क़मर वहीद नक़वी
गटर गटर खेलो! गटर गटर डूबो! न मेरी शरम, न तेरी शरम! यह लम्पट राजनीति का नया मंत्र है! होड़ है! कौन कितना गहरे गटराता है और कितनी बड़ी गन्दगी बेचता है! इतना गटरीला, इतना ज़हरीला चुनाव पहली बार देखा! और मज़े की बात है कि लोग उम्मीद से हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं!raagdesh_आओ, पत्रकार का ई-मेल हैक करें!
झूठ बम, ज़हर बाण और गटर मिसाइलें. चुनावी चक्रव्यूह में ऐसे मारक हथियारों का आविष्कार पहली बार हुआ है! क्यों? सोचने वाली बात यही है! जिस चुनाव में विकास को सबसे बड़ा मुद्दा बना कर मौजूदा सरकार पर हमला बोला गया, जिस चुनाव में ‘गुड गवर्नेन्स’ यानी सुशासन के बड़े-बड़े दावे लेकर दिल्ली पर चढ़ाई की गयी, जिस चुनाव में हज़ारों करोड़ रुपये एक नेता की पैकेजिंग पर फूँक दिये गये, उस चुनाव में आख़िर झूठ, ज़हर और गटर का सहारा क्यों लिया जा रहा है, आख़िर क्यों? अगर जवाब जानना ही चाहते हैं तो सोचिए और अपने आप से ही पूछिए!
‘पप्पू’ और ‘फेंकू’ से जो ‘राजनीतिक विमर्श’ शुरू हुआ था, वह हिन्दू-मुसलिम ध्रुवीकरण से होते हुए अब किसी के विवाह और किसी के प्रेम तक पहुँच गया है! और यह सब कुछ अचानक नहीं हुआ, ग़लती से नहीं हो गया, बल्कि सोच-समझ कर साज़िशें रच कर किया गया! झूठ के पुलिंदे उछाले गये, फ़र्ज़ी कहानियाँ फैलायी गयीं, किसी की फ़र्ज़ी चिट्ठी बना कर फ़र्ज़ी ख़बरें बनवायी गयीं, फिर किसी इमरान मसूद ने अपने पुराने भड़काऊ भाषण के टेप ख़ुद लीक करा दिये, तो ‘साहेब’ के सबसे चहेते सेनापति हिन्दुओं को ‘अपमान का बदला ले लेने’ के लिए भड़का आये, गाली-गलौज के तीर चले और फिर जैसा कि हर युद्ध में होता है, इस युद्ध में भी अन्ततः महिला को ही तार-तार किया गया!
इन चुनावों का जसोदा बेन से क्या लेना-देना था? कोई बतायेगा भला? और इन चुनावों का किसी महिला पत्रकार के एक विधुर काँग्रेसी नेता से प्रेम सम्बन्धों से भी क्या लेना-देना? ख़ास बात यह कि ये दोनों ही मामले आज के नहीं, कुछ बरस पुराने हैं. मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद से जसोदा बेन के मामले को तो गुजरात विधानसभा के पिछले क़रीब-क़रीब हर चुनाव में कुछ लोग उछालने की कोशिशें करते रहे हैं. इक्का-दुक्का जगह यह छपता-छपाता भी रहा, लेकिन न तो कभी किसी ने इस पर ध्यान दिया और न कभी यह कोई चुनावी मुद्दा बना! लेकिन इस बार अब बड़े ज़ोर-शोर से सवाल दाग़े जा रहे हैं कि जो व्यक्ति अपनी पत्नी को न सम्भाल पाया, वह देश को क्या सम्भालेगा? मतलब क्या हुआ इसका? पत्नी को न सम्भाल पाया? मतलब? पत्नी कोई सामान है? सम्पत्ति है? पति मालिक है उसका? पत्नी उसकी जायदाद है? आसानी से समझा जा सकता है कि जो लोग ऐसे सवाल उठा रहे हैं, वह महिलाओं को क्या समझते है और उन्हें लेकर क्या सोच रखते हैं?
मोदी देश सम्भाल पायेंगे या नहीं, उनकी क्षमताओं पर सन्देह करने के लिए बहुत-सी बातें हैं और कही जा सकती हैं. सबसे बड़ी बात यही कि मोदी का करिश्मा रचने के लिए जितने झूठे दावे किये गये, जितनी झूठे क़िस्से गढ़े गये, उन सबकी असलियत सामने आ चुकी है. मोदी जिन बातों का विरोध किया करते थे, जिन बातों की खिल्ली उड़ाया करते थे, आज वह मानते हैं कि वे सारी बातें करना ज़रूरी है. वह मान चुके हैं कि विपक्ष में रहना और बात है और सरकार चलाना और बात है. संघ के एजेंडे को चलायेंगे या नहीं, इस पर वह ख़ुद जवाब दे चुके हैं कि देश संविधान से चलता है. इसका क्या अर्थ निकाला जाये? यानी संघ का प्रचारक होने के बावजूद क्या अब वह मानते हैं कि संघ का एजेंडा संविधान की भावनाओं के प्रतिकूल है? इन बातों को लेकर सवाल उठाइए और जवाब तलाशिए कि मोदी देश सम्भाल पायेंगे या नहीं, न कि जसोदा बेन से हुई शादी को लेकर, जो किन कारणों से नहीं चल सकी, किसी को नहीं मालूम. और वह कारण किसी को मालूम भी क्यों होने चाहिए, जब तक वह क़ानूनी तौर पर किसी अपराध के दायरे में नहीं आते और जसोदा बेन ख़ुद उसके लिए क़ानून का दरवाज़ा नही खटखटातीं!
इसी तरह एक महिला पत्रकार के प्रेम सम्बन्धों को लेकर चुनावी चटख़ारे लगाने का मतलब? उसकी तसवीरें और ई-मेल पर हुए उसके संवादों को सोशल मीडिया पर बँटवाने और उन पर भद्दी, फूहड़ टिप्पणियाँ करने के पीछे की असली मानसिकता क्या है? जो लोग इस साज़िश के पीछे हैं, वे कौन हैं? उस पत्रकार का ई-मेल किसने हैक किया? ज़ाहिर-सी बात है कि किसी ने पूरी तैयारी से और सोच-समझ कर यह साज़िश रची, ताकि दिग्विजय सिंह के चरित्र-हनन के बहाने काँग्रेस को घेरा जाये. यह षड्यंत्र किसका है, इसका अनुमान तो कोई बच्चा भी लगा सकता है! एक नितान्त निजी मामले को एक राजनीतिक हथकंडा बनाने की यह घिनौनी हरकत यह बताती है कि ऐसे गिरोह की मानसिकता कितनी महिला-विरोधी है?
यही नहीं, सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि यह सवाल आज कोई नहीं पूछ रहा है कि अवैध ढंग से एक पत्रकार का ई-मेल किसने और क्यों हैक किया? और कौन जानता है कि गिरोह कितने और पत्रकारों के ई-मेल हैक कर चुका है, कर रहा है और करने की तैयारी में है? ख़ासकर तब, जब गुजरात में एक महिला की अवैध ख़ुफ़िया निगरानी और फ़ोन टैपिंग का मामला सामने आ चुका हो. कौन जाने, गुजरात में ऐसे और कितने मामले हो चुके हों? कौन जाने गुजरात के कितने पत्रकारों के ई-मेल की ऐसे ही अवैध निगरानी और पड़ताल होती हो? और कौन जाने विकास के बहुत-से भोंपुओं के पीछे की असलियत क्या यही तो नहीं है?
इस चुनाव में नेताओं की भाषा हिंसक हुई, रैलियों, सभाओं और चुनाव-प्रचार में गाली-गलौज आम बात हो गयी, हिन्दू-मुसलिम ध्रुवीकरण को बाक़ायदा योजना बना कर कराया गया, राजनीति घटियापन के निम्नतम स्तर पर जा कर हुई, नेताओं और पार्टियों का महिला-विरोधी पुरुषवादी चरित्र एक बार फिर बेनक़ाब हुआ (और अब महिलाओं को समझ में आ जाना चाहिए कि संसद और विधानसभाओं में उन्हें आरक्षण देने का मामला क्यों इसी तरह अटका रहेगा), राजनीति के कुछ षड्यंत्रकारी गिरोहों की साज़िशें एक के बाद एक सामने आयीं, मीडिया की भूमिका पर लगातार सवाल उठे और अन्ततः अब यह ख़तरा वास्तविक और भयावह नज़र आ रहा है कि पत्रकार किस प्रकार शायद किसी अवैध गिरोह की निगरानी में होंगे. और चुनाव के बाद, अगर ‘अच्छे दिनों’ वाले लोग आ ही गये, तो अनुमान लगा लीजिए कि वे दिन कितने अच्छे होंगे!
(लोकमत समाचार, 4 मई 2014)
(लेखक के ब्लॉग ‘रागदेश’ से साभार)