दुर्गेश उपाध्याय
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उच्चन्यायालयों के न्यायधीशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन को संबोधित किया. अपने इस संबोधन में उन्होंने न्यायपालिका की एक तरफ़ तारीफ़ की तो लगे हाथों कुछ नसीहतें भी दे डालीं. मसलन उन्होंने कहा कि वह कथित फाइव स्टार एक्टिविस्ट्स के भय से धारणा के आधार पर फैसले न करे हालांकि प्रधान न्यायाधीश एच एल दत्तू ने इस आशंका को तुरंत ही खारिज कर दिया, लेकिन इस प्रकरण ने सरकार की मंशा और न्यायपालिका से उसके रिश्ते को लेकर नई बहस पैदा कर दी है.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले कुछ सालों में न्यायपालिका का दखल विधायी कामों में बढ़ा है. हमें कई ऐसे मौके देखने को मिले जब सरकार द्वारा बनाई गई किसी नीति या कानून के खिलाफ मामला न्यायालय पहुंचा और उस पर न्यायपालिका ने रोक लगा दी और सरकार को अपना पक्ष दोबारा से रखना पड़ा और सरकार की मुश्किलें बढ़ीं. अगर ऐसा होने के पीछे का कारणों की तलाश की जाए तो हम ये पाएंगे कि सरकार को देश को आगे ले जाने के लिए तमाम तरह की आर्थिक नीतियां बनाने का काम करना पड़ता है. सरकार के ऐसा करने से कुछ लोगों का तात्कालिक इंटरेस्ट प्रभावित होता है और वो इसके खिलाफ़ न्यायालय पहुंच जाते हैं. जाहिर सी बात है कि प्रधानमंत्री ने जो फाइव स्टार एक्टिविस्टों से बचने की सलाह न्यायपालिका को दी है वो एकदम से गलत भी नहीं है. क्यों कि पिछले कुछ सालों में इस देश में एक वर्ग ऐसा पैदा हो गया है जिसका काम ही है सरकार को किसी न किसी विषय पर घेरना और अपने ऐसा करने में वो न्यायपालिका को एक मजबूत धारधार हथियार की तरह से इस्तेमाल करता है और न्यायपालिका की भी अपनी मजबूरी है कि अगर कोई भी विषय उसके संज्ञान में लाया जाता है तो वो उस पर विचार करके कानून के हिसाब से फैसला देना होता है लेकिन यहां दिक्कत तब पैदा हो जाती है जब सरकार द्वारा बनाई गई किसी बड़ी नीति या योजना को न्यायपालिका के फैसले से ब्रेक लग जाता है.
यहां प्रधानमंत्री की उस बात का जिक्र करना जरुरी हो जाता है जिसमें उन्होंने कहा है कि न्यायिक क्षेत्र में काम साधारण नहीं है. भले ही जज आम लोगों के बीच से आएं हों, लेकिन ईश्वर ने उन्हें ईश्वरीय काम के लिए चुना है. जजों का काम भिन्न है. इसलिए जिम्मेदारियां भी भिन्न हैं और देश की अपेक्षाएं भी बहुत हैं. मोदी ने न्यायपालिका से कहा कि, जब सरकार गलती करती है तो सुधार का मौका होता है, लेकिन न्यायपालिका को दूसरा मौका नहीं मिलता. मैं यहां प्रधानमंत्री की बातों से सहमत हूं क्यों कि आम आदमी सारे दरवाजे बंद होने के बाद ही न्यायालय की शरण में जाता है और तब जज की तरफ देखता है जब उसे कहीं से कोई आस नहीं होती है. न्याय व्यवस्था ने ये जगह लोगों की नजरों में खुद बनाई है. ये ही वो बात है जिससे कि ये जरुरी हो जाता है कि इस क्षेत्र में आने वाले लोग उच्च मानसिकता के हों और वो समझ सकें कि उनके अधिकार और कर्तव्य क्या हैं.
हमारे संविधान में विधायिका और न्यायपालिका को बड़ी स्पष्टता से अधिकार और कर्तव्य प्रदान किए हैं. और लोकतंत्र के लिए सर्वाधिक बेहतर स्थिति तब होगी जब दोनों ही अपनी अपनी मर्यादाओं में रहकर लोकतंत्र को मजबूत करने का काम करें. हांलाकि इसमें इसमें दो राय नहीं है कि न्यायपालिका के भीतर भी गड़बड़ियां हो सकती हैं और होती हैं, पूर्व में कुछ न्यायाधीशों पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं और उनके कदाचार से संबंधित मामले सामने आए ही हैं लेकिन फिर भी न्यायपालिका को सर्वोच्चता प्राप्त है और उसके फैसलों पर अमूमन कोई सवाल नहीं उठा सकता. और शायद ये ही वजह है कि न्यायपालिका की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. जहां तक दोनों के साथ मिलकर काम करने का प्रश्न है तो यहां सरकारों के साथ दिक्कत तब होती है जब न्यायपालिका उनके फैसलों को पलट देती है या फिर उन्हें किसी तरह के निर्देश देती है.
दरअसल पिछले कुछ सालों में सामाजिक कार्यकर्ताओं और आंदोलनकारियों की नई जमात के आ जाने से भी न्यायपालिका और विधायिका में टकराहट की स्थितियां अक्सर पैदा हुई दिखाई देती हैं. मेरा मानना है कि माननीय जजों को कानून की किताबों से इतर भी जाकर मामले की गहराई समझनी होती है और हमारी न्यायपालिका की दाद पूरे विश्व में दी जाती है. बस जरुरत इस बात की है कि कभी कभी सरकार के साथ टकराव की जो स्थिति पैदा हो जाती है उसे कैसे टाला जाए और एक ऐसी आदर्श स्थिति पैदा करने की कोशिश दोनों संस्थाओं द्वारा की जाए जिससे दोनों में से किसी की भी गरिमा को ठेस न पहुंचे और लोकतंत्र को मजबूती मिले.
प्रधानमंत्री के जजों के साथ बैठक में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई उससे हमें ये उम्मीद करनी चाहिए कि इससे कुछ सकारात्मक पहल होगी और संविधान द्वारा उच्च अधिकार प्राप्त दोनों संस्थाएं एक दूसरे के हितों का ध्यान रखते हुए देश के विकास में अपना भरपूर योगदान देंगी.
( पूर्व BBC पत्रकार और स्तंभकार)