विकास मिश्र,पत्रकार,आजतक
यादों के झरोखे से
जिंदगी में उम्र का शतक नहीं मार पाए खुशवंत सिंह। बड़ी खामोशी से चले गए। उनसे दो मुलाकातों का अपना भी अनुभव रहा है। 1995 का साल था। तब मैं आईआईएमसी का छात्र था और अखबारों के दफ्तरों में कुछ असाइनमेंट के लिए भटकता था। स्वतंत्र भारत में गीता श्री और राजेंद्र जी थे। उन्होंने मुझे खुशवंत सिंह का इंटरव्यू करने को कहा था। मैंने फोन से पहले वक्त लिया। खुशवंत सिंह ने कहा- 12 बजे का मतलब 12 बजे। ठीक 12 बजे आना।
बड़ी तबीयत से उन्होंने इंटरव्यू दिया। एक सवाल था-कैसी मौत चाहते हैं। बोले-बिस्तर पर घिसट-घिसट कर तो नहीं। बस मौत आए, चुपके से ले जाए, किसी को कानोकान खबर न हो। एक और सवाल था-क्या कभी झूठ बोलते हैं। बोले- किसी बदसूरत या सामान्य शक्ल-ओ-सूरत की लड़की को खूबसूरत कहने का झूठ जायज है।
उन्होंने घर की लाइब्रेरी दिखाई। बताया कि उनसे बिना अपाइंटमेंट लिए किसी को भी मिलने की इजाजत नहीं है। अपना रुटीन भी बताया (तब उनकी उम्र 80 साल के आसपास थी), बोले- रोज शाम को टेनिस खेलना और रात व्हिस्की पीना… ये बरसों से है और जिंदगी भर चलेगा।
बड़ी जिंदादिली देखी मैंने उनमें। कई बार खुलकर ठहाके लगाए। बंटवारे के दर्द पर भी बातें हुईं। ट्रेन टू पाकिस्तान पर भी बात हुई। खैर…इंटरव्यू छपा तो मैंने उन्हें अखबार की प्रति ले जाकर दी। एक शर्मीली मुस्कान के साथ बोले-ओह, इसे तो किसी से पढ़वाकर सुनना पड़ेगा। हिंदी मैं ठीक से पढ़ नहीं सकता। मैं तो सिर्फ उर्दू और अंग्रेजी ही जानता हूं। आज उनके निधन की खबर सुनकर बरबस वो दो मुलाकातें याद आ गईं।
(स्रोत-एफबी)