एनडीटीवी पर एक दिन के लिए लगाए जानेवाले बैन के फैसले से सरकार ने अपने हाथ पीछे खींच लिए हैं. हम सरकार के इस फैसले का स्वागत करते हैं. ये फैसला इस बात का संकेत है कि सरकार अभी भी जन दवाब को महसूस कर पा रही है, उसे महत्व दे रही है और ये समझती है कि जनतंत्र में इसकी अपनी ताकत है.
इस फैसले से एनडीटीवी की जिम्मेदारी पहले से कहीं अधिक बढ़ जाती है. उसे पहले की अपेक्षा अपने नागरिक दर्शकों के प्रति और अधिक जवाबदेह होना होगा. उसे उनकी जरूरतों, पक्षों एवं सवालों को और अधिक मजबूती से सामने रखना होगा. उसे ऐसी रिपोर्टिंग करनी होगी जो एक सामान्य नागरिक दर्शक की बौद्धिक क्षमता और हैसियत को मजबूत करे. ऐसा इसलिए भी कि जीरो टीआरपी या कहें कि टीआरपी लिस्ट से बाहर इस चैनल के प्रति लोगों ने समर्थन देकर ये जतला दिया कि उनका होना हमारे लिए मायने रखता है. लेकिन इन सबके बीच मैं ये भी देख रहा हूं कि जो लोग एनडीटीवी के पक्ष में खड़े हुए हैं वो सरकार के इस फैसले के बाद से उनका अलग-अलग तरीके से मजाक उड़ा रहे हैं. कुछ की भाषा बेहद आपत्तिजनक है. ऐसे में वो अपनी सद्इच्छा के बावजूद उसी लंपटता के शिकार हो जा रहे हैं जिनके प्रतिरोध में खड़े होने का दावा पेश करते हैं.
प्रतिरोध की आवाज सर्टिफिकेट की आवाज नहीं होती है. वो उस अन्तर्रात्मा की आवाज होती है जो मनुष्यता का, बेहतरी का पहले से और अधिक विस्तार दे. दमन, अन्याय के प्रतिरोध में खड़े होने के बावजूद भाषा के स्तर पर ही सही यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो ऐसा प्रतिरोध निरर्थक है. सरकार के इस फैसले के बाद हमें एनडीटीवी को भी ये संदेश देने की जरूरत है कि आगे किसी भी मसले पर जनतंत्र में अन्याय के प्रति होनेवाले प्रतिरोध को अगर चैनल नजरअंदाज करता है तो हम उतनी ही मजबूती से उससे असहमत होंगे. हमने किसी चैनल को नहीं बल्कि उन प्रवृत्तियों का साथ दिया जिनमे जनंत्र के बचे रहने की संभावना दिखाई पड़ी.
हमें चाहिए कि हम जिस बात के प्रतिरोध में खड़े हैं, उसकी तासीर का भी ख्याल रखें. सरकार से चूक हुई है और उसने फैसले वापस लिए हैं, भले ही ऐसा दवाब के कारण हुआ हो..हमें चाहिए कि हम इसे इस रूप में लें कि इस फैसले पर ऐसी आवाजें आए, ऐसे वक्तव्य आए कि जनतंत्र के दायरे का विस्तार हो..किसी को बकलोल साबित करने से पहले उसी दायरे में उलझ जाना कहीं ज्यादा बड़ी बेवकूफी है. इस प्रसंग को भक्त की हार, भाजपाईयों के मुंह पर तमाचा आदि कहना जनतंत्र के स्वर को विद्रूप कर देना है.