जनसत्ता के स्थानीय संपादक रहे श्रीश चंद्र मिश्र का निधन

shrish chandra mishra journalist
श्रीश चंद्र मिश्र

वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता के स्थानीय संपादक रह चुके श्रीश चंद्र मिश्र का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. उनके निधन पर वरिष्ठ पत्रकारों और उनके साथ काम कर चुके कई पत्रकारों ने दुःख व्यक्त किया है.

वरिष्ठ पत्रकार और उन्हें नजदीक से जानने वाले ‘हरीश पाठक’ लिखते हैं –

श्रीश चंद्र मिश्र:रुला गयी चुप्पी
कल देर रात आये एक संदेश ने मेरी नींद को ही सोख लिया।शुभ्रा और यामिनी की तरफ से आये इस संदेश में लिखा था,’हमारे प्यारे पापा श्रीश चंद्र मिश्र हमें छोड़ कर चले गए।आज उनका निधन हो गया।कल 10 बजे पंजाबी बाग क्रमेटोरियम में उनका अंतिम संस्कार होगा।’

सूचना पढ़ कर सन्न रह गया।रात इतनी थी कि किसी को फोन भी नहीं कर सकता था।एक चेहरा मेरे सामने उभरा और उभरी वे यादें जो श्रीश जी से जुड़ी थी ।कभी न मिटने के लिए।

श्रीश जी का जाना उस अजातशत्रु की विदाई है जो अजातशत्रु हिंदी पत्रकारिता में होते ही नहीं है।खामोश।चुप चुप।अपने काम में लीन।लिखने को तत्पर।फ़िल्म,खेल उनके प्रिय विषय थे।फिर जो कहा जाए।ज्ञान से लबालब।न उन्हें लाइब्रेरी की जरूरत पड़ती ,न संदर्भ विभाग की।उपयोग किये कागज के पीछे,छोटे अक्षरों में उनकी लिखावट चमकती।वे बाएं हाथ को कागज के लिखे हिस्से पर रखते।आप अचानक उनकी सीट पर पहुँच जाएं तो नहीं देख पाते कि वे क्या लिख रहे हैं।हरदम एक निश्छल मुस्कान उनके चेहरे पर रहती।

मै 1979 से 1986 तक दिल्ली प्रेस पत्रिका समूह में मुक्ता पत्रिका का प्रभारी था।1986 के मध्य में मैं टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रिका धर्मयुग में मुम्बई आ गया।मेरे आगे की पंक्ति में श्रीश जी,ज्योतिर्मय, इब्राहिम अश्क आदि बैठते थे।वे तीनों स्टाफ रिपोर्टर थे।मेरा तीनों से काम पड़ता था।ज्यादातर श्रीश जी से।

तब मुक्ता की आवरण कथा ट्रांसपेरेंसी पर निर्भय रहती थी।मैं ट्रांसपेरेंसी चुनता जिसका सुंदर कवर बन सके।फिर परेश जी (परेश नाथ) को दिखाता।वे तय करते किससे लिखवाना है।मै फिर उससे बात करता।ज्यादातर श्रीश जी ही लिखते।सबसे लिक्खाड़।समय के पाबन्द।बगैर किचकिच के उन्हीं से लेख मिल जाते।वे सबकी पहली पसंद रहते।

एक बार सड़क किनारे शक्तिवर्धक दवा बेचनेवाले की शानदार ट्रांसपेरेंसी मिली।झंडेवालान जहां दफ्तर था ऐसी बहुत दुकानें लगती।परेश जी ने उसे पास किया। मैने श्रीश जी से बात की।तीन दिन बाद एक शानदार कवर स्टोरी मय कई इंटरव्यू के मुझे मिल गयी।उन्होंने वे शब्द ज्यों के त्यों लिख दिए जो वे लोग बोलते है।मै भी अटका।परेश जी भी।परेश जी ने कहा,श्रीश से कहो इन शब्दों को बदल दे।यह नहीं छाप सकते।मैने श्रीश जी से कहा तो मेरे हाथ से कॉपी ले कर वे परेश जी के कमरे में गए।पीछे पीछे मैं।

श्रीश जी छूटते ही परेश नाथ से बोले,आप तू तड़ाक तो नहीँ बोलते।परेश नाथ बोले कभी नहीं। न बोलूंगा।न गाली देते।न शिश्न बोल सकते।परेश नाथ सकपका गए।बोले क्या हुआ?श्रीश जी बोले जो भली भाषा बोल ही नहीं सकता,जिसका अर्थ ही उसे नहीं पता। उसके मुंह से अच्छी भाषा कैसे बुलवा दूं।वे तो इससे भी नीचे के शब्द बोलते हैं।वह तो मैने संयत हो कर लिखे है।बेईमानी हो जाएगी यदि उनके शब्द न लिखे गए।यह बेईमानी मै तो नहीं करूंगा।

शायद दिल्ली प्रेस के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि मालिक,संपादक ने कहा,आप सही हैं श्रीश जी।कल नाज सिनेमा के पास ऐसी ही एक दुकान पर रुककर मैने उनकी भाषा सुनी।हू ब हू वही थी जो आपने लिखी।फिर मुझसे कहा,ऐसे ही जाने दीजिए।

यह थे श्रीश जी।कोलाहल में भी चुप्पी ओढे अपना काम करते।दिल्ली प्रेस से वे जनसत्ता गए।डेस्क के जादूगर थे।सबको साधते।बगैर झल्लाहट,शोर शराबे के।तूफानी बल्लेबाजों के बीच अपनी धाक जमाते।रिपोर्टर और उपसंपादकों के सनातन द्वंद को निपटाते।जब आलोक तोमर डेस्क के सतीश पेडनेकर से भिड़ जाता तो ठंडे पानी के छींटे श्रीश जी ही डालते।मेरी शाम ज्यादातर जनसत्ता में ही बीतती।यह सब देखता और देखता अपने प्रिय व्यक्ति का गजब का हुनर।वे डेस्क भी सँभालते, व्यक्तियों को भी और आनन फानन प्रभाष जी के आदेश को मानते संपादकीय पृष्ठ पर लिखते भी।बाद में वे जनसत्ता के स्थानीय संपादक भी बने।

पिछले शुक्रवार सांस लेने में आयी दिक्कत को लेकर बालाजी एक्शन हॉस्पिटल में भर्ती हुए श्रीश जी ने गुरुवार की रात इसी अस्पताल के आई सी यू में अंतिम सांस ली।मेडीकल की भाषा में उन्हें वेंटिकुलर टेक्नो कार्डिया रोग हुआ था।यही उनकी मौत का कारण बना।

एक साल पहले हुई उनसे मुलाकात अंतिम होगी नहीं मालूम था।प्रेस क्लब ,दिल्ली में मेरी किताब ‘आंचलिक अखबारों की राष्ट्रीय पत्रकारिता’ का हरिवंश जी ने लोकार्पण किया था।रामशरण जोशी, राहुल देव,रामबहादुर राय, विजयदत्त श्रीधर,राकेश पाठक,राजेश बादल सब थे।मैनें श्रीश जी को फोन किया।आपको आना है श्रीश जी।उधर से आवाज आयी, न आने का कोई कारण ही नहीं है हरीश जी।आप हमारे पुराने मित्र है।आ रहा हूँ।

वे आये।पूरे वक्त रहे।

पर आज मेरे होठों पर सवाल है ।

आपके जाने का भी कौई कारण नहीं था श्रीश जी।67 साल जाने की उम्र तो नहीं होती?यह क्या किया आपने?

पर क्या करूं ?कहीं से कोई उत्तर ही नहीं आ रहा।हर दिशा मौन है।

यही चुप्पी मुझे रुला रही है।

वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार (Ambrish Kumar) लिखते हैं –

जनसत्ता के स्थानीय संपादक रहे श्रीश चंद्र मिश्र के जाने की खबर मिली तो धक्का लगा .कुछ समय पहले उनसे बात हुई थी .किसी की मदद के लिए फोन किया था .वर्ष 1988 में जनसत्ता परिवार का हिस्सा बना था .डेस्क पर था और रात की पाली में में रहता तो दिन में कवरेज के सिलसिले में दिल्ली और आसपास आना जाना होता .दफ्तर आते आते देर हो जाती .पर श्रीश जी के चलते मुझे यह सुविधा मिल जाती थी .वे मेरी दिक्कत को जानते समझते थे .

रात में अक्सर श्रीश जी ही अपने चीफ सब होते .वह दौर जनसत्ता का था .एक तरफ अरुण शौरी इंडियन एक्सप्रेस का मोर्चा संभाल रहे थे तो प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को हिंदी का पहला अख़बार बना दिया था .पर उसे गढ़ने में बहुत से लोग थे .इनमे महत्वपूर्ण भूमिका श्रीश जी की भी थी .

हम लोग कुछ उग्र स्वभाव के भी थे .बाद में एक्सप्रेस प्लांट यूनियन की राजनीति ने और उग्र बना दिया था .विवाद भी चलते रहते .डेस्क पर भी और रिपोर्टिंग में भी .पर वे श्रीश जी ही थे जो जनसत्ता के पत्रकारों को न सिर्फ संभालते बल्कि लगातार काम भी करवा लेते थे अपने स्वभाव से .याद नही कभी किसी ने उन्हें नाराज होते देखा हो .मुस्कराता हुआ चेहरा ,कोई कितने भी गुस्से में हो श्रीश जी के सामने आते ही शांत हो जाता था .ऐसा व्यक्तित्व था उनका .

कितनी विचारधारा के लोग थे जनसत्ता में .गांधीवादी ,समाजवादी,वामपंथी और धुर वामपंथी .इनके साथ संघ परिवार का भी एक बड़ा खेमा था .जाहिर है विचारों की टकराहट होती ,विवाद होता .पर प्रभाष जोशी का अनुशासन ऐसा कि खबरों पर कोई असर न पड़ने पाए यह ध्यान रखा जाता .ऐसे में श्रीश जी डेस्क को संभालते थे .

जनसत्ता को गढ़ने में डेस्क की बड़ी भूमिका भी थी .बड़े राजनीतिक विवाद का दौर था वह .रामनाथ गोयनका तब एक्सप्रेस बिल्डिंग में न सिर्फ बैठते बल्कि अक्सर कारीडोर में दिख भी जाते .अरुण शौरी अक्सर बेसमेंट में बने डेस्क पर आते जाते रहते तो प्रभाष जी देर रात भी पेज देखने आ जाते .कई बार बनते हुए पेज में भी बदलाव करवा देते .स्टाफ कम होता और काम ज्यादा .

अंग्रेजी की स्टोरी का अनुवाद भी होता .बोफोर्स पर अरुण शौरी .गुरुमूर्ति से लेकर मानेक डाबर सब तो लिखते .बोफोर्स की एक स्टोरी के कई हिस्से कर दिए जाते .चार पांच लोग अनुवाद करते फिर अभय कुमार दुबे उसे दुरुस्त करते .इन सब के साथ वे श्रीश जी ही तो थे जो सारी व्यवस्था देखते .कई बार रात में एक या दो साथी होते तो वे खुद खबर बनाने बैठ जाते .फिल्म और खेल तो उनकी दिलचस्पी का क्षेत्र था .श्रीश के नाम से ही लिखते .

दरअसल जनसत्ता की डेस्क को लंबे समय तक श्रीश जी ने ही संभाला भले कोई भी न्यूज एडिटर रहा हो .प्रभाष जोशी भी यह बात जानते समझते थे .और बाद के दो तीन संपादक भी .जनसत्ता को बनाने में डेस्क की बड़ी भूमिका थी तो डेस्क को सँभालने में श्रीश जी की बहुत बड़ी भूमिका थी .कोई अहंकार नहीं कोई दुराव नहीं .और आठ दस घंटे तक काम करते रहना .ऐसे पत्रकार बहुत कम होते है .बहुत याद आएंगे श्रीश जी .बहुत से पत्रकारों को उन्होंने गढ़ा और बनाया और जनसत्ता को बनाने वालों में भी वे प्रमुख थे .

संजय कुमार सिंह (वरिष्ठ पत्रकार) लिखते हैं –

जनसत्ता में बॉस रहे श्रीश चंद्र मिश्र का कल रात निधन हो गया। कुछ दिन पहले उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। डॉक्टरों ने कहा था दो दिन खतरे के हैं। दो दिन तो निकल गए पर वे खतरे से निकल नहीं पाए। उनके मातहत काम करते हुए कभी लगा ही नहीं कि बॉस हैं। मुझे याद नहीं आता कि कभी उन्होंने कुछ पूछा हो कि ऐसा क्यों हुआ, कभी डांटा हो या कुछ आदेश ही किया हो। जो चाहो करो, बस बता दो।

पता नहीं हमारी शैतानियों के लिए उन्हें डांट पड़ती थी कि नहीं, लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि वे एक अच्छे शॉक एब्जॉर्बर की तरह सब झेल जाते थे। खास कर अचानक छुट्टी लेने या गोल हो जाने या तीन बजे की ड्यूटी में छह बजे पहुंचने या छह बजे की ड्यूटी तीन बजे से ही कर लेने पर। मुझे नहीं लगता कि अब मीडिया में उनके जैसा कोई न्यूज एडिटर होगा। पेज का पेज लिख देते थे ना कभी नोट दिखा ना रेफ्रेंस। दफ्तर में बैठकर (उस जमाने में बिना किसी रेफ्रेंस, नोट या कंप्यूटर के) रविवारी के और कई विशेष पन्ने लिख गए होंगे।

फोटुओं के लिए वे जरूर पुरानी पत्रिकाएं पलटते थे और उनके पास पूरा खजाना था। हमलोग एक्सप्रेस की लाइब्रेरी से बम-बम रहते थे पर वे इन सबसे मुक्त थे। एक बार बातचीत में उन्होंने बताया था कि किसी पत्रिका के लिए मातृत्व अंक लिख दिया था और तब उनकी शादी भी नहीं हुई थी। होने को तो वे न्यूज एडिटर थे जिसका काम ड्यूटी लगाना और खबरें छांटना था पर उनके जैसा लिक्खाड़ नहीं मिला।

नमन। श्रद्धांजलि

वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार संजय सिन्हा लिखते हैं –

यही जीवन है। प्रणव रावल ने कल मुझसे पूछा कि ये श्रीश जी कौन थे?
प्रणव मेरे साथ काम करते हैं। पिछले बीस साल से दिल्ली में हैं और उससे पहले भी दिल्ली में ही रहे हैं। कुछ समय उन्होंने अख़बार में काम किया है और उसके बाद से लगातार इलेक्ट्रानिक मीडिया में हैं। कायदे से उन्हें श्रीश जी के बारे में पता होना चाहिए था। पर उन्हें उनके बारे में नहीं पता था। उन्हें उनके बारे में सबसे पहले इतना ही पता चला कि वो अब इस दुनिया में नहीं रहे।

बहुत साल गाजियाबाद के वसुंधरा इलाके में स्थित ‘जनसत्ता अपार्टमेंट’ में रहे हैं। अभी एक साल पहले तक वो वहीं रहते थे। वो वहां के कुछ व्हाट्सएप ग्रुप में जुड़े हैं, फेसबुक पर कुछ जनसत्ताइयों से जुड़े हैं, इसलिए उन्हें इतना तो पता चल ही गया था कि कोई श्रीश जी थे, दो दिन पहले वो नहीं रहे। उन्हें ये भी अंदाज़ा हो गया था कि वो जनसत्ता में थे, इसलिए उन्होंने मुझसे पूछ लिया।

आज के ज़माने में किसी टीवी पत्रकार के पिताजी, दादाजी मर जाएं तो हर मंत्री शोक संदेश भेजने लगता है, वैसे में कभी श्रीश चंद मिश्र जी के लिए ऐसा पूछा जाना कि वो कौन थे मुझे हैरान करने वाला सवाल होना चाहिए था। पर मैं हैरान नहीं था।
प्रणव के पूछने के बाद मैं बहुत देर तक सोचता रहा। श्रीश जी कौन थे? दिल्ली में काम करने वाले छोटे-छोटे पत्रकार तक कुछ-कुछ ऐसा करते रहते हैं कि लोग उन्हें जान जाएं, उनकी कोई पहचान बन जाए, फिर कुछ साल पहले जनसत्ता के स्थानीय संपादक रह चुके श्रीश जी को कोई पत्रकार नहीं भी जानता होगा?

संजय सिन्हा बहुत सोचते हैं। कल भी बहुत देर तक सोचते रहे। मैंने प्रणव से इतना भर ही कहा कि वो जनसत्ता में मेरे बॉस थे। बहुत अच्छे इंसान थे।

रात में मैंने अपनी पत्नी से प्रणव के सवाल के बारे में चर्चा की। मेरी पत्नी ने कहा कि ये श्रीश जी सबसे बड़ी उपलब्धि है कि कोई पत्रकार उन्हें नहीं भी जानता है।

मेरी पत्नी श्रीश जी को अच्छे से जानती थी। वो इंडियन एक्सप्रेस में रह चुकी है और जनसत्ता के एक-एक व्यक्ति को वो जानती है। उसने मुझसे कहा कि संजय, श्रीश जी सचमुच बेहतरीन इंसान थे।

मैंने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं। वैसे मैं बहुत छोटा हूं श्रीश जी की पत्रकारिता का मूल्यांकन करने के लिए, पर बतौर व्यक्ति इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रीश जी जैसा होना असंभव है। बहुत लोग उनके बारे में बहुत कुछ कह चुके हैं, लिख चुके हैं और किसी के इस संसार से चले जाने के बाद उसके मूल्यांकन का कोई अर्थ नहीं रह जाता है इसलिए मैं मृत्यु बाद लिखने की औपचारिकता नहीं निभाने जा रहा। पर इतना ज़रूर कहूंगा कि दिल्ली में काम करने वाले श्रीश जी के स्तर के पत्रकार की इससे बड़ी उपलब्धि नहीं हो सकती कि उन्हें बहुत से लोग नहीं भी जानते थे।

ये उनका व्यक्तित्व था। कभी लाइम लाइट में नहीं रहना। कभी आगे बढ़ कर अपने को प्रोजेक्ट नहीं करना। कभी खुद को नहीं थोपना। छोटे से छोटे व्यक्ति को उसके बड़ा होने का अहसास कराना। मैंने बहुत पहले आपको एक घटना बताई थी और पहली बार श्रीश जी का ज़िक्र किया था तब ये लिखा था कि वो श्रीश जी ही थे जो आसानी से अपनी गलतियों को भी स्वीकार कर लेते थे। और वो भी कब, जब वो न्यूज़ एडिटर थे और गलती बताने वाला सब एडिटर। अखबार की दुनिया में बहुत फासला होता है न्यूज़ एडिटर और सब एडिटर के बीच।

श्रीश जी को फिल्मों का बहुत शौक था। आज मैं याद करने बैठा हूं तो अब लग रहा है कि मेरे भीतर फिल्म और फिल्मी कलाकारों के लिए शौक जगाने वाले श्रीश जी ही थे। कभी विस्तार से पूरी कहानी बताऊंगा। आज तो इतना ही कि श्रीश जी ने ‘आशिकी’ फिल्म का रिव्यू लिखा तो उसमें लिख दिया कि पोस्टर पर मौजूद दृश्य जिसमें एक जैकेट के नीचे हीरो-हीरोइन दोनों हैं, फिल्म में है ही नहीं। अगले दिन मैं फिल्म देख कर आया तो मैंने श्रीश जी से कहा कि आपने गलत लिख दिया कि वो दृश्य फिल्म में नहीं। वो फिल्म का आख़िरी दृश्य है।

श्रीश जी ने मेरी ओर देखा। फिर उन्होंने तुरंत कहा, ओह! बहुत बड़ी गलती हो गई। मैं फिल्म खत्म होने के दो मिनट पहले हॉल से निकल गया था। पर अब ध्यान रखूंगा कि फिल्म पूरी देखूं तभी कोई बात लिखूं। श्रीश जी ने मुझसे पहली बार पूछा था कि क्या आपको फिल्मों में दिलचस्पी है?

मैंने कहा था कि फिल्म कौन नहीं देखता? लोग फिल्म देखते हैं, तभी तो कलाकार भगवान बने बैठे हैं।

श्रीश जी मुस्कुराए थे। उसके बाद उन्होंने मुझे कई असाइनमेंट पर भेजा। सबसे पहले फिल्म अभिनेता संजय खान की शूटिंग पर राजस्थान उन्होंने ही मुझे भेजा था। लंबी कहानी है।

अभी तो इतना ही कहूंगा कि श्रीश जी गुमनामी को पसंद करते थे। अपना काम करते थे और जिनसे उनकी दोस्ती थी, उनके साथ करीब-करीब रोज़ एक बार चाय पीते थे, पान खाते थे। पूरे ऑफिस में वो सभी के थे। ऑफिस में काम करते हुए भी आदमी किसी के बहुत करीब हो जाता है। कुछ लोग खास दोस्त हो जाते हैं। पर श्रीश जी सभी से बहुत स्नेह रखते थे।

मुझे याद आ रहा है कि उस दिन फोन पर मेरे पिताजी के मरने की ख़बर आई थी। मैं रो रहा था।

दोपहर की फ्लाइट से मुझे अहमदाबाद जाना था। घर के फोन पर घंटी बजी थी। मेरी पत्नी ने फोन उठाया था।

“संजय, श्रीश जी बात करना चाहते हैं।”

मैंने कुछ नहीं कहा था। फोन पर बस रो रहा था। उधर से आवाज़ आई, “संजय, यही जीवन है।”

मेरा मन कर रहा था और रोऊं। मन में बार-बार ख्याल आ रहा था कि मैं किसी तरह मर सकूं। अगर मर जाऊंगा तो पिताजी से मिल लूंगा।

पर कानों में गूंज रहा था “यही जीवन है।”

आज सोचता हूं तो लगता है कि उस फोन पर श्रीश जी के कहे उन तीन शब्दों में जीवन का भाव समाहित था।

मैंने कुछ नहीं कहा था। दोपहर की फ्लाइट से अहमदाबाद गया, फिर वहां से बड़ौदा। पिताजी बड़ौदा में थे।

कई दिनों बाद बड़ौदा से दिल्ली आया। उस दिन शाम की शिफ्ट में ऑफिस पहुंचा था। मन उदास था। श्रीश जी सामने बैठे थे। मैं शुक्ला शंभूनाथ जी के साथ राज्यों का पन्ना देख रहा था।

नौ बजे होंगे, ऑफिस थोड़ा खाली हो चुका था। अचानक श्रीश जी मेरे सामने आकर बैठ गए। उन्होंने कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर मेरी ओर देखते रहे, फिर उन्होंने कहा, “यही जीवन है। जो आता है, उसे जाना होता है। अपना ख्याल रखना।”
अपना ख्याल रखना। बतौर मनुष्य श्रीश जी की ये सबसे बड़ी उपलब्धि थी। वो भावनाओं का इज़हार कम करते थे। पर उनमें करुणा का अद्भुत संचार बहता था। मैंने उन्हें कभी किसी की बुराई करते या किसी का नुकसान करते नहीं देखा। एक आदमी की इससे बड़ी उपलब्धि ही नहीं हो सकती कि उसकी बुराई कोई न करे। मैंने पीठ पीछे भी श्रीश जी की निंदा करते किसी को नहीं सुना। वो भी तब जब वो लगातार बॉस वाली स्थिति में रहे हों। आम तौर पर लंबे समय तक सत्ता में रहने वाले को कभी न कभी निंदा का सामना करना पड़ता है, पर श्रीश जी सभी के प्रिय थे। दूर-दूर से आए स्ट्रिंगर तक श्रीश जी के पास बैठ सकते थे। इंटर्न तक उनसे बात कर सकते थे। श्रीश जी मुंह में पान दबाए, उसकी बात सुनते रहते थे, ख़बरें छांटते रहते थे।

Sanjaya Kumar Singh ने अपनी एक टिप्पणी में लिखा है कि वो सभी के लिए शॉक एब्जार्बर थे। ये बात पूरी तरह सच है।

हड़ताल के दिनों में हमें लगता था कि वो हड़तालियों के साथ खड़े हैं। प्रबंधन को लगता था कि वो तो मैनेजमेंट के साथ हैं। श्रीश जी में संतुलन बनाए रखने की विलक्षण प्रतिभा थी।

उनका सुख-दुख कुछ नहीं था। लोग सबसे अधिक उन्हें ही जानते थे। लोग सबसे कम उनके बारे में ही जानते थे। उन्होंने कभी दावा नहीं किया को वो सबसे काबिल पत्रकार हैं, उन्होंने कभी इस बात की तकलीफ नहीं मनाई कि कोई उनसे अधिक योग्य पत्रकार है। सही शब्द का प्रयोग अगर संजय सिन्हा करेंगे तो वही यही होगा कि वो सही मायने में स्थितप्रज्ञ थे।

मैं पत्रकारिता में इस कारण आया था क्योंकि मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी थी। अगर मैं सबसे पहले जनसत्ता में नहीं आया होता तो बहुत पहले पत्रकारिता छोड़ कर भाग गया होता। पर जनसत्ता में मैंने सीखा था कि आदमी को अपने में खुश रहने की विद्या आनी चाहिए। खास कर डेस्क पर नौकरी करते हुए मैंने बहुत लोगों से बहुत कुछ सीखा। श्रीश जी से सीखा अपना आपा कभी नहीं खोना चाहिए। गुमनामी भी एक तरह का नाम है। किसी का बुरा नहीं सोचना, किसी की बुराई नहीं करना, जिसमें जो अच्छा है उससे उसके हिसाब से काम लेना ये सब श्रीश जी का सिखाया हुआ है। कठिन से कठिन परिस्थिति में विचलित नहीं होना और जितने दिन, जब तक काम करें, उसमें ईमानदारी नहीं खोना ये श्रीश जी से कोई भी सीख सकता था।

श्रीश जी कौन थे?

कहने को मैं प्रणव से कह सकता था कि वो जनसत्ता के स्थानीय संपादक थे। उससे पहले वहीं न्यूज़ एडिटर थे। उससे पहले चीफ सब एडिटर थे। उससे पहले सब एडिटर थे। पर मैंने सिर्फ इतना ही कहा वो वो अच्छे इंसान थे।
मेरी मां ने बचपन में मेरे पूछे एक सवाल कि मैं बड़ा होकर क्या बनूंगा, के जवाब में कहा था कि तुम अच्छे इंसान बनना बेटा। मां ने कहा था कि आदमी कुछ भी बन जाए, पर अगर वो अच्छा इंसान नहीं बना तो फिर उसका कुछ भी बनना व्यर्थ हो जाता है।

श्रीश जी एक अच्छे इंसान थे। मैंने कहा न कि उनके काम का मूल्यांकन करने के लिए मैं बहुत छोटा इंसान हूं। पर उनकी जब भी याद आएगी, यही कि वो सचमुच बहुत अच्छे इंसान थे। दुनिया को फिलहाल अच्छे लोगों की ही अधिक ज़रूरत है। ऐसे में श्रीश जी का जाना दिल दुखाने वाला है। पर यही जीवन है।

मेरे पास श्रीश जी कई तस्वीरें हैं। कल रात मैंने हर तस्वीर को गौर से देखा। हर तस्वीर में वो खुद पीछे हैं। उन्होंने कभी खुद को किसी से आगे करने की कोशिश ही नहीं की। वो पीछे रह कर अपना काम करने में यकीन रखते थे। अच्छे लोग ऐसे ही होते हैं।

दीपक दुआ (फिल्म पत्रकार) उन्हें याद करते हुए लिखते हैं –

नमन गुरुवर-

दसवीं के बाद मैंने ‘जनसत्ता’ पढ़ना शुरू कर दिया था… तब तक सिनेमा देखने या सिनेमा के बारे में पढ़ने के प्रति कोई खास दिलचस्पी मेरे अंदर नहीं थी… मगर जब ‘जनसत्ता’ में श्रीश चंद्र मिश्र जी की लिखी फिल्म समीक्षाएं और लेख पढ़े तो धीरे-धीरे सिनेमा के प्रति रुझान बढ़ने लगा…

अपनी सधी हुई कलम और पैनी दृष्टि से वह फिल्मों की ऐसी समीक्षाएं लिखते कि मेरे मन में यह विचार आने लगा कि ‘फिल्म पत्रकारिता’ नाम का भी कोई कैरियर हो सकता है जिसे आगे चलकर अपनाया जाए… कॉलेज पहुंचा तो यह रुझान और बढ़ गया… फिर पत्रकारिता में आया तो मन में ख्वाहिश जगी कि इंटर्नशिप तो ‘जनसत्ता’ में ही करूंगा और जिन श्रीश जी को मन ही मन गुरु मान चुका हूं, उन्हीं से सीखूंगा…

लेकिन 30 दिन की यह इंटर्नशिप कोर्स के आखिरी दिनों में होती थी… साल भर इंतजार करने की बजाय एक मित्र के प्रोत्साहन पर मैं दूसरे ही हफ्ते ‘जनसत्ता’ के दफ्तर में श्रीश जी के सामने जा पहुंचा जो तब वहां समाचार संपादक थे… नाम बताया तो बोले-अच्छा दीपक दुआ ‘दीप’, भई, आप तो हमारे यहां खूब पत्र लिखते रहते हैं, कहिए क्या करेंगे-रिपोर्टिंग…? तो मैंने कहा-नहीं सर, यहीं डेस्क पर बैठ कर आपसे सीखना चाहता हूं…

इंटर्नशिप के 30 दिन बीत गए तो मैंने उनसे कहा कि मेरा एक्सपीरियंस सर्टिफिकेट दे दीजिए… इस पर वह बोले-क्यों, कहीं जाना है क्या आपको…? मैंने कहा-नहीं सर…! बोले-बैठिए फिर… इस तरह वहां मैं कई महीनों तक उनके सामने बैठा काम सीखता और करता रहा… इस बीच विभिन्न पत्रकारिता संस्थानों से कितने ही इंटर्न आए और 30 दिन का इंटर्नशिप करके निकल गए लेकिन मुझे उन्होंने कभी भी जाने के लिए नहीं कहा… मेरी भी हिम्मत न हुई कि उनसे दोबारा पूछूं… इस दौरान उन्हें और करीब से देखा, जाना… पता चला कि ऊपर से बिल्कुल गंभीर दिखने वाले, बहुत कम बोलने और उससे भी कम मुस्कुराने वाले श्रीश जी असल में कितने बड़े हंसोड़ हैं…

सिनेमा के अलावा क्रिकेट पर भी वह सधे हाथों से लिखते थे… फिर बतौर समाचार संपादक दुनिया भर की खबरों पर उनकी नज़र और पकड़ तो रहती ही थी… मुझे पहली बार किसी प्रेस कांफ्रेंस में भेजने का श्रेय भी श्रीश जी को ही जाता है, और प्रेस कांफ्रेंस भी किसकी, सूचना व प्रसारण मंत्री की…

करीब 6 महीने बाद जब मैंने उनसे जाने की इजाजत मांगी तो बोले कि हमने तो आपके लिए कुछ और ही सोच रखा था… उसके बाद अक्सर फिल्मों के प्रेस शोज़ में उनसे मुलाकात होती तो वह बहुत स्नेह से मिलते… करीब साल भर पहले, बरसों बाद वह मिले तो मैंने हर बार की तरह उनके पांव छुए और हर बार की तरह वह सकुचा गए…

आज सुबह खबर मिली कि कल रात श्रीश जी चले गए… पर क्या ऐसे लोग सचमुच चले जाते हैं…? नहीं, वह हमेशा रहेंगे-अपने लेखन के ज़रिए और हम जैसे अपने शिष्यों के लेखन में भी… शुक्रिया श्रीश जी, सिनेमा के प्रति मेरे भीतर समझ पैदा करने के लिए, उस समझ को गाढ़ा करने के लिए… आपके साथ मेरी कोई तस्वीर नहीं है, लेकिन मेरे हृदय में आप हमेशा रहेंगे… नमन गुरुवर…!

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