आशुतोष , प्रबंध संपादक, IBN7
खबर की अपनी तासीर होती है। अपनी जगह बना ही लेती है। ये बात बड़े बजुर्गों से सुनी थी। अब लगता है कि खबर टीवी चैनल बनाने लगे हैं। सारी मीडिया पीछे भाग रही है। पिछले दिनों छोटी सी खबर किसी अखबार में छपी। खबर थी कि कानपुर देहात के शोभन आश्रम के बाबा स्वामी भाष्करानंद को सपना आया कि डौडिया खेड़ा के एक खंडहर में शहीद राजा राव बख्श सिंह का खजाना दबा है। इस खजाने में एक हजार टन सोना है। बाबा के इस सपने की जानकारी सरकार को मिली और डोडिया खेड़ा में पुरातत्व विभाग ने खुदाई शुरू कर दी।
खबर दिलचस्प थी। एक हजार टन सोना। आर्थिक संकट से जूझ रहे भारत के लिये डूबते को तिनके का सहारा! भारत सरकार के पास सिर्फ 558 टन ही सोना है। और दुनिया में सिर्फ आठ देश हैं जिनके पास एक हजार टन से ज्यादा सोना है। यानी राजा का ये खजाना देश की तकदीर पूरी तरह से बदल देगा। इस खबर से हलचल मची। ओबी वैन और रिपोर्टर्स रवाना कर दिए गए। पीपली लाइव शुरू हो गया। हिंदी अंग्रेजी सभी चैनलों पर चलने लगा। स्टूडियो में बहस का सिलसिला भी शुरू हो गया। अंग्रेजी चैनलों ने हॉलीवुड का सहारा लिया कहा ‘ड्रीम-गोल्ड-रश’। टीवी में खबर चली तो अखबार कहां पीछे रहते? वहां भी पहली खबर बन गई। अंग्रेजी हिंदी सभी एक समान।
किसी ने ये जानने का प्रयास नहीं किया कि क्या पुरातत्व विभाग बस सपने के आधार पर ही खुदाई कर रहा है? क्या बिना किसी खुदाई के कोई इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि एक हजार टन सोना मिलेगा? कायदे से रिपोर्टर को बाबा और पुरातत्व विभाग से पूछना चाहिये था। खबर का आधार पता करना चाहिए था। ये पत्रकारिता की बुनियादी जरूरत है। आखिर में एक रिपोर्टर ने जहमत उठाई। उसने बाबा से पूछा। बाबा ने कहा कि मैंने कभी सपने की बात की ही नहीं। मेरे पास कुछ नक्शे थे। और कुछ दस्तावेज। उसके आधार पर मैंने सरकार को जानकारी दी। इस बात की पड़ताल की गई। सरकार के भूगर्भ विभाग ने इलाके का वैज्ञानिक सर्वेक्षण किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि बाबा की बताई जगह पर कुछ धातु मिलने की उम्मीद है। यानी ये बात गलत थी कि बाबा ने कोई सपना देखा था। ये बात भी गलत थी कि सिर्फ सपने की वजह से ही खुदाई शुरू की गई। ये भी गलत था कि जगह विशेष पर एक हजार टन सोना मिलेगा। लेकिन टीवी चैनेल धड़ल्ले से चलाते रहे और अखबार धुआंधार तरीके से लिखते रहे।
हकीकत ये है कि कोई भी भूगर्भशास्त्री ये कभी भी दावे से नहीं कह सकता कि किसी भी जगह पर फलां धातू मिलेगी ही या फिर इतनी मात्रा में ही मिलेगी। ऐसे में सवाल ये है कि एक झूठी खबर तीन दिनों तक खबर क्यों बनी रही? टीवी के बारे में तो कहा ही जाता है कि वो टीआरपी के लिये कुछ भी कर सकते हैं। पर अखबारों ने ऐसा क्यों किया? उन पर तो टीआरपी का दबाव नहीं होता। टीआरपी ही टीवी का सबसे बड़ा रोग है। टीआरपी से ही तय होती है चैनल का मिलने वाले विज्ञापन की कीमत। जितनी रेटिंग उसी अनुपात में पैसा।
शुरू-शुरू में चैनल थोड़े थे। प्रतिस्पर्धा कम थी। इसलिए टीवी में खबर थी। बाद में चैनल ज्यादा हुए। प्रतिस्पर्धा बढ़ी और विज्ञापन के लिए दौड़ तेज हो गई। इस होड़ में आगे निकलने के लिए वो कुछ भी दिखाया जाने लगा। कुछ चैनलों ने तो खबर से तौबा ही कर ली। जितना सनसनीखेज वीडियो, उतनी अधिक रेटिंग। ऐसे चैनल आगे निकलते गए जो खबर के अलावा भूत-प्रेत दिखाते थे। ऐसे चैनलों ने जब खबर भी दिखाई तो खबर को मदारी का खेल बना दिया। खबर से ज्यादा खबर का ‘ट्रीटमेंट’ महत्वपूर्ण हो गया। ‘बुलेटिन’ की जगह ‘शोज’ बनने लगे। विदेश नीति की जगह ‘अपराध’ परोसा जाने लगा। अपराध में भी ‘जुगप्सा’ पैदा की गई। दर्शकों ने भी खूब देखा। और गाली भी खूब दी। समाज में टीवी को लेकर गुस्सा बढ़ने लगा। बदलाव करने के लिए चैनल मजबूर हुए। लेकिन अभी भी कुछ चैनलों के लिये खबर सिर्फ एक मसाला है। जिसमें जितना मिर्च डालो उतना ही रंग चोखा। पिछले दिनों टीवी जगत में फिर प्रतिस्पर्धा अचानक बढ़ी। कुछ नए चैनल आगे निकले गए, स्थापित पीछे रह गए। खबरों में फिर भांग पड़ने लगी। रिपोर्टर-एंकर फिर मदारी होने लगे। आसाराम की खबर में इसकी बानगी फिर दिखी। आसाराम की खबर में धर्म था। एक रहस्यमयी बाबा था। बाबा की सेक्स लाइफ थी। हत्या और बलात्कार का तड़का था। और बाबा के लाखों अनुयायी थे। खबर अपने आप में पूरी ‘बम’ थी। रेटिंग के भूखे टीवी एडीटर गिद्द की तरह आसाराम की खबर पर टूट पड़े। दिन-दिन भर आसाराम की जिंदगी को निचोड़ते जटा-जूट-धारी सही-गलत बाबा एक्सपर्ट बन गए और बाबा की सेक्स लाइफ को हर एंगल से विभत्स तरीके से खंगाला गया। कुछ चैनलों ने तो सारी सीमाएं लांघ दीं। पर कुछ समय बाद आसाराम की खबर से थकान होने लगी। और बिल्ली के भाग्य से ‘खजाना’ टूट पड़ा। कुछ टीवी वालों ने लपका। बाकी ने अनुसरण किया। टीवी पर चली तो अखबार कहां पीछे रहते?
अखबार के दोस्त माफ करें। इस खबर ने उनको भी नंगा किया है। पिछले कुछ सालों से टीवी की बहुतायत ने अखबार के रिपोर्टर्स का काम आसान कर दिया है। सब कुछ जब टीवी पर उपलब्ध है तो भागदौड़ करने की जरूरत क्या है? ये रिपोर्टर घर बैठ रिपोर्टिंग करने लगे हैं। हालांकि अभी भी कुछ अच्छे रिपोर्टर हैं जो फील्ड में दिखते हैं। लेकिन ज्यादातर टीवी को ही फालो करते हैं। फिर जब दस चैनल एक साथ एक खबर को चला रहें हो तो उसको गलत साबित करने की हिम्मत कितनों में होगी? इसलिए जो कभी टीवी का मजाक उड़ाया करते थे वो अब टीवी के आभामंडल से अभिभूत हैं और स्टूडियो में अपनी चेहरा दिखाऩे के लिए लालायित। ऐसे में खबरों में फिल्टर कौन लगाएगा? गलती तो होगी! खजाने की खबर ने खबरों का खाना खराब कर दिया है। एक चेतावनी दे गया है।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)