1. कल फ़िल्म सिटी नोएडा में कुछ रो रहे थे, कुछ उनसे दिलासा पा रहे थे, जिनकी नौकरी बच गई। कुछ भविष्य की योजना बना रहे थे और जो दिलेर क़िस्म के थे वो चौपाटी पर नकली हंसी हंस रहे थे। ग़ुस्से से ज़्यादा मज़बूरी थी सबके चेहरे पर। दसेक लोगों से बात हुई…लड़ना कोई नहीं चाहता।
लड़ाई किससे होगी? IBN-7 और CNN-IBN के मालिक अंबानी का तक़रीबन हर छोटे-बड़े चैनल में पैसा है। अगर विरोध करेंगे तो किसी भी चैनल में नौकरी मिलने की संभावना क्षीण।..और माफ़ कीजिए, पत्रकारों में मज़दूरों वाला जिगरा नहीं है कि वो तीन महीने का अग्रिम वेतन ठुकराकर मैनेजमेंट से भिड़ जाए।
तक़रीबन हर पत्रकार मैनेजमेंट के क़रीब आना चाहता है और निकाले जाने के बाद ठगा गया-सा महसूस करता है। क्या निकाले गए लोगों की कोई योजना है विरोध-प्रदर्शन की? क्या DUJ जैसी पत्रकारों की यूनियन कुछ बोल/कर रही है? BEA ख़ुद को एडिटोरियल और NBSA कंटेंट दुरुस्त करने तक सीमित मानती है। प्रेस काउंसिल के पास कोई अधिकार है नहीं। संसद की स्थाई समिति लाख सिफ़ारिश दे दें, कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम सच्चाई है मीडिया की, जिसे बंद कराना उसके बूते नहीं है। श्रमजीवी पत्रकार क़ानून गुमनाम मौत मर चुका है। बिना किसी को बताए। टीवी-18 ग्रुप के पत्रकारों से बड़ी बेदख़ली इस क़ानून का मरना है।
2.दबी ख़बर तो टीवी टुडे ग्रुप को लेकर भी आ रही है। कल ही कोई बता रहा था कि वहां भी ऐसा ही कांड होने वाला है। पिछले छह महीने में NDTV में हुआ, दैनिक भास्कर में हुआ, आउटलुक ग्रुप में हुआ, टीवी-18 ग्रुप में हुआ। अब टीवी टुडे भी कोशिश में है। उधर KPMG-FICCI सर्वे हर साल बताता रहता है कि भारत में मीडिया बिजनेस आने वाले वर्षों में कुलांचे भरेगा। क्या है ये सब? कौन सा बिजनेस?? किसका बिजनेस?
(दिलीप खान के फेसबुक वॉल से साभार)