओवाद दोनों एक हैं। इसे अलग करके देखने की जरूरत है। वैश्विक आतंकवाद के मुहाने पर तो हम हैं किंतु माओवाद एक आंतरिक समस्या है, जिससे जरा सी सावधानी से निपटा जा सकता है। माओवाद से आप सुशासन और भ्रष्टाचार पर थोड़ी लगाम लगाकर निपट सकते हैं किंतु वैश्विक आतंकवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं और उनके इरादे अलग हैं। हमें यह मानना ही होगा अब समय आ गया है कि हम माओवादी के खूनी पंजे से अलग नहीं हुए तो यह हमारे लोकतंत्र को खा जाएगा। रेड कारीडोर बनाकर खून की होली खेल रहे माओवादियों के खिलाफ हमने यह निर्णायक जंग आज प्रारंभ न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)