@ उर्मिलेश
इन दोनों देशों में कॉरपोरेट, सिविल सोसायटी, एकेडेमिक्स, थिंक टैंक, सेना या सिनेमा से किसी चमकदार चेहरे को सामने लाकर सरकार चलाने का फॉमरूला पहले से ही राजकाज की ‘स्मार्ट शैली’ का हिस्सा है. फिर अपने देश में स्मार्ट स्टेशन, स्मार्ट ट्रेन और स्मार्ट-सिटी के प्रकल्पों में जुटे मोदी राजकाज की इस ‘स्मार्ट-शैली’ का प्रयोग क्यों नहीं करते!
जिस तरह आज के समाज में पारंपरिक राजनेताओं की छवि और लोकप्रियता तेजी से घट रही है, उसे देखते हुए मोदी का यह एक नया प्रयोग हो सकता है. पर इस प्रयोग का अभी सिर्फ ‘लोकार्पण’ हुआ है, सफलता-विफलता की कड़ी परीक्षा तो 7 फरवरी को होगी, जिसका परिणाम 10 फरवरी को सामने आयेगा.
दिल्ली में मोदी की मुश्किलें कुछ खास वजहों से हैं. पहली खास वजह है कि यहां भाजपा अपना चुनाव-अभियान गरमाने के लिए कोई ‘पसंदीदा शत्रु’ नहीं खोज सकी. वह किस पर निशाना साधे! दिल्ली में बीते आठ महीने से तो वही सरकार चला रही है. राष्ट्रपति शासन के तहत राज तो केंद्र का ही है.
ऐसे में महंगाई, सुरक्षा तंत्र, खासकर महिलाओं की सुरक्षा के मामले में शासकीय विफलता, पानी-बिजली संकट, स्वास्थ्य समस्या और 1984 के बाद पहली बार राजधानी में बिगड़ते सांप्रदायिक सद्भाव की तोहमत वह किसके माथे मढ़े! दूसरी खास वजह कि दिल्ली में भाजपा को चुनौती एक कार्यकर्ता-आधारित पार्टी दे रही है. केजरीवाल की पार्टी दिल्ली के हर क्षेत्र में साल भर सक्रिय रहनेवाली सियासी ताकत है. बीते दो साल से वह लगातार काम कर रहे हैं.
और तीसरी खास वजह यह कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, श्रम कानून में संशोधन की पहल, छोटे दुकानदारों, रेहड़ी-खोमचे वालों से उगाही आदि पर कोई अंकुश न लगने के नकारात्मक असर से राजधानी का माहौल कम से कम भाजपा-मय नहीं कहा जा सकता. दिल्ली सिर्फ एक शहर नहीं है, इसमें सौ-सवा सौ छोटे-मझोले गांव और देहाती इलाके भी हैं. इनमें अनेक हैं, जहां आज भी खेती-बाड़ी होती है.