भोपाल, 30 मई । शिक्षा व्यवस्था में स्वायत्ता के सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि शिक्षा के साथ-साथ शिक्षा से जुड़ी अर्थव्यवस्था एवं प्रशासनिक व्यवस्था शिक्षक के हाथ में हो। प्राचीन भारत में इस तरह की शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध थी। आज भारत में शिक्षक अधिष्ठाता तो है परंतु वह प्रशासनिक-आर्थिक व्यवस्था उपलब्ध कराने वाले लोगों के अधीन होकर कार्य कर रहा है। यह विचार हिन्दी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में पुनुरुत्थान ट्रस्ट की मंत्री एवं पुनुरुत्थान विद्यापीठ की संयोजक सुश्री इंदुमति काटदरे ने व्यक्त किये।
भारत के पुनर्निर्माण के लिए शिक्षा पर कार्य कर रही संस्था पुनुरुत्थान विद्यापीठ एक मुख्य शिक्षा संगठन है जिसका लक्ष्य भारतीय ज्ञान-विज्ञान को शिक्षा की मुख्य धारा बनाना है। विद्यापीठ की संयोजक सुश्री इंदुमति ने कहा कि प्राचीन भारत में शिक्षा में आर्थिक-प्रशासनिक व्यवस्था शिक्षक ही करता था। राजा एवं समाज के धनी लोग इस व्यवस्था में सहयोग करते थे। यह सहयोग ज्ञान की सेवा करने का सम्मान मानकर किया जाता था। यदि राजा गुरुकुल में जाता तो उसे भी विनीत वस्त्र धारण करने होते थे साथ ही विनीत व्यवहार भी करना होता था। गुरुकुल अथवा आश्रम में दस हजार छात्रों की शिक्षा, भोजन एवं आवास व्यवस्था करने वाला कुलपति कहलाता था और इस कार्य के लिए उसे सभी आर्थिक-प्रशासनिक अधिकार एवं दायित्व प्रदान किये जाते थे। यह माना जाता था कि ज्ञान के प्रसार में स्वायत्ता सबसे ऊपर होना चाहिए। विगत दो शताब्दियों में अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार से यह व्यवस्था पूर्णतः समाप्त हो गई है।
सत्ता के तीन रूपों शासन सत्ता, अर्थ सत्ता एवं धर्म सत्ता में सबसे ऊपर धर्म सत्ता को रखा गया है। यह माना जाता था कि शासन एवं अर्थव्यवस्था धर्म के अधीन रहेंगी। धर्म का संबंध समाज से था अर्थात धर्मतंत्र का प्रतिनिधित्व करने वाली शिक्षा व्यवस्था भी देश को प्रगति के पथ पर ले जा सकती है। हमारे यहाँ आज भी गाँव का शिक्षक पूरे गाँव का गुरुजी होता है और शिक्षा के साथ-साथ अन्य पक्षों पर भी समाज का मार्गदर्शन करता है। शिक्षा हमेशा समाज को मार्गदर्शन देने वाली रही है। अतः जरूरी है कि आज भी शिक्षा का संचालन एवं नियंत्रण शिक्षक के हाथों में ही रहे, यही सच्चे अर्थों में स्वायत्ता है। स्वायत्त शिक्षा कैसी हो इस पर आज विचार करने की आवश्यकता है। शिक्षा में स्वायत्ता लाने के लिए तीन बातें जरूरी हैं प्रथम शिक्षा का संचालन शिक्षक के हाथ में होना चाहिए, द्वितीय इस पर हमारी पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास होना चाहिए, तृतीय शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग होते रहना चाहिए। इन तीनों पहलुओं के अमल से ही शिक्षा में स्वायत्ता संभव है।
अध्यक्षीय उद्बोधन में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने कहा कि राष्ट्र, समाज एवं मानव के निर्माण में अपना सर्वश्रेष्ठ देना शिक्षक का कार्य है। इस दृष्टि से शिक्षा के संबंध में गहन चितन मनन की आवश्यकता है। शिक्षा को स्वायत्त बनाने के प्रयास में शिक्षकों को आगे आना होगा और इसमें समाज को भी सहयोग प्रदान करना होगा। उन्होंने कहा कि पुनुरुत्थान विद्यापीठ के कार्य में विश्वविद्यालय भी सहयोग करेगा। विशेषकर भारतीय शिक्षा शास्त्र के निर्माण का जो प्रयास पुनुरुत्थान विद्यापीठ कर रहा है उसमें विश्वविद्यालय के शिक्षकों एवं अधिकारियों का सहयोग रहेगा। हिन्दी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर प्रो. कुठियाला ने कहा कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में बताये गये शिक्षा, संचार एवं पत्रकारिता के सिद्धान्तों से ही भारत का पुनर्निर्माण हो सकता है। विश्वविद्यालय ने इसी उद्देश्य से महर्षि नारद, भरतमुनि, महर्षि पतंजलि, पाणिनि, महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, पीठ की स्थापना की है। इन शोध पीठ के माध्यम से सामाजिक संचार, संवाद व पत्रकारिता के सिद्धान्तों एवं व्यवहार की व्याख्या की जायेगी। जिस तरह महर्षि नारद द्वारा बताये गये नारद सूत्र लोकमंगल एवं राष्ट्र के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
(डा. पवित्र श्रीवास्तव)
निदेशक, जनसंपर्क विभाग