हरिवंश चतुर्वेदी, निदेशक, बिमटेक
साहित्यिक सम्मेलनों में उमड़ रही भीड़ से कभी-कभी भ्रम होता है कि क्या यह भारतीय मध्यवर्ग में साहित्य एवं संस्कृति के प्रति बढ़ते अनुराग की ओर इशारा कर रही है या यह एक फैशन की तरह कुछ समय के लिए उन्हें रचनात्मक साहित्य व पुस्तकों की ओर लुभा रही है? साहित्य के जरिये क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तनों के सपने देखने वाले जनवादी लेखकों को इसमें साहित्य के कॉरपोरेटीकरण की बू आ सकती है, क्योंकि इन साहित्यिक समारोहों की ज्यादातर वित्त व्यवस्था कॉरपोरेट जगत की स्पॉन्सरशिप से हो रही है। साहित्यिक समारोहों के साथ-साथ फरवरी-मार्च में देश के कई शहरों में पुस्तक मेलों का भी आयोजन किया जाता है। दिल्ली और कोलकाता के पुस्तक मेलों में तो पिछले एक दशक से भारी भीड़ देखी जा रही है। देश के अन्य स्थानों पर आयोजित पुस्तक मेले भी अब बुद्धिजीवियों व लेखकों तक सीमित नहीं हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि यह भारतीय मध्यवर्ग में पुस्तकों के प्रति बढ़ती रुचि का परिचायक है? क्या अंग्रेजी में जितनी किताबें खरीदी जा रही हैं, उतनी हिंदी, बांग्ला तथा अन्य भारतीय भाषाओं में भी खरीदी जा रही हैं? क्या पुस्तक मेलों व साहित्यिक समारोहों में मध्य वर्ग की बढ़ती सहभागिता टीवी तथा फिल्मों से उनके अलगाव की ओर इशारा कर रही है? इंटरनेट पर हर किस्म की सूचना, ज्ञान और सामग्री उपलब्ध है, परंतु किताबें अब भी भारतीयों के कल्पना जगत से गायब नहीं हुई हैं।