कांग्रेस में नेतृत्व का अंतर्द्वंद और आत्मचिंतन का दौर

दुर्गेश उपाध्याय
दुर्गेश उपाध्याय
राहुल गांधी अब अपनी लगभग दो महीने की यात्रा को समाप्त करके दिल्ली वापस आ चुके हैं. उनके लौटकर आने के बाद अब एक बड़ी बहस इस बात को लेकर उठ खड़ी हुई है कि आखिरकार क्या कांग्रेस पार्टी की बागडोर राहुल के हाथों में सौंपी जाएगी या सोनिया गांधी ही कमान संभाले रखेंगी. वैसे ये बातें लोकसभा चुनावों में पार्टी की करारी शिकस्त के बाद से ही उठने लगीं थीं कि पार्टी अब किसके भरोसे आगे बढ़ेगी. पिछले दो दशकों में सोनिया गांधी ने इस ऐतिहासिक पार्टी को अपनी नेतृत्व क्षमता से सींचा और संवारा और उनके नेतृत्व में ही पार्टी ने 10 सालों तक सत्ता सुख भी भोगा. पिछले दो दशकों में पार्टी में जब जब संकट आया है, सोनिया गांधी ने आगे बढ़कर पार्टी को एक नई दिशा दी है लेकिन इस समय कांग्रेस पार्टी एक जबरदस्त अंतर्द्वंद से जुझ रही है. पार्टी में नया vs पुराने नेतृत्व को लेकर घमासान मचा हुआ है. हांलाकि पूछे जाने पर कोई भी कांग्रेसी नेता इस पर खुलकर अपनी राय रखने से कतराता हुआ दिखाई देता है लेकिन ये एक कड़वी सच्चाई है जहां कि पार्टी को ये तय करना होगा कि आखिर वो किसके नेतृत्व में आगे कदम बढ़ाएगी. यहां समस्या ये है कि पिछले लोकसभा चुनावों जिस तरह से पार्टी की बुरी हार हुई है उसके बाद पार्टी को फिर से खड़ा करना और इतने मजबूत जनाधार वाले सत्ता पक्ष को चुनौती देना कोई आसान काम नहीं है.

पार्टी के सामने एक ऐसा सत्ता पक्ष है जिसको हिलाना तो दूर की बात टस से मस करने की रणनीति भी अभी कांग्रेस में स्पष्ट नहीं हो पा रही है. कारण ये है कि कही न कहीं पार्टी में अंदरूनी घमासान मचा हुआ है कि आखिर किसकी विचारधारा नेतृत्व के जरिए पार्टी आगे बढ़ेगी. सोनिया गांधी की विचारधारा जिसको पार्टी के पुराने जितने भी कांग्रेसी हैं उनका समर्थन प्राप्त है और जिनको अपना भविष्य सोनिया के साथ सुरक्षित नज़र आता है या फिर राहुल गांधी की विचारधारा जिसमें वो नौजवानों की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी चाहते हैं और लोकतंत्र की मजबूती के लिए तरह तरह के प्रयोग करने को आतुर हैं. हाल ही में पार्टी के नेता संदीप दीक्षित ने खुलकर सोनिया गांधी के नेतृत्व की वकालत की और उन्होंने यहां तक कह दिया कि 99 फीसदी कांग्रेसी मानते हैं कि सोनिया ही ऐसे समय में कांग्रेस को कुशल नेतृत्व प्रदान कर सकती हैं और उनके भीतर ही पार्टी को आगे ले जाने की क्षमता है. वहीं दिग्विजय सिंह सरीखे नेता भी हैं जिनका मानना है कि अब समय आ चुका है और नेतृत्व का हस्तांतरण हो जाना ही पार्टी के हित में है. यहां इस बात का जिक्र करना भी जरुरी है कि जिस तरह से सोनिया के नेतृत्व में सरकार को भूमि अधिग्रहण बिल पर सरकार को घेरने का काम कांग्रेस पार्टी ने दूसरे विपक्षी दलों के साथ बखूबी किया उससे उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिया कि उनके भीतर ही पार्टी को आगे ले जाने की और बांधकर रखने की क्षमता मौजूद है और उनका नेतृत्व ही अभी भी मान्य है.

लेकिन दरअसल समस्या यहां खुद सोनिया गांधी के साथ ही है कि वो क्या करें. एक तरफ उन्हें बेटे राहुल के भविष्य को संवारना है और दूसरी तरफ कांग्रेस की डूबती नैया को भी पार लगाना है. राहुल पार्टी के उपाध्यक्ष हं और उन्होंने नौजवानों को कांग्रेस से जोड़ने की भरपूर कोशिश की, बड़ी मेहनत भी की. लेकिन उनका दुर्भाग्य ये रहा कि किस्मत ने उनका साथ कभी नहीं दिया. व्यक्तिगत क्षमता में राहुल में ढेर सारी खूबियां हो सकती हैं लेकिन जहां जहां उन्होंने पार्टी को आगे ले जाने की कोशिश की, चुनावों में अपनी ताकत झोंकी वहां वहां पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ा. उनके बारे में कहीं न कहीं ये आम धारणा बनती चली जा रही है कि उनमें पार्टी को संभालने की क्षमता का अभाव है. हांलाकि कांग्रसी प्रवक्ता राजीव त्यागी इस बात से इत्तफाक नहीं रखते उनका कहना है कि ‘ राहुल ने राजनीति में अपराधीकरण रोकने की मुहिम चलाई, गांवो के संसाधन विहिन लोगों को राजनीति की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए ढेर सारी कोशिशें कीं. साल 2004 में उनके राजनीति में आने के बाद कांग्रेस पार्टी ने राजस्थान, उत्तराखंड,कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में विजय पताका लहराई. ऐसे में हार का ठीकरा उनके ही सिर फोड़ना गलत है. हार के राजनैतिक विद्वेष और धार्मिक विद्वेष भी प्रमुख कारण रहे हैं. राहुल में प्रजातांत्रिक नेतृत्व क्षमता है और नौजवानों के नेतृत्व के लिए पार्टी को युवा नेता की जरुरत है. वहीं सोनिया जी के मार्गदर्शन में पार्टी दस सालों तक सत्ता में रही है तो मेरे ख्याल से नई और पुरातन दोनों व्वस्थाओं के संगम की आवश्यकता फिलहाल पार्टी को है’ राजीव त्यागी का सधा हुआ बयान ये साबित करता है कि पार्टी पुराने को छोड़ने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहती और नए को लेने की मजबूरी भी उसके समक्ष है. वहीं सत्तासीन पार्टी का इस मसले पर बिल्कुल अलग दृष्टिकोण है. भाजपा के प्रवक्ता श्रीकांत शर्मा का कहना है कि गांधी परिवार ने कभी आगे बढ़कर कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई है. वैसे नेतृत्व किसका हो ये कांग्रेस का अंदरुनी मामला है लेकिन हम चाहेंगे कि राहुल अब लौटकर आए हैं, अब आगे बिहार विधानसभा के चुनाव हैं ऐसे में वो खिचड़ी दलों के दलदल का हिस्सा बनते हैं या कांग्रेस को इससे अलग रखकर एक सकारात्मक विपक्ष की भूमिका को निभाते हैं’. इधर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ आगामी 19 अप्रैल को रामलीला मैदान में विशाल किसान रैली बुलाई है कांग्रेस ने. किसानों के साथ हमदर्दी जताने का अच्छा समय है, क्योंकि बेमौसम बारिश ने फसलें तबाह कर दी हैं देखना होगा कि क्या राहुल इस रैली से फिर दोबारा सत्ता पक्ष को ललकारने का काम करते हैं या पहले की तरह सोनिया गांधी ही इस बार भी नेतृत्व प्रदान करती हैं. मेरे ख्याल से पार्टी को जल्दी ही इस मसले का हल खोजना होगा और संगठित प्रयास करने होंगे ताकि वो फिर से अपनी खोई हुई ज़मीन वापस पा सके.

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