हत्या करने-करवाने के आरोप हों, बलात्कार का आरोप लगाते हुए महिला प्रधानमंत्री को खुली चिठ्ठी लिखकर बता रही हो, अपने आश्रम में काम करनेवाले को तरह-तरह से शोषण करने की लगातार खबरें मीडिया में आती रही हो. पूरा सच जैसा कोई अखबार अगर खिलाफ में स्टोरी छापता हो और सप्ताह भर के भीतर संपादक रामचंन्द्र छत्रपति की हत्या कर दी जाती हो, आश्रम के व्यक्ति की हत्या कर दी जाती हो और देखते-देखते एक के बाद स्टिंग सामने आने लग जाते हों..
लेकिन इन सबसे घबराना नहीं है.एक फिल्म बनाओ जिसमे खुद हीरो बन जाओ, एक से एक स्टंट करो जिसके आगे अक्षय कुमार से लेकर रजनीकांत तक पानी भरने लगे और लाखों रूपये इसकी प्रोमोशन में झोंक दो. न्यूज चैनलों के आगे टुकडे फेंको और फिर देखो कि कैसे सबसे तेज चैनलों से लेकर नेशन के लिए न्यूज पेश करनेवाले संपादक कैसे आपके आगे-पीछे लोटने लग जाते हैं ? इस फिल्म के बहाने आपसे ऐसे-ऐसे सवाल पूछेंगे जिसका जवाब देकर आप करोड़ों लोगों के आगे अपने को दूध का धुला साबित कर दोगे. कोर्ट में आपसे सवाल-जवाब किए जाएं, ये चैनल उसकी मुफ्त में ट्यूशन और प्रैक्टिस करा देंगे.
गुरमीत राम रहीम ने फिल्म बनाकर देश के उन दर्जनों दागदार और एक से एक खतरनाक कारनामों के आरोप में फंसे-धंसे बाबाओं को ये संदेश देने का काम किया है कि आप इस देश में रहकर चाहे जो कुछ भी कर लो, एक बार किसी तरह फिल्म बना लो, इसके बहाने कुछ टुकड़े मीडिया के आगे फेंको, देखो सब कैसे मेकओवर हो जाएगा.
नोम चोमस्की और एडवर्ड एस हर्मन की किताब मैनुफैक्चरिंग कंसेंटः द पॉलिटिकल इकॉनमी ऑफ मास मीडिया की प्रति आपकी सेल्फ में कहां दब गई होगी, नहीं मालूम लेकिन राम रहीम को लेकर चैनलों पर एक ही इंटरव्यू जो लूप की शक्ल में जारी है, ये अपने आप में एक पाठ है जिसके जरिए आप समझ सकते हैं कि अभिमत बनाने और पोंछने-मिटाने का काम मीडिया किस तरह करता है.