सोनी टीवी चैनल का नया शो “भारत का वीरपुत्रःमहाराणा प्रताप” एक बार फिर ये साबित करने में जुटा है कि कुछ ऐतिहासिक पात्र और घटनाएं ऐसी होती हैं जिनके दर्शक कभी मरते नहीं या कहें तो पैदा होने बंद नहीं होते. वो टीआरपी के कमाउ पूत बनकर चैनल के लिए हाजिर रहते हैं. लेकिन इस सीरियल के मामले में दिलचस्प है कि पूरी मार्केटिंग ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर करने के बावजूद चैनल ने पहले एपीसोड में स्पष्ट कर दिया कि ये सीधे-सीधे इतिहास की प्रस्तुति नहीं है. मोट्टी सफेद पट्टी चलाकर घोषित किया कि महाराणा प्रताप को इतिहास के बजाय उन लोक परम्पराओं में मौजूद कहानियों के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है जिनका उद्देश्य मनोरंजन भर है. ऐसे में इतिहास की मार्केटिंग करते हुए भी इससे पिंड छुड़ाने की चैनल की इस ईमानदार घोषणा के बाद बेहतर होगा हम कथा और प्रस्तुति के तार को मनोरंजन के आधार पर ही देखने-समझने की कोशिश करें.
मनोरंजन,सामयिक और चटख बनाने के फेर में चैनल ने जिस सेट का इस्तेमाल किया है वो कहीं से स्वाभाविक नहीं लग रहे. लग रहा है कि सबकुछ फार्म हाउस की शादी के सजावट हों और उसके बीच वस्तुओं की मौजूदगी आज से चार सौ साल के पहले के भारत की समझ को छिन्न-भिन्न करती है. कई फ्रेम्स तो जैसे सीधे विंडो-7-8 की स्क्रीन सेवर से उठाकर चिपका दिए गए हों खासकर जहां प्रकृति को दिखाया जा रहा है. आपको बार-बार एहसास होगा कि कहीं संजय लीला भंसाली की कोई सेट तो हाथ नहीं लग गया जिस पर कि इस सीरियल को शूट कर लिया गया. सीरियल के पीछे लचर रिसर्च साफ झलकता है.
इधर भारी-भरकम मेकअप के बीच स्त्री-पात्र सास-बहू सीरियल के सास-ननद और भाभी लग रहे हैं. चैनल लाख दलीलें दे कि उसका उद्देश्य इतिहास को जीवित करना नहीं बल्कि उसके बीच से मनोरंजन पैदा करना है लेकिन दर्शक जब चार सौ साल पहले की कहानी देख रहा है तो उसकी आंखें इम्पोरियम से गुजरने के लिए तो तैयार नहीं ही होगी. इतिहास इतना चटख नहीं होता बल्कि रंगों के उपर भी अतीत की एक ऐसी परत होती है जो उसे उस दौर में ले जाती है जहां शो विश्वसनीय जान पड़ता है. दूरदर्शन के ऐतिहासिक सीरियलों की सफलता और एनडीटीवी इमैजिन पर रामायण के पिटने की बड़ी वजह यही रही है. अच्छा, जब आपको ऐसा ऐतिहासिक परिवेश रचना ही नहीं है तो फिर पात्रों से तत्समी हिन्दी क्यों उच्चरित करवा रहे हैं और वो भी बहुत ही फूहड़ ढंग से. ऐतिहासिक और पौराणिक सीरियलों की भाषा की खास विशेषता रही है कि वे बोलचाल से अलग ऐसी भाषा में प्रस्तुत किए जाते रहे हैं कि आप सिर्फ संवाद सुनकर उसकी ऐतिहासिक अथवा पौराणिक मिजाज का अंदाजा लगा सकते हैं. इसके पात्र जैसे कॉन्वेंट के छात्र हिन्दी बोलने की मशक्कत करते हैं, वैसी तत्समी हिन्दी बोलने का प्रयास करते नजर आ रहे हैं.
गर्मी की छुट्टियों के बीच शुरु हुए इस सीरियल का मंसूबा बच्चे दर्शकों को कार्टून चैनलों से खींचकर लाना जरुर रहा हो,शायद इसलिए महाराणा प्रताप पहले ही एपीसोड में सीधे कक्षा पांच में जाने लायक दिख रहे हैं लेकिन ये दर्शक इस सीरियल से जुड़ पाएंगे,शक है. बाकी अब बदलते पैटर्न के बीच ऐसे सीरियल वयस्क दर्शकों के लिए रह कहां गए हैं. संवादों में अतिरंजना और ओवर मेलोड्रामा नंदन पत्रिका से होड़ करती नजर आते हैं. कुल मिलाकर सीरियल न तीन में है, न तेरह में.अब अकेले अमिताभ बच्चन की वीओ सुनने के लिए कोई देखे तो अलग बात है. (मूलतः तहलका में प्रकाशित)
स्टार- दो