तारकेश कुमार ओझा
मेरे छोटे से शहर में जब पहली बार मॉल खुला , तो शहरवासियों के लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं था। क्योंकि यहां सब कुछ अप्रत्याशित औऱ अकल्पनीय था। इसमें पहुंचने पर लोगों को किसी सपनीली दुनिया में चले जाने का भान होता। बड़ी – बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों की चकाचौंध भरे विज्ञापन लोगों को हैरत में डाल देते थे। लेकिन इसमें एक खास बात भी दिखाई दे रही थी। विदेशी धरती का भ्रम पैदा करने वाले इस प्रतिष्ठान के पूर्णरुपेण अंग्रेजीदां माहौल में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों में हिंदी के कैचवर्ड बरबस ही हम जैसे हिंदी प्रेमियों को मुग्ध कर देते थे। …इससे सस्ता कुछ नहीं, मेगा दशहरा आफर… आपके भरोसे का साथी … जैसे अंग्रेजी में लिखे हुए वाक्य भी हिंदी की महत्ता को साबित करने के लिए काफी थे। इस अप्रत्याशित परिवर्तन के पीछे की पृष्ठभूमि से इतना तो स्पष्ट था कि यह किसी सरकारी प्रयास से संभव नहीं हो पाया है। यह हिंदी की अपनी शक्ति है, जिसने विदेशी यहां तक कि अंग्रेजीदां किस्म के लोगों को भी अपने सामने सिर झुकाने के लिए मजबूर कर दिया है।
एेसे सुखद परिवर्तन से यह भी साबित होता है कि हिंदी बचेगी – बढ़ेगी तो अपनी इसी शक्ति से। कथित हिंदी प्रेमियों की कोरी भावुकता औऱ सरकारी मदद की बैशाखी से हिंदी का न तो कभी भला हुआ है औऱ न भविष्य में ही हो सकता है। अपने छात्र जीवन में हिंदी प्रेम के हमने कई किस्से सुन रखे थे। अपने इर्द – गिर्द अनेक हिंदी प्रेमियों की निष्ठा औऱ समर्पण को देखा भी है। लेकिन उसी दौर में हिंदी का विरोध भी कम नहीं था। दक्षिण भारत खास कर तामिलनाडु का उग्र हिंदी विरोध ही नहीं , बल्कि असम औऱ दूसरे अहिंदी भाषी राज्यों में भी राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति दुर्भावना की यदा – कदा खबरें पढ़ने को मिला करती थी। तामिलनाडु राज्य की तो पूरी राजनीति ही इसी पर आधारित थी। जिसके चलते अक्सर केंद्र सरकार को बयान देना पड़ता था कि हिंदी किसी पर थोपी नहीं जाएगी। लेकिन समय के साथ अनायास ही कितना परिवर्तन आ गया। आज ज्यादातर गैर हिंदी भाषी लोगों के मोबाइल के कालर टयून में हिंदी गाने सुनने को मिलते हैं। इसमें अत्यंत सुंसंस्कृत माने जाने वाले उस संभ्रांत वर्ग के लोग भी शामिल हैं जो पहले हिंदी फिल्मों औऱ गानों के नाम पर नाक – भौं सिकोड़ते थे। अहिंदी भाषी राज्यों के शहर – गांव के गली – कुचों में भी हिंदी गाने सुनने को मिलते हैं। हिंदी व स्थानीय भाषा का मुद्दा अब उतना मुखर नहीं रहा। अमूमन हर वर्ग के लोग यह समझने लगे हैं कि प्रगति के लिए मातृभाषा और अंग्रेजी के साथ ही हिंदी भी जरूरी है। अन्यथा अपना ही नुकसान है। देश के हर राज्य का युवा हिंदी की महत्ता को स्वीकार करते हुए इसमें बातचीत करते सुना जाता है। अंग्रेजी के साथ हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या भी पहले के मुकाबले काफी बढ़ी है। विशेष परिस्थितयों में जहां विद्यार्थियों को यह सुविधा कायदे से उपलब्ध नहीं हो पा रही, वहां अभिभावक अपने बच्चों के हिंदी ज्ञान को लेकर चिंतित नजर आते हैं। बेशक समाज में आया यह सकारात्मक परिवर्तन भी किसी सरकारी व हिंदी प्रेमी संस्था के प्रयासों से संभव नहीं हुआ है। यह हिंदी की अपनी शक्ति है। भविष्य में भी हिंदी यदि बचेगी – बढ़ेगी तो अपनी इसी शक्ति से…। (लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।)