नदीम एस.अख्तर
हे मीडिया वालों ! PLEASE…इस दर्द को बेचना बंद कीजिए…ईमानदारी से गम के प्रतीक वाले सादे–काले कपड़े पहनकर एंकरिंग करते हुए उस दर्द को दिल में महसूस करके खबर बताइए. ना शब्दों का कोई मायाजाल और ना ही दुखों के पहाड़ को बयां करती स्क्रिप्ट. जो हुआ है और जो हो रहा है, वह सब स्क्रीन पर साफ-साफ दिख रहा है. यहां आपकी कलाकारी की कोई जरूरत नहीं. ऐसा मत करिए. प्लीज! टीवी के पर्दे पर जो दिख रहा है, वह सीधे जनता के दिलों तक पहुंच रहा है. आप अपनी कलम की ताकत लगाकर उसमें ज्यादा सहयोग ना करें.
दर्द आपकी कलम की मोहताज नहीं. वह बिना बयां किए ही उड़कर करोड़ों-अरबों दिलों को एक साथ छू लेती है. दिल्ली के एक अखबार में इस आतंकी घटना पर पेज वन की लीड हेडिंग —या अल्लाह– देखकर शर्मिंदा हूं, आहत हूं. तो क्या जिन्हें दर्द हो रहा है, अब उनकी भाषा मे ही उनके दर्द को बयान किया जाएगा ??!!! आज एक कलीग बता रहे थे कि कल किसी टीवी चैनल की स्क्रीन पर पट्टी चली
—इस दर्द को क्या नाम दूं— जो हास्यास्पद तो कतई नहीं था, शर्मनाक था. मतलब कि बॉलिवुड के गाने –इस प्यार को क्या नाम दूं– की पैरोडी करके आप इतने बड़े मातम की खबर अपने चैनल पर दिखा रहे थे??!! क्या चैनल हेड और प्रोड्यूसर ने शर्म-लाज घोल कर पिया नहीं, सीधा गटक लिया था??!!!
ये कहां जा रहे हैं हम??!! क्या सबकुछ इतना व्यावसायिक हो गया है. वैसे तो मैने पिछले तीन महीने से टीवी देखना और अखबार पढ़ना बंद कर रखा है (मस्तमौला हूं लेकिन फिर भी हर खबर से लगभग अपडेट हूं, अखबार और टीवी के बिना भी) लेकिन आज जी हुआ कि देश के नम्बर वन अखबार को देखूंगा. इस उम्मीद के साथ कि इस बड़ी मानवीय त्रासदी की कवरेज कैसे की गई है. लेकिन अफसोस. अखबार देकर बहुत निराशा हुई. पेज वन पर ही हाफ पेज का ऐड. यानी खबर पर व्यापार भारी. फिर सोचा कि अंदर शायद फुल पेज कवरेज हो. लेकिन वहां भी वही हाल. विज्ञापन से पटे नम्बर वन अखबार में इस घटना की खबर छापने के लिए जगह ही नहीं थी, अंदर भी. सो दबे-चिपे-सिकुड़े कॉलमों के बीच इस त्रासदी की कवरेज करके पत्रकारीय धर्म का पालन कर लिया गया था. किसकी मजाल थी कि रिस्प़ॉन्स या मार्केटिंग या विज्ञापन विभाग को फोन करके हड़काता कि बॉस! आज तो पेज वन का कम से कम एक ऐड आपको ड्रॉप करना होगा और अंदर एक पेज पूरा मुझे खाली चाहिए. इतनी बड़ी घटना हो गई है हमारे पड़ोस में. आखिर पाठकों के प्रति भी तो हमारी कोई जिम्मेदारी है! या फिर सिर्फ विज्ञापन के लिए ही हम अखबार छाप रहे हैं??!! (वैसे देश के सारे बड़े अखबार क्यों छप रहे हैं, जनता की सेवा के लिए, मिशन के लिए, चौथे खंभे को मजबूत करने के लिए या फिर विशुद्ध मुनाफा कमाने के लिए, ये सबको पता है) फिर भी कोशिश तो की ही जा सकती थी.
टीवी चैनल आजकल मैं देखता नहीं, सो नहीं बता सकता कि उन्होंने क्या दिखाया. अगर देखता तो उनका भी डिटेल पोस्टमॉर्टम करता. हां, सोशल मीडिया पर एक पाकिस्तानी एंकर को घटना की कवरेज करते हुए जार-जार रोते हुए देखा. बात दिल को छू गई. ना ही उसके चेहरे पे कोई मेकअप था और ना ही कोई रची-बुनी स्क्रिप्ट. लेकिन वो दर्द कम्यप्यूटर स्क्रीन को फाड़कर सीधे मन-मस्तिष्क को भेद रहा था. बहुत देर तक सोचता रहा. ये ख्याल भी दिल में आया कि कम से कम कल तो मुझे टीवी ऑन करना ही चाहिए था. लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया. हां, अगर कल न्यूजरूम में होता तो किसी एंकर को मदारी और फेरीवाले की तरह आवाज लगाकर ना तो खबर पढ़ने देता और ना ही बेचने.