इस्मत चुगताई की कहानी “घरवाली” का मंचन

प्रेस विज्ञप्ति

इस्मत चुगताई की कहानियों को मंच पर साकार कर पाना इतना भी आसान नहीं. स्त्री मन की संवेदना को जिस धागे से इस्मत ने अपनी कहानियों में छुआ है वह काबिले-मिसाल है. उसी धागे को पकड़ने की एक कोशिश में इस्मत की एक कहानी “ घरवाली” का मंचन एलटीजी ऑडिटोरियम, मंडी हाउस में शनिवार शाम किया गया. यह कार्यक्रम मिलेनियम फौंडेशन के बैनर तले हुआ. मिलेनियम फौंडेशन एक स्वयंसेवी संस्था है जो महिला कल्याण की दिशा में काम कर रही है. यह संस्था पिछले दो साल से “आधी आबादी” नाम से एक महिला केंद्रित समसामयिक विषयों पर मासिक पत्रिका भी निकाल रही है. जिसकी संपादक और मिलेनियम फौंडेशन की निदेशक मीनू गुप्ता कहती हैं- हमारी तमाम कोशिश नारी को उसके अस्तित्व से पहचान कराने के लिए ही हैं!

अहले महीने यानी कि ठीक पन्द्रह अगस्त को इस्मत की जन्मशताब्दी है. उन्हीं के सम्मान में “ घरवाली” का मंचन हुआ. ईद के मौके को और भी खास बनाता यह कार्यक्रम लगभग दो घंटे तक चला. घरवाली दरअसल एक ऐसी लड़की की कहानी है जो अनाथ है, सड़कों पर ही पली, बढ़ी और ज़माने भर के दर्द को खुद में समेटे जिंदादिली से जीती है. लोगों के घरों में काम करती है, पिटती है और कई बार उनका हवस तक मिटाती है. उसे किसी बात पर पछतावा नहीं और न ही कोई शर्मिर्दिंगी है. नाम तो उसका लाजो है लेकिन लाज-शर्म से उसका कोई परिचय नहीं. इसी क्रम में उसका नया ठिकाना बनता है मिर्ज़ा का मकान. जिसे वो बड़े ही जतन से अपना बना लेती है. मिर्ज़ा मियां अकेले रहते हैं, लाजो का साथ पाकर खिल उठते हैं. पूरे मोहल्ले की धड़कन है लाजो. चाहे पान वाला चौरसिया हो या फिर दूध वाला कन्हैया सब उसकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं और लाजो किसी को निराश भी नहीं करती. वो तो बहते दरिया की तरह अल्हड़, मस्त और बेपरवाह है. कोई बंधन नहीं, आज़ाद! पड़ोस की दादी के रूप में उसे एक हमदर्द भी मिलता है. जिससे वो खुल कर अपनी सारी बात कर लेती है.

मिर्ज़ा मियां लाजो के जादू से बहुत दिनों तक नहीं बच पाते और आखिरकार उनकी कामवाली उनकी घरवाली बन जाती है. यहीं से सारी मुश्किलें खड़ी होती हैं, क्योंकि जो लाजो आज़ाद थी, बेपरवाह थी अब एक बेगम है. अब उसे परदे में रहना है. लाजो को ये नयी ज़िन्दगी रास नहीं आती. वो मिर्ज़ा से शादी करके खातून तो बन जाती है पर अपने भीतर के लाजो को नहीं मार पाती. जबकि मिर्ज़ा चाहते हैं वो बंधन में रहे क्योंकि अब वो उसकी बीवी है. लेकिन, लाजो को बांधना उनके बस में नहीं! आखिरकार लाजो और मिर्ज़ा का तलाख हो जाता है. लाजो खुश है तलाख लेकर लेकिन वो मिर्ज़ा की सामाजिक प्रतिष्ठा को लेकर चिंतित भी है. हल ये निकलता है कि लाजो एक नाजायज है और उससे मिर्ज़ा की शादी भी नाजायज है और जब शादी ही नहीं हुई तो फिर तलाख कैसा? अंत में कुछ ऐसा होता है कि लाजो मिर्ज़ा के यहाँ पहले की तरह ही कामवाली बनकर रहने आ जाती है.

संवाद के स्तर पर “घरवाली” बेहद ही असरदार है. हल्की गाली-गलौज भी है लेकिन वह कहीं से भी अश्लील या फूहड़ नहीं लगती. वो कहानी का हिस्सा सी मालुम होती हैं. लाइट,ध्वनि, संगीत सब ऐसे कसे हुए कि दर्शकों को अंत तक बांधे रखता है. दिल्ली ने बहुत दिनों के बाद ऐसा कोई नाटक देखा जहां दर्शक अपनी सीट से अंत तक चिपके रहे, दो घंटे में तीन सौ दर्शकों के बीच कोई भी ऐसा नहीं था जिसने अपना फोन तक उठाया हो. लाजो का किरदार निभाती नेहा गुप्ता और मिर्ज़ा के किरदार में कोकब फरीद, दादी के किरदार में नंदिनी बनर्जी ने जैसे जान डाल दी हो. फकीर के चोले में नील ने बहुत ही अच्छे से अन्य किरदारों के साथ मिलकर ढेरों सुरीले तान छेड़े जो कहानी का हिस्सा ही लगा और ये सभी गीत लाइव गाये गए. बंगला अभिनेता और निर्देशक शुद्धो बनर्जी के निर्देशन में कुल मिलाकर एक सफल नाटक.

शुद्धो कहते हैं- आप सबने जिस स्नेह से नाटक देखा और तालियाँ बजायीं ये हमारा पुरस्कार है. आपप घर जाइए और सबको बताइए कि आज भी नाटक लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है ताकि वे लोग भी यहाँ पहुंचे जो इस दुनिया से अपरिचित हैं.
रिपोर्ट- हीरेंद्र झा, सहायक संपादक, आधी-आबादी

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