विवेक सक्सेना
राजनीति के साथ एक सार्वभौम सत्य जुड़ा हुआ है कि उसका चस्का किसी भी पदासीन व्यक्ति को कुर्सी के साथ ऐसे चिपका देता है कि वह उसे आसानी से छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता है। कुर्सी पाने के बाद उस पर काबिज ज्यादातर लोगों का व्यवहार एक जैसा हो जाता है। उन्हें बाकी लोग हेय नजर आने लगते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य येन-केन प्रकारेण अपनी सत्ता बचाए रखना हो जाता है। इसके लिए वे एक जैसे ही हथकंड़े अपनाते हैं। तभी हमें देश में होने वाले चुनाव से लेकर तमाम संगठनों तक के चुनाव में एकाधिकारियों का एक जैसा व्यवहार नजर आता है।
हम पत्रकारों की खासियत यह है कि हम नेताओं के बीच पत्रकार बन जाते हैं और जब पत्रकारों के नेता बनते हैं तो ऐसा आचरण करते हैं कि नेता भी दांतों तले अपनी उंगली दबा ले। हाल ही में हुए प्रेस एसोसिएशन के चुनाव के दौरान इसका ज्वलंत उदाहरण देखने को मिला। प्रेस एसोसिएशन देश में भारत सरकार से मान्यता प्राप्त उन संवाददाताओं का एकमात्र पेशेवर संगठन है जो किसी दल या विचारधारा से बंधे नहीं होते हैं। इस संगठन की अहमियत का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते है कि जब मैं पत्रकारिता की अदालत प्रेस काऊंसिल में प्रेस एसोसिएशन की तरफ से भेजा गया तो तत्कालीन अध्यक्ष व सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीन के जयचंद्र रेड्डी ने पहली ही मुलाकात में मुझसे कहा कि प्रेस एसोसिएशन के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है क्योंकि यह एकमात्र ऐसी संस्था है जोकि पेशेगत रूप से पत्रकारिता में आए लोगों का प्रतिनिधित्व करती है।
खैर काफी लंबे अरसे से मैं प्रेस एसोसिएशन की राजनीति से दूरा रहा। हर बार उसके एक सदस्य के रूप में मतदान करने पहुंच जाता था। हमें अक्सर पता भी नहीं चलता था कि कब उसका चुनाव हो गया। हमारे समय में तो पोटा सरीखे ज्वलंत विषयों पर सेमिनार होते थे। लोग एसोसिएशन को सक्रिय रखते थे। अक्सर पदाधिकारियों का फोन आ जाता था कि हमारे अमुक सदस्य अब इस दुनिया में नहीं रहे इसलिए तुम एसोसिएशन की ओर से उनकी अंतिम यात्रा में पुष्यगुच्छ लेकर शामिल हो जाओ।
हाल में एक दिन अचानक मनमोहन जी प्रेस क्लब में मिले और बोले कि आज नामांकन भरने का अंतिम दिन है, प्रेस एसोसिएशन के दफ्तर चलना है। वे एक साथी को इस चुनाव में खड़ा करना चाहते थे। मुझे प्रस्तावक के रूप में जाना था। जब वहां पहुंचे तो देखा कि दफ्तर में ताला बंद है। तीन घंटे बाद नामांकन भरने की समय सीमा समाप्त हो रही थी। किसी का कुछ पता नहीं था मौजूदा पदाधिकारी फोन ही नहीं उठा रहे थे।
अतः हम लोग ऊपर जाकर अफसरों से मिले और उन्हें सारी बात बताई। सरकारी मशीनरी सक्रिय हुई व घंटे भर बाद ताला खुला। मनमोहनजी ने जबरन मेरा भी नामांकन भरवा दिया। और एक बार फिर मुझे दशकों बाद चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतरना पड़ा। चुनाव की प्रक्रिया शुरू होते ही सभी हथकंड़े नजर आने लगे जो कि सत्तारूढ़ दल अपनाते आए हैं। जैसे कि नामांकन की अंतिम तिथि के पहले दफ्तर बंद कर देना। आधी अधूरी मतदान सूची देना। जिसमें या तो फोन नंबर गलत दिए गए थे अथवा थे ही नहीं।
मेरे समेत 10 नाम ऐसे थे जो कि दो-दो जन्म पर थे। मैं तकनीक विरोधी नहीं हूं मगर जो मौजूद अच्छे आधुनिक सेलफोन हैं वे मेरे बस के नहीं हैं। कुछ दबाओं तो स्क्रीन पर कुछ और ही आ जाता था। मैंने न तो किसी को एसएमएस किया और न ही व्हाट्सअप का इस्तेमाल किया। अपने पीके मनमोहनजी की सलाह पर अमल किया। फोन पर संपर्क किया। मनमोहन भी सक्रिय हो गए थे। फोन करने के दौरान पता चला कि इस संगठन की कितनी दुर्गति हो चुकी थी। पांच मामलों में ऐसा हुआ कि जब किसी महिला ने फोन उठाया और मैंने अपना परिचय देने के बाद उनसे पूछा कि भाईसाहब हैं तो जवाब मिला कि उनका तो इतने साल पहले निधन हो गया।
एक परिचित ने कहा कि तुम चुनाव लड़ रहे हो? मेरे हां कहने पर उन्होंने नाराजगी भरे स्वर में कहा कि तभी आज याद कर रहे हो। जब डेढ़ महीने पहले मेरा दिल का आपरेशन हुआ था तब तो किसी ने मुझे फोन नहीं किया था। उनकी नाराजगी व शिकायत जायज थी। सूचना क्रांति के आज के युग में जब हम ट्रंप तक की निजी जिंदगी की खबरें एक दूसरे को भेजते हैं तब हमें यह नहीं पता होता कि हमारे अपने साथियों के साथ क्या हो रहा है? वे किस हालत में कहां हैं? तभी मैंने तय कर लिया कि अगर चुनाव जीता तो अपने साथियों के साथ मिलकर एक ऐसी साइट शुरू करवाऊंगा जिससे हमें यह पता चलता रहे कि कौन पत्रकार कहां है। उनके सुख-दुख की खबरें आपस में एक-दूसरे तक पहुंचती रहे।
इस चुनाव दौरान जमकर प्रचार और दुष्प्रचार हुआ। जाति, धर्म, इलाके के आधार पर कुछ उम्मीदवारों ने अपने खिलाफ बन रहे माहौल को टालने की कोशिश की पर उनके हाथ निराशा ही लगी। कहीं हिंदी-अंग्रेजी की बात की गई तो कहीं उत्तर व दक्षिण भारत की मगर तमाम हथकंड़े असफल रहे।
हर वोट कीमती था। सुनील राजेश ने प्रेस एसोसिएशन पर कुंडली मारे बैठे लोगों के लिए जो नारा तैयार किया उसने कमाल का जादू दिखलाया। जब मैंने पीटीआई के पूर्व प्रबंधक श्री राजदान, कूमी कपूर, नीरजा चौधरी, कल्याणी शंकर, विनोद शर्मा, व्यंकटेश केसी सरीखे वरिष्ठ पत्रकारों को आते देखा तो लगा कि सत्ता परिवर्तन का हमारा अभियान सफल होने वाला है। प्रेस एसोसिएशन के इतिहास में कभी ऐसा रिकार्ड मतदान नहीं हुआ था। जाकिर देशमुख, सुरेश से लेकर अपने वरिष्ठ साथी शंकर स्वरूप शर्मा तक सारा दिन जुटे रहे। संजय शर्मा अलग सक्रिय थे।
मुझे तब बेहद आश्चर्य व खुशी हुई जब मैंने देखा कि एक 94 वर्षीय बुजुर्ग वेद प्रकाश अरोड़ा भी किसी का सहारा लेकर प्रेस क्लब की ओर आ रहे हैं। उन्होंने न केवल मुझे पहचाना बल्कि सिर पर हाथ रखकर अपना आशीर्वाद भी दिया। मैं समझ सकता हूं कि वोट डालने के लिए उन्हें न केवल पिछले कुछ वर्षाे का बकाया सदस्यता शुल्क चुकाना पड़ा बल्कि इस उम्र में आने जाने की पीड़ा भी झेलनी पड़ी। फिर भी वे सिर्फ इसलिए आए ताकि प्रेस एसोसिएशन को बिरादरी के लिए जिंदा रख सकें। वहीं जमालुद्दीन अहमद तो सारा कामकाज छोड़कर भोपाल से आए थे।
हम पत्रकारों का देश की तमाम बड़ी हस्तियों, नेताओं से मिलना आम बात है। मगर पिछले कुछ वर्षों में उनकी हैसियत की किस तरह तौहीन हुई है इसका उदाहरण उसके दफ्तर में राष्ट्रपति के साथ खिंचाई नई प्रेस एसोसिएशन के पदाधिकारी की तस्वीर है। इसमें राष्ट्रपति अकेले कुर्सी पर बैठे हैं व प्रेस एसोसिएशन के पदाधिकारी उनके सामने कतार लगाकर ऐसे खड़े हैं, जैसे कि शादी मं दुल्हा दुल्हन को खाना परोसते समय बैरो की टीम खड़ी होती है।
काश! उन लोगों ने प्रेस क्लब में वहां के पदाधिकारियों के साथ खिंचवाई गई राष्ट्रपति की तस्वीर भी देखी होती। हम लोगों को भी राष्ट्रपति ने सपरिवार मुगल गार्डन देखने के लिए आमंत्रित किया था। उस दिन पूरे मुगल गार्डन में सिर्फ पत्रकार व उनके परिवार के सदस्य ही थे। बच्चे किसी भी फल व फूल को छू कर देख सकते थे। राष्ट्रपति ने बड़े मान-सम्मान के साथ हमें जलपान करवाया और अगली बार मुलाकात करने का वादा करते हुए विदा किया। अब नए पदाधिकारियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस संगठन की प्रतिष्ठा व विश्वसनीयता बहाल करते हुए सबको जोड़े रखने की है।
(साई फीचर्स)