दीपक शर्मा,पत्रकार,आजतक
मनोज के बच्चों का ख्याल रखना
कुछ लिखने जा ही रहा था कि एक पोस्ट पर नज़र पड़ी. दिल तोड़ने वाली पोस्ट . एक बुरी खबर. हमारे पुराने साथी और लखनऊ के जाने माने पत्रकार मनोज श्रीवास्तव की मौत की खबर.
मौत से दुखद क्या है इस दुनिया में ? लेकिन पत्रकार की मौत और भी दुखद होती है. मौत के साथ घर के कमाने का साधन भी चला जाता है. मजदूरों के संघ तो फिर भी मज़बूत हैं पत्रकारों के संघ तो प्रेस क्लब से आगे नही बढ़ पाते . छोटे जिलों और क्षेत्रीय समाचार पत्रों में तो स्थिति और भी दयनीय है. कई श्रमजीवी पत्रकार मूल सुविधाओं के लिए दलाल बनने को मजबूर हो जाते हैं. आखिर 4-5 हज़ार रूपए की तनखा में कोई कैसे घर चला सकता है.
कोई पेंशन नही. कोई चंदा नही. बहुत से संस्थानों में पीएफ का भी पैसा नहीं मिलता.और नौकरी ऐसी जो एक झटके में हलाल हो जाती है.
मित्रों, कुछ बड़े एंकर , टीवी पत्रकार और राजनीतिक संवाददाताओं को छोड़ दीजिये तो सामान्य रूप से वेतनभोगी पत्रकारों की देश में दुर्दशा है. मैंने ऐसे ऐसे पत्रकार देखें है जो कभी नौकरी और कभी बेरोज़गारी की पारी खेलते खेलते डिप्रेशन में चले गये या सस्ती शराब पी पी कर बिखर गये. ऐसे कई पत्रकार है जो ज़िन्दगी भर की रिपोर्टिंग के बाद एक घर ना बना सके. डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों और फ़ोटोग्राफ़रों के हालात तो मिल वर्कर से भी ख़राब है.
कहीं मालिक की चाबुक है, कहीं मंत्री की धमकी , कहीं घर की बेचार्गियाँ. वर्तमान का तनाव है और अनिश्चित भविष्य है. सलाम है उनको जो फिर भी अपनी कलम बिकने नही देते.
लखनऊ के मित्रों, मनोज के बच्चों का ख्याल रखना. मेरे लायक कुछ भी तो ज़रूर बताना. आओ सिर्फ शराब पीने के लिए प्रेस क्लब न बनाएं…. किसी का घर बचाने के लिए भी कुछ सोचें.कुछ पैसे जोड़ें.मनोज जैसों के घर के लिए कोई खाता खोलें.
(स्रोत-एफबी)