नीरज बधवार
समाज के बारे में लिखते-बोलते और फ्रस्ट्रेट होते-होते पत्रकारिता में सक्रिय व्यक्ति को एक समय यह भी महसूस होता है कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए उसे राजनीति में चले जाना चाहिए। आजकल कुछ संस्थान अपने पत्रकारों की इस हताशा को बखूबी समझने लगे हैं। उन्होंने यह विकल्प दे दिया है कि जिस पार्टी में तुम पत्रकारिता छोड़कर जाने वाले थे, उसके लिए तुम यहीं रहते फ्रीलांसिंग कर सकते हो। यह देख वाकई खुशी होती है कि 10-12 घंटे की थका देने वाली नौकरी के बाद भी चैनल में रहते हुए वे पार्टी प्रवक्ता की भूमिका बखूबी निभा लेते हैं। अगर संस्थान प्रमुख की ही आस्था किसी राजनीतिक पार्टी में हो, तो बैठे-बिठाए पूरे संस्थान को ही राजनीति में आने का सौभाग्य मिल जाता है। सेठ जी की दुकान पर पानी पिलाने वाले लड़के को कहे जाने पर उनके घर सब्जी भी पहुंचानी पड़ती है। किसी भी काम को अपने वर्क प्रोफाइल से बाहर का बताकर वह नहीं कहने की हिमाकत नहीं कर सकता।
हकीकत तो यह है कि कॉपी एडिटर्स की भर्ती में अब ऐसे लोगों को प्राथमिकता दी जाने लगी है, जो पहले माता की भेंटें, भजन या आरतियां लिखते थे, क्योंकि इन लोगों के पास इस बात का अनुभव होता है कि किसी के प्रति अपनी आस्था कैसे व्यक्त की जाए? इसका फायदा यह होता है कि जब आप सरकार की तारीफ कर रहे होते हैं, तो आप पार्टी कार्यक्रम में दरी बिछा रहे होते हैं, अपनी छवि दांव पर लगा तथ्यों को तोड़-मरोड़ रहे होते हैं, तो लोगों को चाय-मट्ठी के साथ पांच सौ रुपये का लालच देकर रैली में भीड़ जुटा रहे होते हैं। आप पत्रकारिता ही कर रहे होते हैं, मगर सक्रिय राजनीति का हिस्सा बन लोकतंत्र को भी मजबूत कर रहे होते हैं। यह देखकर खुशी होती है कि जिस काम का जिम्मा पहले पार्टी प्रवक्ताओं और इकलौते सरकारी चौनल के कंधों पर था, उसमें उसका हाथ बंटाने आज कई सारे आगे आ गए हैं। चौथा खंभा खुद पर लगे जिस सीसीटीवी कैमरे से दुनिया पर नजर रखता है, हो सके, तो कभी कभार वह उससे अपनी भी एक सेल्फी ले लिया करे।
(साई फीचर्स)