दिल्ली की मीडिया पर पुण्य प्रसून बाजपेयी का हल्लाबोल
तो ये सच शुरू होता है दिल्ली के एक सितारा होटल में चाय पीते दो पत्रकार और ठीक सामने के टेबल पर बैठे चंद अनजान से चेहरों की नजरों के टकराने से । नजरें टकराती है और अनजान सा शख्स मुस्कुरा कर संकेत देता है कि वह पत्रकारों को पहचान रहा है । पत्रकार कोई रुचि नहीं दिखाते । अपनी अपनी बातो में मशगूल दोनों के ही टेबल पर चाय की चुस्कियो के साथ चर्चा के केन्द्र में राजनीति ही थी । तो किसी एक टेबल पर चर्चा की जरा सी खामोशी दूसरे टेबल के चंद शब्द को एक दूसरे के कानो में घोलती ही होगी । यह एहसास दोनों टेबलों पर बैठे लोगों को हो चुका था। राजनीति से प्रिय विषय इस दौर में कुछ हो नहीं सकता । खास कर राजनीतिक अर्थशास्त्र । और इस पॉलिटिकल इक्नामी को लेकर अगर कही बहस मुहासिब हो रही है तो फिर लंबा वक्त भी नहीं लगता कि संवाद नजरों के टकराने भर का ना रहे। हुआ भी यही। पत्रकारों की टेबल के सामने जो चर्चा कर रहे लोग बैठे थे । उनमे से एक ने चाहे-अनचाहे टेबल छोड़ कर जाते दोनों पत्रकारों में से एक पत्रकार को जानते–पहचानते हुये कहा , हुजूर कभी जरुरत हो तो बताइयेगा । हम भी खबर रखते हैं। ये कहते हुये उसने अपना कार्ड निकाला । और थमा दिया । पत्रकार ने खुद का परिचय देते हुये कहा मैं …….. । एवरीबडी नोज यू सर । और आप…. जी भारत सरकार का कारिन्दा । नाम । जी कार्ड । और पत्रकार महोदय अपने अंदाज में कार्ड अपनी पेंट की जेब में डाल कर होटल से निकल गये । बात आई गई हो गई । पत्रकारिता के लिये नया कुछ भी नहीं था । कमोवेश हर सार्वजनिक जगहो पर अक्सर कुछ लोग उससे टकराते जो अपना कार्ड ये कहकर देते कि उनके पास बड़ी खबर है ।
लेकिन पहली बार भारत सरकार का कोई नौकरशाह अगर कार्ड देकर कहे…खबर हम भी रखते हैं तो मामला गंभीर तो है। और फिर यार उसके बाद मुलाकातों को सिलसिला । जिसके बाद भी नौकरशाह ने जब खबर बतायी तो पहला सवाल मेरे जहन में यही कौंधा …छापेगा कौन । और उसी के बाद से खबर मेरे पास है लेकिन इस दौर में कोई खबरनवीस या कोई मीडिया संस्थान इतनी हिम्मत दिखा नहीं पाया कि उसमें हिम्मत है ।
अरे याद जल्दबाजी में बता नहीं पाया ये मेरे साथी हैं। हम दोनों साथ ही स्कूल-कालेज में थे । लेकिन बाद में रास्ते जुदा हो गये । लेकिन सोच जुदा हो नहीं पायी । आज ही लंदन से लौटे हैं। मैंने तुमसे मिलने का जिक्र किया तो ये साथ ही आ गये । वैसे मैंने इन्हे पूरी कहानी तुम्हारे पास आते वक्त रास्ते में ही बातो बातो ही बता दी।
तो आज शनिवार का दिन था । और मुझे फुरसत थी । पिछली मुलाकत में बात खबर की निकली थी और मेरी रुचि थी कि आखिर ऐसी कौन सी खबर है जिसे दिल्ली का स्वतंत्र मीडिया छापने से कतरा रहा है या फिर स्वतंत्रता की परिभाषा मौजूदा दौर में बदल गई है । इसलिये आज की मुलाकात हमने दिल्ली के बंगाली मार्केट में तय की थी । लेकिन जब मित्र ने अपने दोस्त के बारे में बताया तो मुझे भी समझ नहीं आया कि कितनी बातचीत खुले तौर पर होने चाहिये । लेकिन खबर जानने की ललक में मैंने मित्र के बचपन के साथी की तरफ कम रुचि दिखाते हुये सवाल किया कि . यार तुम दस्तावेज लाये हो तो दिखाओ । मैं भी तो देखूं-समझूं की क्या वाकई मीडिया की उड़ान परकटे राजनेताओं को साधने की ही हो चली है या जो उड़ान भर रहे हैं, उनके पर भी कतरे जा सकते है । देखो यार किसी के पर कतरने की सवाल नहीं है । और मैं तुम्हें इसीलिये दस्तावेज देने से कतराता हूं कि तुम समूचे वातावरण का आकलन किये बगैर ही ब्लैक एंड वाइट में ही सबकुछ देखना दिखाना चाहते हो । तो क्या करें । पत्रकारिता छोड दें । छोड़ने की जरुरत नहीं है । समझने की जरुरत है । और यही बात मैं भी रास्ते में कर रहा था। क्यों तुम बताओ तुम्हारा क्या मानना है । अच्छा तुम्हारे दोस्त कुछ बोले उससे पहले मैं ही जरा एक सवाल कर लेता हूं । …यार ये बताओ कि तुम्हारा ठिकाना लंदन में है । लेकिन मिजाज तुम्हारे भी राजनीति और पत्रकारिता में रुचि रखने वाले हैं । तो अगर ये स्टोरी बीबीसी को मिल जाये तो वह क्या करता । कुछ क्षणों के लिये सन्नाटा हो गया फिर अचानक मेरा दोस्त ही बोल पडा । यार ये आईडिया तो मेरे दिमाग में तो या ही नहीं । जब दिल्ली में कोई अखबार छापने को तैयार नहीं है । तो किसी विदेशी मीडिया से संपर्क तो साधा ही जा सकता है । मुझे झटका लगा । मैं गुस्से में बोल पड़ा । यार मै सोच रहा हूं कि तुम मुझे खबर बताओगे । दस्तावेज दोगे । तो मैं न्यूज चैनल में खबर दिखाने का प्रयास करुंगा। और तुम अब विदेशी मीडिया का जिक्र करने लगे । देखो यार न्यूज चैनलों की क्या हैसियत है, ये हम इससे पहले भी बात कर चुके हैं। और मैं इन बातों को दोहराना नहीं चाहता लेकिन दो सच बार बार कहता हूं । देश की सुबह अखबारों से ही होती है। और न्यूज चैनलों का खबरो को दिखा कर रायता फैलाना किसी इंटरटेन्मेंट से कम नहीं होता । जिसपर कितना भरोसा कौन करे ये भी सवाल है । तो मैं स्टोरी किल तो नहीं करना चाहता। और तुम जो लगातार न्यूज चैनलों को जिक्र कर रहे हो तो तुम ही बताओ कौन सी स्टोरी उसने ब्रेक की है। और अखबारों की हर खबर के ब्रेक होने के बाद कौन सी स्टोरी न्यूज चैनल वालों ने नहीं दिखायी।
यार सवाल ये नहीं है कि मौजूदा दौर में वही मीडिया खुद में कैसे सिमट गया ।या फिर सत्ता से दो दो हाथ करने से कतराने लगा है । जो मीडिया खबरों को लेकर अपनी बैचेनी छुपा नहीं पाता था । खबर मिलते ही दो लकीर पत्रकारों में दिखायी देती थी । एक जो खबर दिखाने पर आमादा तो दूसरी खबर के जरिये सौदेबाजी पर आमादा । लेकिन मौजूदा दौर में ना खबर दिखाने कि कुलबुलाहट है और ना ही सौदेबाजी पर अंगुली उठाने की हिम्मत । और इसकी वजह । वजह तो कई हो सकती हैं , लेकिन समझना ये भी होगा कि मौजूदा वक्त में सारी समझ आर्थिक मुनाफे पर जा टिकी है । ये तो पहले भी था । न । पहले मुनाफे का मतलब खबरों के जरीये सत्ता बदलना भी होता था । और मुनाफा देश के लिये होता था। गोयनका ने यूं ही एक्सप्रेस को इंदिरा की सत्ता से टकराने के लिये नहीं झोंक दिया । तो तुम्हारा मानना है कि अब राजनीतिक सत्ता के बदलने से मोहभंग हो गया है या फिर मुनाफे का मतलब खबरो को बेच कर सत्ता के अनुकूल हो जाना है । नहीं यार सरलता से समझो तो अब खबरों से सरकार नहीं गिरती । ये इसलिये सच है क्योंकि सरकारों को गिरा कर जो दूसरा सत्ता में आयेगा वह कहीं ज्यादा लूट मचायेगा। तो खबरो की साख की हथेली तो हमेशा खाली ही रहेगी। इस हकीकत को इस रुप में भी देख सकते हो कि मौजूदा वक्त में ज्यादातर पत्रकार राजनीति से नहीं कारपोरेट से जुडते है । कारपोरेट के इशारो पर राजनेता होते है । संसद कुछ इस तरह से चलती है जैसे कोई टीवी कार्यक्रम। अंतर सिर्फ इतना है कि टीवी पर खबरों के प्रयोजकों के बारे में बताया जाता है । लेकिन संसद के स्पोंर्सस सामने आ नहीं पाते। याद करो सवाल दलित उत्पीडन का हो या किसानो का । संसद के किस सदन में कोरम पूरा हुआ। 10 फीसदी से ज्यादा सांसद सदन में बैठे नजर नहीं आये । लेकिन जीएसटी हो या आर्थिक मुद्दे से जुडा कोई विधेयक । समूचे सांसद मौजूद रहते है । व्हिप जारी किया जाता है । यानी देश के घाव जब सत्ताधारियो ही नहीं बल्कि हर राजनेता को सियासी गुदगुदी देने लगे तो फिर अगला सवाल ये भी होगा कि राजनेताओ के तौर तरीको में कोई अंतर नहीं है । और तुम जिस खबर को जानने के लिये बेताब हो तो ये भी समझ लो उसके कटघरे में ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं जिसका नेता कटघरे में ना खडा हो । तो फिर तो खबर छापने में कोई परेशानी तो किसी को होनी नहीं चाहिये । और इससे बेहतर क्या हो सकता है कि हर राजनीतिक दल के नेताओ का नाम है । तो किसी को कोई परेशानी नहीं होगी । अरे यार ये तो हम कहते है कि राजनीतिक सत्ता एक हमाम है । लेकिन सत्ता में रहने वाला हमेशा खुद को विपक्ष से अलग और बेहतर दिखाता है । मानता है । बताता है । और चुनावी जीत यानी जनादेश का हवाला देकर ये कहने से नहीं चूकता कि सत्ता चलाने का पांच बरस का लाइसेंस तो जनता ने दिया है । फिर पांच साल के बीच में आपने हिम्मत कैसे हुई । और हो सकता है कटघरे में खडा कोई सत्ताधरी आपको चेता सकता है कि, पत्रकारिता छोड आप चुनाव लडकर देख लों । ये क्या बात हुई । यार जब जिक्र हो चला है तो समझो इसे देश में राजनीतिक सत्ता की दिशा – दशा है क्या । और क्यो मौजूदा वक्त में खबरे नहीं तारिफे रेगती है । और तारिफो को पॉजेटिव खबर माना जाता है । क्रिटिकल को देशद्रोही .। यानी खबरो को देशप्रेमी बनाया जा रहा है । क्यों मीडिया प्रचार के भोंपू में तब्दील हो रहा है । क्योंकि प्रचार ही देश का सबसे मजबूत स्तम्भ हो चला है । और अखबार/पत्रकार भी प्रचारक की भूमिका में खुद को खड़ा करने की बेचैनी पाले हुये हैं।
(जारी….)
(लेखक के ब्लॉग से साभार)