किसानों को मरने दीजिए,खामख्वाह आँसू न बहाएं

जमीन छीन लीजिए पर संवाद तो कीजिए
जमीन छीन लीजिए पर संवाद तो कीजिए

ख़बरदार, नहीं गिरने चाहिए आंसू के एक बूंद भी

गिरिजा नंद झा

बंद कीजिए, संवेदनशील होने का ढ़ोंग। मरने दीजिए, किसानों को अपनी मौत। कोई जरूरत नहीं है, उनकी बेबसी और लाचारी पर या फिर उनकी मौत पर आंसू बहाने की। नहीं जरूरत है, उन्हें आपकी सहानुभूति की। नहीं जरूरत है, आपके ढंाढस की। नहीं चाहिए, उन्हें आपसे कोई मुआवज़ा। जिन आंखों के आंसू सूख चुके हैं, आपकी सहानुभूति उनकी आंखों को डबडबा देगी। नहीं सह सकेंगे वे हमारी संवेदना का भार। ऊपर वाले के भरोसे खेती करने चले थे। उन्होंने उनके साथ छल कर दिया। उन्होंने ही बनाया है, उसे बेबस और लाचार। वह जुमला तो हम सभी दोहराते ही रहते हैं। यह कि प्राकृतिक आपदा का कुछ भी नहीं किया जा सकता। फिर, क्यों हम सभी किसानों की हालत को ले कर चिंता कर रहे हैं।

ऐसा पहली बार तो हुआ नहीं है। ना ही, इसे आखि़री बार माना जाए। जब भगवान भरोसे ही खेतीबाड़ी हो रही है तो किसानों की बदहाली हमारी जिम्मेदारी थोड़े ही है। उनकी मेहनत, हमारी जरूरत कहां है? खेती उनकी मजबूरी है और वे इस हालत के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। फैसला उन्हें करना है कि वह जमीन की छोटी-सी टुकड़ी पर फसल उगा कर उत्पादक बन सीना फुलाते रहें या फिर शहरों में रिक्शा खींच कर हांफते-हांफते दम तोड़ दें। सरकारी ख़जाना खाली है। जो थोड़े बहुत पैसे हैं, वह अगर किसानों को कजऱ्ा चुकाने के लिए दे दिया जाए तो विकास की जो बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाई गई है, उसका क्या होगा? किसानों के भरोसे देश तो चलता नहीं। बड़ी-बड़ी मोटरगाडि़यां खेतों में तैयार तो होती नहीं?

सरकार ने तो साफ तौर पर कह दिया है। सारी जमीन आप हमें दे दें। आपके एक दस्तख़त हो जाएंगे। आपकी जमीन पर बड़ी-बड़ी धुआं उगलती कंपनियां वहां पर स्थापित करवा देंगे। फिर, कंपनी को काम करवाने के लिए लोगों की जरूरत तो पड़ेगी ही पड़ेगी। मेहनतकश तो आप हैं ही और अच्छी बात यह भी है कि आपकी जरूरतें भी कुछ ज़्यादा हैं, नहीं। बार-बार फसलों के बर्बाद हो कर माथा पीटने से तो अच्छा यही है कि आप अपनी ऊर्जा का सही जगह इस्तेमाल करें। आप भी निश्चिंत और सरकार भी। बैंक एकांउट तो आप सबका खुल ही चुका है, नहीं खुला है तो वह भी खुल जाएगा। पैसा, सीधे आपके एकांउट में चला जाएगा। सारा किस्सा ही खतम। ना कोई चिकचिक ना कोई झंझट।

मगर, इन किसानों को कौन समझाए। रह गए मूरख के मूरख ही। कजऱ्ा लेंगे। वह भी 300 प्रतिशत तक के अमानवीय ब्याज दर पर। खेती से अपना पेट तो भर नहीं पाते। कजऱ्ा क्या ख़ाक चुका पाएंगे? मूलधन वे चुका पाएं या ना पाएं, ब्याज तो उन्हें हर हाल मंे चुकाना ही चुकाना है। चुका कैसे पाएंगे? जिस घर को अनाज से भर लेने की उम्मीद थी, उस जमीन से एक अन्न का दाना भी घर नहीं पहुंच पाया। लेकिन, मजाल है कि खेती छोड़, रिक्शा खींचने को राजी हो जाएं? आदत पड़ गई है, कोल्हू का बैल बने रहने की। जब बात समझ नहीं पा रहे हैं तो मरें अपनी मौत। ख़बरदार, जो एक भी बूंद आंसू की बहाएं तो। ऐसे ही ताकते रहें शून्य में।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.