भारतीय प्रेस परिषद (पीसीआई) के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू वैसे तो विवादों में रहते हैं…..पर कभी कभी अच्छा काम भी करते हैं ….उचित योग्यता के अभाव की वजह से देश में खबरों की गुणवत्ता प्रभावित होने की बात कहते हुए काटजू ने पत्रकार बनने के लिए जरूरी न्यूनतम योग्यता की सिफारिश की है.. इसके लिए उन्होंने एक समिति गठित की है। पीसीआई के सदस्य श्रवण गर्ग और राजीव सबादे के अलावा पुणे विश्वविद्यालय के संचार एवं पत्रकारिता विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. उज्ज्वला बर्वे को समिति में शामिल किया गया है। पत्रकार बनने के लिए योग्यता की बात तो ठीक है पर क्या जो मीडिया संस्थान छात्रों को बड़े बड़े सपने दिखाकर एंकर और रिपोर्टर बनाने का दावा करते हैं…उनकी क्षमता का भी ईमानदारी से आकलन होगा ?
आज की तारीख में हर बड़े शहर की गली गली में खुले मॉस कॉम के इंस्टीट्यूट ( जो सिर्फ कागजों पर ) शत प्रतिशत प्लेसमेंट के झूठे दावे करते हैं…उन पर लगाम कौन लगाएगा….जिस तरह से बीएड के लिए एनसीटीई, इंजीनियरिंग के लिए एआईसीटीई, मेडिकल काउंसिल और बार काउंसिल जैसी संस्थाएं हैं…वैसे ही मीडिया एजुकेशन के लिए भी तो कोई रिगुलेटरी एथॉरिटी बननी चाहिए जो देश भर के मीडिया स्कूलों की मान्यता, पत्रकारिता के पाठ्यक्रम की समानता और मीडिया फैकल्टीज के लिए अनुभव और योग्यता के मानक स्थापित करे और उनकी निगरानी करे…पर बड़ा सवाल क्या सरकार ऐसा कुछ करेगी…क्योंकि सूचना प्रसारण मंत्रालय तो चैनलों पर लगाम लगाने वाले बिल की तैयारी में जुटा है…..
काटजू साहब को इतने दिन बाद ऐसा लगा है कि पत्रकारों के लिए भी योग्यता तय होनी चाहिए..जो काम उन्हें बहुत पहले करना चाहिए..वे अब कर रहे हैं …खैर देर आए दुरुस्त आए…पर क्या न्यूनतम योग्यता तय होने भर से ही मीडिया में करियर बनाने वाले छात्रों को नौकरी मिल जाएगी… यहां तक कि आईआईएमसी औऱ जामिया से पढ़कर आए छात्रों को भी आसानी से मीडिया में नौकरी नहीं मिलती….तो फिर प्राइवेट मीडिया इंस्टीट्यूट्स के छात्रों को जॉब कैसे मिलेगी….हकीकत ये है कि किसी भी न्यूज चैनल में रिक्रूटमेंट का कोई प्रॉपर मैकेनिज्म ही नहीं है…सिर्फ जुगाड़ टेक्नोलॉजी से ही जॉब मिलती है…न्यूज 24, एनडीटीवी, आज तक जैसे ज्यादातर चैनलों के अपने इंस्टीट्यूट्स हैं जो लाखों की फीस लेकर अपने छात्रों को नौकरी देने का आश्वासन देते हैं पर सच ये है कि यहां से पढ़े हुए हर छात्र को नौकरी नहीं मिलती…
दरअसल टीवी के ग्लैमर से प्रभावित होकर हजारों छात्र मीडिया में अपना करियर बनाना चाहते हैं…इसके लिए छात्र लाखों रुपए खर्च करके मीडिया का कोर्स करते हैं लेकिन जब उन्हें नौकरी नहीं मिलती तो वे हताश और निराश होते हैं…ऐसे में छात्रों के सामने टेंशन ही टेंशन होती है…पहले तो अच्छे मीडिया स्कूल में एडमिशन की टेंशन, फिर जॉब मिलने की टेंशन और अगर जॉब मिल भी गई तो उसे बचाए रखने की टेंशन…..नौकरी की असुरक्षा की भावना ऐसे नए जोशीले और कुछ कर दिखाने की तमन्ना रखने वाले छात्रों का मीडिया से मोह भंग हो जाना स्वाभाविक है….ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया में रिक्रूटमेंट का फ्री एंड फेयर प्रॉपर मैकेनिज्म सिस्टम डिवलप किया जाय….पर क्या काटजू जी इस मैकेनिज्म को डिवलप करवा पाएंगे….?
( लेखक अरुणेश कुमार द्विवेदी ई.टीवी न्यूज, साधना न्यूज, सीएनईबी न्यूज़, ज़ी न्यूज़ और आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग में काम कर चुके हैं, वर्तमान में वे मंगलायतन विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में प्रवक्ता हैं. )
lekhak ek hi hai..fir bhi unhe khyal rakhna chahie ki ek hi matter do pratidwandi sites pr na jaae
बर्तमान पत्रकारिता में आजादी के पूर्व के पत्रकारों के जीवन व उनके द्वारा की गई पत्रकारिता को शामिल किया जा सकता है. इतिहास के पन्ने पलटने से नुक्सान नहीं लाभ ही होता है. आज इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता का अपने महत्व है लेकिन प्रिंट पत्रकारिता के विन भी आम आदमी रह नहीं सकता .संतोष गंगेले