निरंतर चुनाव भारत जैसे विकासशील देश की अर्थव्यवस्था पर एक अतिरिक्त बोझ है. दरअसल देश के विकास पर जिस पैसे को खर्च होना चाहिए, वो चुनाव को कराने में चला जाता है. बार-बार होने वाले चुनाव इस खर्च को और बढ़ाते हैं. यदि सभी चुनाव एक साथ संपन्न हो तो देश का कितना पैसा बचाया जा सकता है और तभी सही मायनों में सबका साथ, सबका विकास का फार्मूला फलीभूत हो पायेगा. राजनीतिक विश्लेषक ‘अभय सिंह’ का विश्लेषण –
भारत को चुनावों का देश कहना वर्तमान परिदृश्य के हिसाब से गलत नहीं होगा. लगभग हर छः माह पर होते राज्यों के विधान सभा चुनाव एवं हर महीने किसी न किसी राज्य में होने वाले जिला,निकाय, ब्लॉक,ग्रामपंचायतों के चुनावों से ऐसा प्रतीत होता है की देश में विकास की गतिविधियों की बजाय चुनावी क्रियाकलाप अधिक सक्रिय है। उधर देश का मीडिया चुनावों को डिबेट,सर्वे,पोल के जरिये रोचक बनाकर अपनी जेब गर्म करते है चाहे देश का कितना ही बंटाधार क्यों ना हो।
भारत आज विश्व के अनेक विकसित देशों से विकास के मामले में मीलों पीछे है उदाहरण के तौर पर चीन से 15 साल एवं यूरोप के कई विकसित देशों से 25 साल पीछे है। चुनावी विकास प्रक्रिया में हम बैलट से इवीएम का सफर तय कर चुके हैं।लेकिन देश के विकास में हम लगातार पिछड़ते जा रहे है।
90 के दशक में कांग्रेस के लगातार कमजोर होने से अनेक राज्यो में ताकतवर क्षेत्रीय दलों के उभार ने राज्यो एवं केंद्र में अस्थिरता का संकट पैदा किया। फलतः बहुमत न मिलने की स्थिति में दल सिद्धांतविहीन गठजोड़ को मजबूर हुए जो अल्पकालिक सिद्ध हुए और जिससे राजनीतिक अस्थिरता का लंबा दौर चला।
प्रधानमंत्री मोदी प्रायः अपने वक्तव्यों में लोकसभा,विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की बात पर जोर देते है। लेकिन शायद मीडिया और अधिकांश नेता इस पर चुप्पी साध लेते है। यदि लोकसभा विधानसभा चुनाव साथ 2 होंगे तो ये देश के लिए संजीवनी का का करेंगे। इसके और भी फायदे निम्न है-
1-लोकसभा विधानसभा साथ 2 होने से देश पर बार2 पड़ने वाला आर्थिक बोझ कम होगा।
2- राजनीतिक दलों का आर्थिक बोझ कम होने से फंडिंग में पारदर्शिता की प्रबल सम्भावना होगी एवं ,दानदाताओ को लाभ पहुँचाने की प्रवित्ति का हास होगा
3 -केंद्र एवम राज्य सरकारों को काम करने का अधिक समय मिलेगा।इससे विकास की गतिविधियों में तीव्रता आएगी।
4 -बार 2 चुनावों के दौरान कुकुरमुत्ते की तरह उगने वाली फ़र्ज़ी सर्वे एजेंसियों,पेड मीडिया पर लगाम लगेगी।
5 -चुनाव प्रचार में बार 2 खर्च होने वाला खर्च केवल एक बार होगा।
6-सरकार को चुनावों में लोकलुभावन घोषणाओ से निजात मिलेगी।जिससे उनका फोकस गवर्नेंस पर होगा।
कुल मिलाकर चुनावों की निरंतरता से देश को भारी कीमत चुकानी पड़ती है।इसलिए मीडिया का दायित्व है की वो इस मुद्दे को जोर शोर से देश के सामने प्रस्तुत करें।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)