भारतीय मीडिया की उपेक्षा कर फेसबुक के जुकरबर्ग हुए फेसलेस !

facebook founder mark jukerbarg
फेसबुक के जुकरबर्ग ने किया भारतीयों पत्रकारों की उपेक्षा

कौन जुकरबर्ग?

मनोज कुमार,वरिष्ठ पत्रकार, मध्यप्रदेश

फेसबुक के जुकरबर्ग ने किया भारतीयों पत्रकारों की उपेक्षा
फेसबुक के जुकरबर्ग ने किया भारतीयों पत्रकारों की उपेक्षा

जुकरबर्ग को आप जानते हैं? मैं नहीं जानता और न ही मेरी जानने में कोई रुचि है। दरअसल, पिछले दिनों ये कोई जुकरबर्ग नाम के शख्स ने हिन्दी पत्रकारों के साथ जो व्यवहार किया, वह अनपेक्षित नहीं था। वास्तव में ये महाशय भारत में तो आये नहीं थे। इनका वेलकम तो इंडिया में हो रहा था। फिर ये भारतीय पत्रकारों को क्यों पूछते? जुकरबर्ग ने क्या किया और उनका व्यवहार कितना घटिया था, इस पर कोई बात नहीं की जा सकती है। सही और असल सवाल तो यह है कि हम फिरंगियों के प्रति इतने आसक्त क्यों होते हैं? हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमेरिका प्रवास पर गये और वहां की मीडिया ने जिस तरह से उपेक्षा की, वह एक बड़ा मसला था लेकिन हम विरोध नहीं कर पाये क्योंेिक मोदी को लेकर हम अभी भी भाजपा और कांग्रेस में बंटे हुये हैं। अमेरिकी मीडिया ने मोदी के साथ जो व्यवहार किया, वह मोदी के साथ नहीं था बल्कि सवा सौ करोड़ के प्रतिनिधि और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ था। मोदी के साथ क्या होता है और क्या होना चाहिये, इसकी हमें बड़ी चिंता होती है। याद करें जब मोदी को वीजा देने से अमेरिका ने मना कर दिया था तब भारतीय मीडिया ने इस मुद्दे को हाथों-हाथ लिया था लेकिन अमेरिकी मीडिया हमारे भारतीय प्रधानमंत्री की उपेक्षा करता है तो यह हमारे लिये मुद्दा नहीं बनता है। ऐसे में ये कोई जुकरबर्ग भारतीय मीडिया की उपेक्षा कर इंडियन मीडिया से गलबहियां करता है तो शिकायत क्यों? भारतीय प्रधानमंत्री की उपेक्षा के खिलाफ भारतीय मीडिया समवेतस्वर में अपना विरोध दर्ज कराता तो एक क्या, ऐसे सौ जुकरबर्ग की ताकत नहीं होती कि वह कहे कि हिन्दी के पत्रकार उनकी सूची में नहीं हैं।

यहां यह सवाल भी अहम है कि जुकरबर्ग की भारत यात्रा क्यों थी? क्या वे मीडिया को प्रमोट करने आये थे या अपने बिजनेस को। एक व्यवसायी के साथ जो बर्ताव करना चाहिये था, वह हिन्दी के पत्रकारों को करना चाहिये लेकिन हमारी कमजोरी है कि किसी फिरंगी को देखे नहीं कि लट्टू हो जाते हैं और फिर वे हमें जुकरबर्ग की तरह लतियाते हैं। हमारी कमजोरी रही है कि आज भी हम दासता की मानसिकता से उबर नहीं पाये हंै। इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एंव संचार विश्वविद्यालय के निदेशक जगदीश उपासने का स्पष्ट मानना है कि इस मुद्दे पर स्यापा नहीं करना चाहिए। उनके हिंदी को महत्व देने या न देने की हिंदी की प्रतिष्ठा और ताकत कम नहीं हो सकती है। वे अंग्रेजी के जरिए अपना आर्थिक हित साधने में लगे हैं। जगदीशजी के इस कथन से हमें अपनी ताकत समझ लेना चाहिये क्योंकि हिन्दी की ताकत बड़ी है और वह एकाध व्यक्ति के अनदेखा किये जाने से कम नहीं होती है बल्कि इसे इस नजरिये से ाी देखा जाना चाहिये कि कहीं वे हिन्दी की ताकत से भय खाकर पीछे के दरवाजे से अपना हित साधने तो नहीं आये थे।

वरिष्ठ पत्रकार डॉ.वेद प्रताप वैदिक ने कहा कि यदि यह सच है कि जुकरबर्ग न सिर्फ अंग्रेजी पत्रकारों के साथ संवाद किया है तो मानना होगा कि जुकरबर्ग भारत को बिल्कुल नहीं समझते हैं। भारतीय भाषाओं के अखबारों, चैनलों की पहुंच अंग्रेजी के मुकाबले 100 गुना ज्यादा है। उनकी उपेक्षा कर वे अपनी ही नुकसान कर रहे है। उनके प्रति सहानुभूति है। उन्होंने कहा कि आज जहां विश्व में हिंदी का प्रभुत्व लगातार बढ़ रहा है, ऐसे में फेसबुक के सीईओ जुकरबर्ग द्वार हिंदी को नकारना उनकी असमझ का परिचायक है। वैदिकजी की यह बात सही है कि जुकरबर्ग एक सफल व्यवसायी नहीं हैं। यदि होते तो उन्हें पता होता कि भारत में प्रभुत्व करना है तो हिन्दी ही एकमात्र रास्ता है। इस बात का प्रमाण पिछले दो-तीन दशकों में अंग्रेजी प्रकाशनों का हिन्दी में आना है। वे जान चुके हैं कि अंग्रेजी में पाठक मिल सकते हैं लेकिन ग्राहक हिन्दी में मिल पायेंगे। अंग्रेजी के हिन्दी प्रकाशनों की अनिवार्यता यह थी कि बाजार में टिके रहना है तो हिन्दी के बीच स्थान बनाना होगा। हालांकि इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता है कि जुकरबर्ग के व्यवहार से हिन्दी का अपमान हुआ है। ये साहब हैं कौन जो हमारी हिन्दी का अपमान करेंगे? मैं अमर उजाला के पॉलिटिकल एडिटर विनोद अग्निहोत्री कीइस बात से सहमत नहीं हूं कि इस तरह से अपमान भारत के स्वाभिमान को चोट पहुंचाता है। यह सही है कि भारतीय भाषाओं के प्रति संकीर्ण मानसिकता के साथ-साथ जुकरबर्ग यहां के बाजार को भी नहीं समझ पाए हैं। आउटलुट (हिंदी) पत्रिका के प्रमुख संवाददाता कुमार पंकज ने इस मुद्दे पर कहा कि हिंदी भारत की मातृभाषा है और जिस तरह विदेशी जुकरबर्ग ने इसका अपमान किया है वे चिंता का विषय है, इस बात से सहमत हुआ जा सकता है। उनका यह भी कहना सही है कि हिंदी के लिए प्रतिबद्ध मोदी को इस विषय को जुकरबर्ग के सामने उठाया चाहिए। साथ ही उन्होंने मांग की कि सूचना-प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को भी जुकरबर्ग को हिंदी पत्रकारिता की पहुंच और प्रभाव के बारे में बताना चाहिए।

यह मसला गंभीर है और इस पर चिंतन की और विमर्श की जरूरत है क्योंकि पहले भी ऐसा हुआ है और आगे ऐसा नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। हालांकि हमें अपनी मानसिकता भी बदलनी होगी। वर्षों से भारतीय फिल्में ऑस्कर पा लेने के लिये बेताब हैं। आखिर ऑस्कर में ऐसा क्या है जिसे हम नहीं पा सके तो हमारी उपलब्धि और हमारी पहुंच कम हो जायेगी। ऐसे पुरस्कार और स मान के लिये भी सरकारी बंदिश होना चाहिये। भारत एक धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्म-समभाव का देश है। हिन्दी इस देश की आत्मा है और यही कारण है कि समूचे विश्व में भारत का पताका फहरा रहा है। भारत विनयशील देश है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम जवाब देना नहीं जानते हैं। जुकरबर्ग को यह बात स्मरण में रखना चाहिये कि जिस देश में इतनी ताकत है कि वह अंग्रेजों को खदेड़ सकती है तो अपने आत्मगौरव के लिये वह आज भी संघर्ष करने की ताकत रखती है। मेरा आग्रह मेरे अपने लोगों से है, भारतीय मीडिया से है कि ऐसे फिरंगियों को तवज्जो ना दें बल्कि अपने देश के भीतर भी जो लोग फिरंगियों सा व्यवहार कर रहे हैं, उन्हें भी अनदेखा करें। यह इसलिये भी आवश्यक है कि एक तरफ तो हम देश में संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षायें हिन्दी माध्यम से कराने की लड़ाई लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ अंग्रेजों के मोह से छूट नहीं पा रहे हैं। अब सोचना साथियों को है कि हमें किसका साथ देना है और किसका विरोध करना है।

(लेखक शोध पत्रिका समागम के संपादक हैं.)

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