कश्मीर घाटी में 46 दिनों से स्कूल कालेज सबकुछ बंद हैं। आर्मी पब्लिक स्कूल से लेकर केन्द्रीय विद्यालय तक और हर कान्वेंट से लेकर हर लोकल स्कूल तक । आलम ये है कि वादी के शहरों में बिखरे 11,192 स्कूल और घाटी के ग्रामीण इलाको में सिमटे 3,280 से ज्यादा छोटे बडे स्कूल सभी बंद हैं और इन स्कूल में जाने वाले करीब दो लाख से ज्यादा छोटे बडे बच्चे घरो में कैद हैं । लेकिन इन बच्चों के बारे में कोई नहीं सोंच रहा. वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी का विश्लेषण –
दो लाख कश्मीरी बच्चो के बारे में कौन सोचेगा?
सीरिया में बीते 425 दिनों से बच्चों को नहीं पता कि वह किस दुनिया में जी रहे हैं। स्कूल बंद हैं। पढ़ाई होती नहीं । तो ये बच्चे पढ़ना लिखना भी भूल चुके हैं। और समूची दुनिया में इस सच को लेकर सीरिया में बम बरसाये जा रहे हैं कि आईएसआईएस को खत्म करना है तो एक मात्र रास्ता हथियारों का है । युद्द का है। लेकिन वक्त के साथ साथ बड़े होते बच्चो को दुनिया कौन सा भविष्य दे रही है इसपर समूची दुनिया ही मौन है । इसलिये याद कीजिये तो समुद्र किनारे जब तीन बरस का एलन कुर्दी सीरियाई शरणार्थी के तौर पर दिखाई दिया तो दुनिया हिल गई । और पिछले हफ्ते जब पांच बरस का ओमरान घायल अवस्था में दुनिया के सामने आया तो दुनिया की रुह फिर कांप गई । तो क्या दुनिया भविष्य संभालने वाले बच्चो के भविष्य को ही अनदेखा कर रही है । ये सवाल दुनिया के हर हिस्से को लेकर उठ सकता है।
और ये सवाल कश्मीर का राजनीतिक समाधान खोजने वाले राजनेताओ के बरक्स भी उभर सकता है कि क्या किसी ने वाकई बच्चो की सोची है। क्योंकि कश्मीर घाटी में 46 दिनों से स्कूल कालेज सबकुछ बंद हैं। आर्मी पब्लिक स्कूल से लेकर केन्द्रीय विद्यालय तक और हर कान्वेंट से लेकर हर लोकल स्कूल तक । आलम ये है कि वादी के शहरों में बिखरे 11192 स्कूल और घाटी के ग्रामीण इलाको में सिमटे 3 280 से ज्यादा छोटे बडे स्कूल सभी बंद हैं । और इन स्कूल में जाने वाले करीब दो लाख से ज्यादा छोटे बडे बच्चे घरो में कैद हैं । बीते दो महीने से घरो में बंद है ।
ऐसे में छोटे छोटे बच्चे कश्मीर की गलियो में घर के मुहाने पर खड़े होकर टकटकी लगाये सिर्फ सड़क के सन्नाटे को देखते रहते हैं। और जो बच्चे कुछ बड़े हो गये हैं, समझ रहे है कि पढ़ना जरुरी है । लेकिन उनके
भीतर का खौफ उन्हे कैसे बंद घरो के अंधेरे में किताबो से रोशनी दिला पाये ये किसी दिवास्वप्न की तरह है। क्योंकि घाटी में बीते 46 दिनो में 69 कश्मीरी युवा मारे गये हैं। और इनमें से 46 बच्चे हाई स्कूल में पढ़ रहे थे । ऐसे में ये सवाल कोई भी कर सकता है कि इससे बडी त्रासदी किसी समाज किसी देश के लिये हो नहीं सकती कि हिंसा के बीच आतंक और राजनीतिक समाधान का जिक्र तो हर कोई कर रहा है लेकिन घरो में कैद बच्चो की जिन्दगी कैसे उनके भीतर के सपनों को खत्म कर रही है और खौफ भर रही है , इसे कोई नहीं समझ रहा है । हालांकि सरकार ने ने एलान किया कि स्कूल कालेज खुल गये हैं लेकिन कोई बच्चा इसलिये स्कूल नहीं आ पाता क्योंकि उसे लगता है कि स्कूल से वह जिन्दा लौटेगा या शहीद कहलायेगा। लेकिन घाटी में बच्चों की आस खत्म नहीं हुई है। उन्हे भरोसा है स्कूल कालेज खुलेंगे। ये अलग बात है कि किसी भी राजनेता की जुबा पर बच्चो के इस दर्द इस खौफ का जिक्र नहीं है । कोई मारे गये कश्मीरी युवाओं के हाथों में पत्थर को आतंक करार देकर मारने के हक में है तो कोई इसे सिर्फ पांच फिसदी का आंतक बताकर घाटी की हिसा को थामने के लिये हर बच्चों को अपना बताकर इनकी मौत को बर्बाद ना होने देने की बात कर रहा है । हुर्रियत तो शंकराचार्य , पोप, काबा के इमाम और दलाई लामा को पत्र लिखकर दखल देने को कह रहा है । लेकिन जिन बच्चो के कंघे पर कल कश्मीर का भविष्य होगा उन्हे कौनसा भविष्य मौजूदा वक्त में समाज और देश दे रहा है इसपर हर कोई मौन है । और असर इसी का है कि घाटी में 8171 प्राइमरी स्कूल, 4665 अपर प्राईमरी स्कूल ,960 हाई स्कूल ,300 हायर सेकेंडरी स्कूल, और सेना के दो स्कूल बीते 46 दिनों से बंद पडे है । श्रीनगर से दिल्ली तक कोई सियासतदान बच्चों के बार में जब सोच नहीं रहा है तो नया सच धीरे धीरे नये हालात के साथ पैदा भी हो रहे है । धीरे धीरे वादी की गलियो में स्कूल बैग लटकाये बच्चे दिख रहे है तो कुछ आस जगा रहे है कि शायद कही पढाई हो रही है ।
और जानकारी के मुताबिक लगातार स्कूलो के बंद से आहत कुछ समाजसेवियो ने अब अपने स्तर पर पहल की है और अपने घरों, मस्जिदों में अस्थायी स्कूल खोल लिए हैं ताकि बच्चों की पढ़ाई जारी रहे । श्रीनगर के रैनावारी इलाक़े की मस्जिद में 200 छात्रों को वालंटियर टीचर पढ़ा रहे है तो इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढाई करने वाले बच्चों को अब प्रोफेशनल ट्यूटर पढा रहे है । यानी घाटी में बच्चो को लेकर राजनेता या राजनीतिक सत्ता नहीं बल्कि समाज और लोगो ने खुद पहल की है । कई जगहो पर मेज, कुर्सियां और ज़रूरी पैसे चंदे से इकट्ठा किये गये है । अधिकांश बच्चों को इन वैकल्पिक स्कूलों तक पहुंचने के लिए भारी सुरक्षा बलों के बीच से होकर गुजरना पड़ता है.कुछ बच्चे ऐसे रास्ते चुनते हैं जहां सुरक्षा बल कम हो । ये अलग सवाल है कि घाटी के हालात के सामधान का रास्ता सेना तले ही टटोला जा रहा है और 12 बरस बाद दुबारा घाटी में बीएसएफ की तैनाती हो गई है । और इस सवाल पर हर कोई खामोश है कि आखिर घाटी में बच्चे कर क्या रहे है ।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)