ओम थानवी,संपादक,जनसत्ता
बोलने वाला कुछ भी बोले, यह संपादक का मौलिक अधिकार है कि कितना छापे/दिखाए। सारा का सारा बोला-कहा छापना-दिखाना सम्भव ही नहीं होता। संपादक की ओर से ज्यादातर कतरब्योंत विषयांतर, भटकाव, अनावश्यक विचलन, अस्पष्टता, असंबद्धता या जगह की सीमा के कारण होती है। कभी-कभी नासमझी या अयोग्यता के कारण भी। मगर जो संपादक के इस अधिकार को चुनौती देता है, वह लोकतंत्र-विरोधी या फासिस्ट ही हो सकता है। संपादक का अधिकार निजी अधिकार नहीं है, लाखों-करोड़ों पाठकों-दर्शकों का अधिकार है।
दूरदर्शन ने मोदी का इंटरव्यू क्या सोचकर सम्पादित किया, मुझे नहीं पता। मैं होता तो न काटता, क्योंकि प्रियंका के उल्लेख से मोदी का दोमुंहापन और अहमद पटेल के जिक्र से “अच्छी दोस्ती” के दावे का रहस्य (जो बाद में झूठ साबित हुआ क्योंकि पटेल कहते हैं २००१ में मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके साथ चाय तक नहीं पी!) खुलता, दोनों लम्बे वक्तव्य भी न रहे होंगे। लेकिन मोदी-समर्थकों द्वारा इसे (भी) मुद्दा बना लेना, संपादन पर सार्वजनिक आपत्ति उठाना सीधे-सीधे संपादक के लोकतांत्रिक अधिकार पर उंगली उठाना है।
दरअसल कुछ तो मोदीत्व का स्वभाव ही लोकतंत्र-प्रेमी नहीं है; कुछ हमारे टीवी चैनलों ने भी, मानो कृपा-पात्र होकर, जितनी निर्बाध और गैर-प्रश्नाकुल जगह मोदी को दी है, लगता है उसने भी मीडिया से मोदी-समूह की उम्मीदों को आसमान पर पहुंचा दिया है।
(स्रोत-एफबी)
om thanvi aap sampadak hai ya modi virodhi