विकेंद्रीकरण के लिए
विश्व में सूचना एवं तकनीकी क्रांति के कारण संवाद का स्वरुप बदल गया है. आज भारत के पास अत्याधुनिक सूचना एवं संचार के साधन उपलब्ध हैं, इस कारण से किसी भी विकासशील देश को भारत से ईर्ष्या हो सकती है. संचार तकनीकी का सरकार देश के विकास के लिए कितना उपयोग करती है या प्रभावी रूप से क्या बदलाव किये जा सकते हैं.? आल इंडिया रेडियो 23 भाषाओं तथा 146 बोलियों में लगभग पूरे देश में प्रसारण करता है. अभी हाल में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में दंगे हुए. ऐसे माहौल में अफवाहों का तुरंत प्रतिकार, भड़काऊ भाषण देने वालों को दंड का भय, आदि अनेक ऐसे उपाय हैं जिनके लिए शासन रेडियो का उपयोग कर सकता है. तुरंत प्रतिकार के लिए क्षेत्र के बारे में पल-पल की सूचना रखना शासन, प्रशासन, एवं नेताओं की जिम्मेदारी में आता है. समाचार पत्रों की ही तरह रेडियो स्टेशन्स को भी अपने रिपोर्टर्स एवं भेदिये रखने की सुविधा दी जा सकती है, जिससे विकट एवं आकस्मिक घटना के समय जिम्मेदार रेडियो स्टेशन को अपने विवेक से प्रसारण का अधिकार दिया जा सकता है.
ग्रामीण क्षेत्रों में देश की लगभग 60 प्रतिशत जनता रहती है, परंतू आज़ादी के 66 वर्ष बाद भी उसकी आय नगरों की तुलना में केवल 20 प्रतिशत है. नगर पालिकाओं को राज्य सरकारों द्वारा उचित अधिकार न देने के कारण वहां भी विकास अव्यवस्थित हुआ है, जिसके कारण पिछड़े क्षेत्रों तथा स्लम्स में रहने वाली जनता को प्राप्त बिजली, पानी आदि नागरिक सुविधायें की स्थिति खस्ता हाल में हैं. इन्ही सब समस्याओ को देखते हुए केंद्र सरकार ने सन 1992 में 73 वें तथा 74वें संविधान संशोधन से सत्ता का विकेंद्रीकरण किया. गाँवों तथा शहरों – दोनों ही जगह पूरे देश में इस विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को सशक्त करने में केंद्र एवं राज्य सरकारें दोनों ही मीडिया का उपयोग कर सकती हैं.
पश्चिमी बंगाल की 40 ग्राम सभाओं पर 2011 में एक अध्ययन के अनुसार पंचायत पर ग्राम सभा (जिसमें गाँव के सभी वोटाधिकारी होते हैं) के नियंत्रण के लिए सूचना बहुत जरूरी है. ग्रामवासी यदि राज्य एवं केंद्र स्तर के शासन तंत्र को भली-भाँती जानेंगे तो पंचायत सभाओं में उनके प्रश्न भी सटीक होंगे. व्यर्थ के प्रश्नों से गाँव में अनावश्यक तनाव बढ़ता है. आज टेलीविजन भी क्षेत्रीय भाषाओं में प्रसार करते हैं. फिर शासन तथा ग्राम सभा सदस्यों के बीच वार्तालाप भी हो. आज मोबाइल फोन के होने से यह सब संभव है. पिछले कुछ वर्षों में तकनीकी एवं प्रबंधकी शिक्षा के जबरदस्त विस्तार से अब तो गाँवों में भी शिक्षित युवक उपलब्ध हैं, जिन्हें रोज़गार देकर पंचायतें योजनाओं का बेहतर क्रियान्वन कर सकती हैं. ऐसे में जब पंचायतें योजनाओं का कुशलता से समापन करने लगेंगी तो क्षेत्र की आवश्यकताओं को देखकर स्वयं भी अपनी योजनाओं को बना सकेंगी.
नगर के स्तर पर भी शासन तथा जनता के बीच वार्तालाप की बहुत कमी है. यहाँ पर चुने हुए प्रतिनिधियों की जगह सत्ता राज्य सरकार द्वारा नियुक्त प्रशासनिक अधिकारी कमिश्नर के हाथ में होती है. फिर प्रांत की राजधानी में राजनीतिक सत्ता के पुंजीभूत होने से शहरी प्रशासन के पास भी सीमित अधिकार हैं. वाराणसी शहर के मध्य वर्गीय समुदायों के लिए किये गए एक अध्ययन के अनुसार सीमित अधिकारों के होने से प्रशासन अधिकाँश मुद्दों पर असहाय नजर आता है.
सामजिक समरसता के लिए
2013 के एक विश्लेषण से मुजफ्फरनगर दंगो के कुछ सामाजिक कारण भी सामने आये. कुछ वर्षों से मुसलमानों के बीच जाति के आधार पर पिछड़े वर्ग में पस्मीदा क्रांति अभियान चल रहा था. उन्होंने अपने एक प्रचार पत्र में हिन्दू एवं मुसलमान पिछड़े वर्ग को जोड़कर एक राजनीतिक वर्ग बनाने की बात लिखी. इसी विश्लेषण से यह तथ्य भी सामने आया की दंगे में मरने वालों में अधिकाँश पिछड़े वर्ग के थे. एक अन्य सामाजिक अभियान तब्लीघी जमात ने धार्मिक कट्टरता के तहत अनुयायिओं को एक विशेष प्रकार के रहन-सहन की सलाह दी, जो की तालिबानों से मेल खाती थी. दंगों से कुछ महीने पहले तब्लीघी जमात के अनुयायिओं पर समुदाय विशेष द्वारा टीका-टिप्पणी भी बढी. अवश्य ही केंद्र एवं राज्य सरकार के सूचना मंत्रालय अथवा विभाग इन सामाजिक गतिविधियों का अत्याधुनिक मीडिया संसाधनों द्वारा प्रतिकार कर सकते थे. ऐसे संवेदनशील विषयों पर प्रशासन भी देश हित में संविधान के अनुसार काम करने के लिए स्वतंत्र है, जिसके लिए उसे कार्यपालिका से भी अनुमति की आवश्यकता नहीं.
देश की अखंडता के लिए
देश के कश्मीर तथा उत्तर-पूर्व राज्यों में विघटनकारी शक्तियां प्रबल हैं. हालांकि देश के शीर्ष नेताओं ने संविधान के अंतर्गत समस्या के समाधान की वचनवद्धता दर्शाई है, परंतू अनेक वर्षों के बाद भी स्थिति में कोई ख़ास सुधार नहीं है. कश्मीर में सेना भी सदभावना के लिए प्रयास करती है परंतू क़ानून व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेवारी होने के कारण जनता का उसपर विश्वास कभी नहीं बन सकता. केंद्र एवं राज्य सरकार के पास मीडिया के उपयोग के अलावा और कोई चारा नहीं है, परंतू यह कैसे किया जाए इस पर गहन चिंतन की आवश्यकता है. वैसे प्रत्येक नागरिक धार्मिक स्वतंत्रता के साथ-साथ विकास भी चाहता है.
उत्तर पूर्व में अलगाव वाद की समस्या के समाधान के लिए अनेक स्वायत्त परिषदें बनाई गयीं हैं परन्तु यहाँ भी केंद्र द्वारा सत्ता के उचित हस्तांतरण से विकास में गति आएगी. राज्यों को विकेंद्रीकरण कर स्थानीय संस्थाओं – पंचायतों एवं नगरपालिकाओं को सशक्त करने से भी विकास तेज़ होगा. यहाँ की दूसरी मुख्य समस्या अवैध बांग्लादेशी घुसपेठियों की है. असम में तो मूल निवासी 35 प्रतिशत से भी कम रह गए हैं. सरकारों को, अन्य उपायों के अलावा, मीडिया का उचित उपयोग कर राज्यों के मूल निवासिओं की आशंकाओं को तो निर्मूल करना ही चाहिए.
सरकारें यदि देश के अत्याधुनिक तथा सब जगह उपलब्ध होने से सशक्त मीडिया का विकास के लिए उपयोग न करे, तो यह उसी प्रकार से है जैसे कोई पहलवान अपनी ह्रष्ट-पुष्ट बाजुओं का तकिया लगाकर सारे समय सोता ही रहे. जनता के पैसे से बनाए तथा चलाये जा रहे मीडिया का यदि सरकार उपयोग नहीं करेगी तो “अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार” की आड़ में उसके दुरूपयोग को रोकना मुश्किल होगा. देश के विकास में सहयोग को तो प्राइवेट चैनल्स भी सहर्ष तैयार हो जाएँगी.
कन्हैया झा (शोध छात्र)
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल, मध्य प्रदेश
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