पत्रकार धीरेन्द्र प्रताप सिंह नहीं रहे. उन्हें याद कर रहे हैं प्रशांत कुमार.
कल तक हंस-हंसाकर सबसे बात करने वाला अक्खड़ पत्रकार धीरेन्द्र प्रताप सिंह अपने पत्रकार मित्रों को छोड़कर हमेशा के लिए चला जायेगा, यह बिहार एवं झारखंड में किसी को पता नहीं था। मंगलवार की सुबह जब यह मनहूस खबर मुझे मिली कि अपना जिंदादिल धीरेन्द्र प्रताप सिंह हमेशा-हमेशा के लिए हम सबको छोड़कर चला गया है, तो मैं रो पड़ा। यह संभव नहीं था। इस बात की तसदीक के लिए जब मैंने हिन्दुस्तान धनबाद संस्करण के सीनियर काॅपी एडिटर सुबोध बिहारी कर्ण से पूछा तो वह भी धीरेन्द्र प्रताप सिंह के नहीं रहने की पीड़ा से छटपटा उठे। उन्होंने कहा कि सोमवार की शाम 4.30 बजे पत्रकार धीरेन्द्र प्रताप सिंह की हत्या कनपटी में गोली मारकर उनके आवास सूर्य विहार काॅलोनी के समीप कर दी गयी। उनकी हत्या करने वालों में गैंग्स आॅफ वासेपुर के हत्यारों का नाम दबी जुबान से धनबाद में लिया जा रहा है। मैं आवाक् एवं व्यथित हूँ।
धीरेन्द्र प्रताप के साथ ऐसा क्यों हुआ? एक पीड़ा, एक कसक, एक टीस मन में उठ रही है। धीरेन्द्र तो बड़ा जिंदादिल एवं अक्खड़ था। वह किसी को सताता नहीं था। जहां भी गया सबको हंसाया। उसे हम सबको रूलाने का अधिकार नहीं था। धीरेन्द्रएक वीर क्षत्रिय था। नहीं डरने वाला। सबसे लोहा लेने वाला। उसे कायरों ने मार डाला। मैं सोंच रहा हूँ अब क्या होगा धीरेन्द्र प्रताप के परिवार के साथ। बड़ी सभ्य-सुशील उनकी पत्नी हैं। मुझे बउआ जी बुलाया करती थी। दो लड़कियां हैं। और एक छोटा-प्यारा तेरह बरस का लड़का। कैसी चलेगी अब गृहस्थी की गाड़ी।
धीरेन्द्र भभुआ से पटना हिन्दुस्तान आये। उन्हें लाने का श्रेय हिन्दुस्तान के तत्कालीन चीफ रिपोर्टर राधिका रमण बालन को जाता है। सन् 2002 में फिर धनबाद स्थानांतरण हुआ। काॅपी एडिटर की हैसियत से धीरेन्द्र ने वहां सभी पेजों पर अपनी जिम्मेवारी निभायी। एडिशन-इंचार्ज ज्ञानवर्धन मिश्रा थे। उन्होंने कालांतर में प्रबंधन का हवाला देकर धीरेन्द्र प्रताप सिंह पर नौकरी से त्याग-पत्र देने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। धीरेन्द्र ने तो शुरू में कुछ दिनों तक सहा लेकिन जैसा कि उनका क्षत्रिय वाला मिजाज था सो उन्होंने कहा कि किसी में हिम्मत है तो मुझसे त्याग-पत्र पर हस्ताक्षर करवा ले, हाथ न उखाड़ लिया तो ठाकुर नहीं। मैं बड़ा ही खुश था उस वक्त कि चलो कोई मर्द है जो प्रबंधन से पंगा ले सकता है।
कुछ समय बाद धीरेन्द्र प्रताप ने इस्तीफा दे दिया और उड़ीसा के बड़बील से लेकर मुगलसराय रेल मंडल तक छोटी ठेकेदारी करने लगे। घर चलाने के लिए उन्हें यही रास्ता सबसे मुफीद लगा। चूंकि धनबाद ठाकुरों की स्थली रही है सो वहां उन्हें अपनों के बीच काम करने में मन लगने लगा। हालांकि यह बात कईयों को नागवार लगती थी कि धीरेन्द्र की पैठ इतनी शीघ्र धनबाद में कैसे हो गयी कि वह जो भी अपने मन की चाहते वह तुरंत हो जाता था। मेरी नजरों में तो वह धीरेन्द्र प्रताप सिंह की मिलनसारिता और वाक्पटुता थी जो उन्हें धनबाद में लोकप्रिय बनाये जा रहा था।
धीरेन्द्र प्रताप की रेलवे की ठेकेदारी से घर चलाने लायक आय हो जाया करती थी जिसका जिक्र वे मुझसे पटना में मिलने के दौरान किया करते थे। जब भी मिले ताल ठोक कर और दिल खोल कर मिले। जब भी गले लगाया तो जी भरके लगाया। जो कायदे से नहीं मिला उसे घुड़क दिया। शायद यही वजह बनी उनकी मौत की। सालों ने उन्हें मार डाला धोखे से। छाती पर नहीं तानी पिस्तौल वरना धीरेन्द्र मार डालता अपने हमलावरों को। धीरेन्द्र प्रताप सिंह तो अब नहीं रहा। उसकी मौत के असली गुनहगार कौन हैं? गैंग्स आॅफ वासेपुर के गंुडे या कोई और?
काश! धीरेन्द्र प्रताप सिंह को हिन्दुस्तान, धनबाद से हटाने का दबाब नहीं बनाया जाता। उसके जीवन की गाड़ी कितने अच्छे ढंग से चल रही थी कि अचानक सब कुछ बदल गया। धीरेन्द्र को नफरत हो गयी पत्रकारिता से। जिस पत्रकारिता के लिए उसने पुलिस की नौकरी छोड़ दी उसी पत्रकारिता ने उसे अंत में पत्रकार से ठेकेदार बना दिया। धीरेन्द्र जांबाज था। धीरेन्द्र बहादुर था। धीरेन्द्र मरा नहीं। धीरेन्द्र शहीद हुआ। और शहीद मरते नहीं। शहीदों की वीर गाथायें सुनायी जाती हैं।
(पटना से पत्रकार प्रशांत कुमार की धीरेन्द्र प्रताप सिंह को श्रद्धांजली।)