हिंदी दिवस या हिन्दी विमर्श: व्यंग्य

एम् एम्. चन्द्रा

हिंदी दिवस पर बहस चल रही थी. एक वर्तमान समय के विख्यात लेखक और दूसरे हिंदी के अविख्यात लेखक. हम हिंदी दिवस क्यों मानते है? कोई दिवस या तो किसी के मरने पर मनाया जाता है या किसी उत्सव पर, तो ये हिंदी दिवस किस उपलक्ष में मनाया जा रहा है. अविख्यात लेखक महोदय तुरंत बोल उठे! आज के दिन हिंदी व्यापार दिवस है. हिंदी को बेचने वालों और खरीदने वालों की मंडी लगी है. इस दिन लेखक अपने ऊपर होने वाली इनायत का फल भोगते है. यही हिंदी विभ्रम! सॉरी हिंदी दिवस! सॉरी हिन्दी विमर्श की सार्थकता है.

ऐसी कोई बात नहीं अविख्यात लेखक जी! पिछले कुछ दिनों से हिंदी विमर्श भी चल रहा है- हिंदी वाले अंग्रेजी में हस्ताक्षर क्यों करते है ? उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूल में क्यों पड़ते है. बलकट हिंदी और बलकट अंग्रेजी का बंद हो . हिंगलिश क्यों? हिंदी बिकती क्यों नहीं है? पुरस्कार राशि बहुत कम है. क्या ये मुद्दे हिंदी विमर्श के नहीं है. दिन रात हिंदी में आलोचकों और समीक्षकों पर विमर्श भी तो हो रहा है .मठ मठाधीश पर भी खूब लिखा जा रहा है. इन्हीं सब से तो हिंदी का विकास होगा. किसी के रचनाकर्म पर विमर्श करने से हिंदी का भला तो होने वाला नहीं .

सरकारी गैर-सरकारी संस्थाएं भी तो हिंदी सम्मेलन, हिंदी पखवाड़ा, अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस पर भी तो करोड़ों रुपये खर्च कर रही. विज्ञापन, पुरस्कार, आने जाने का, रहने खाने-पीने का खर्च भी तो हिंदी विमर्श है . अब क्या बच्चे की जान लोगे. भाई मनुष्य गलतियों का पुतला है इसलिए हिंदी को बचाने के लिए नई तकनीकी का इस्तेमाल हो रहा है . आज किसी को कागज कलम लेकर किताब के प्रूफ देखने की जरूरत नहीं. सॉफ्टवेयर अपने आप स्पेलिंग चेक कर लेते है. व्याकरण की हिंदी को जरूरत भी नहीं. बड़ी बड़ी दुकानें हिंदी के विकास का पूरा ठेका ले चुकी है.

विख्यात लेखक जी! ये बताओ की हिंदी में बिंदी लगती है या आधा ‘न’ लगता है. फिर आप विमर्श पर उतर आये. आपको बता दे! दोनों चलता है. दोनों को मान्यता मिल गयी है. अब चाँद बिंदु की भी जरूरत नहीं. नुक्ता लगाना तो साम्प्रदायिक हो गया है.

मुझे लगता है अविख्यात लेखक जी! आप बहुत ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति है. थोड़ा सा व्यवहारिक बनो. आज हिंदी के रूप बदल चुके. हिंदी लेखन बाजार की सुविधा अनुसार होता है. यही समझ काफी है हिंदी दिवस और हिंदी विमर्श की. आपको भी इस हिंदी में भेद करना आना चाहिए. सैद्धांतिक हिंदी और व्यवहारिक हिंदी को एक साथ मत मिलाओ, बोलचाल की हिंदी और लेखन की हिंदी को पहचानो. वैचारिक हिंदी को आपने पास मत आने दो. तभी आपका हिंदी लेखन सफल होगा वरना इसी प्रकार अविख्यात लेखक बने रहोगे.

हम तो अविख्यात ही रहना पसंद करेंगे क्योंकि जिस दिन हमारा नाम हिंदी लेखकों की श्रेणी आना शुरू हो जायेगा उस दिन बड़े-बड़े लेखक बेनकाब होंगे. किताबें हम लिखते है, एडिटिंग हम करते है, प्रूफ हम करते और नाम आप जैसे बड़े लेखकों का होता है. क्या हिंदी विमर्श में हम जैसे अविख्यात लेखकों पर विमर्श करते हो.
आरे अरे सर आप तो नाराज हो गये.

ये विमर्श ही गलत है., और सुनाये! मेरी नयी किताब कब तक लिखकर पूरा कर दोगे.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.