विनीत कुमार
1मीडिया के जो कभी बड़े चेहरे हुआ करते थे, अब वो भूतपूर्व पदों का भारी मुकुट लेकर जहां-तहां सेमिनारों की शोभा बढ़ाने का काम कर रहे हैं. वो कहीं संज्ञा,कहीं सर्वनाम तो कहीं वाक्य विन्यास बचाने/सहेजने की नसीहतें देते नजर आते हैं..वो हमारे नए मीडियाकर्मियों के रोल मॉडल बनने की कोशिश करते नजर आते हैं लेकिन बात जैसे ही पत्रकारिता पर आती है, मीडियाकर्मियों पर आती है, पता नहीं किस मानव हिन्दी व्यावकरण और रचना की किताबों में खो जाते हैं. ये सवाल हमेशा की तरह मौजूद रहेगा- श्रीमान आप भाषा के नाम पर दरअसल बचाना क्या चाहते हैं ?
2.हमारे हाथ बंधे हुए हैं, हम मालिकों के हाथों मजबूर हैं. कार्पोरेट पूरे मीडिया पर हावी है और उसे अपने तरीके से चलाना चाहता है. आप रिपोर्टस पर दवाब इसलिए देखते हैं क्योंकि संपादक फैसले नहीं ले सकता.- राजदीप सरदेसाई, एडिटर इन चीफ, नेटवर्क 18( उदयन शर्मा स्मृति व्याख्यान में दिया गया वक्तव्य)
3.मीडिया एथिक्स पर जो जिस मासूमियत से बात की जाती है, वो दरअसल मुद्दों से लोगों को भटकाना है. सच तो ये है कि ढाई सौ से ज्यादा पत्रकार हैं जो कार्पोरेट के लिए काम करते हैं- पुण्य प्रसून वाजपेयी, वरिष्ठ टीवी एंकर, आजतक
4. आपको बीइए, एनबीए, एडिटर्स गिल्ड के दावे याद रहते हैं न ? वो हर हाल में पत्रकारिता बचाने का काम करते हैं. एश्वर्या राय बच्चन के मां बनने की खबर कितनी देर और कैसे चलेगी, निर्देश जारी करने का काम करते हैं. आत्महत्या के लिए उकसानेवाले मीडियाकर्मी को रातोंरात बचाने का काम कर सकते हैं. गोवाहाटी में यौन उत्पीड़न की मिनटों खड़े होकर फुटेज तैयार करनेवाले रिपोर्टर को नजरअंदाज करके बचा सकते हैं, उसे दोबारा नौकरी मिल जाने पर चुप मार सकते हैं. वो उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के प्रकाश सिंह को बेरोजगार न होने देने से रोक सकते हैं. वो जी न्यूज के दागदार संपादक सुधीर चौधरी की घुड़की खाकर चुप्प मार सकते हैं..आप उनकी इन हरकतों से कन्फ्यूज हो जाते होंगे कि ये क्या नहीं कर सकते ? कन्फ्यूज मत होइए, ये मालिक की इच्छा और दागदार मीडियाकर्मियों को बचाने के अलावे कुछ नहीं कर सकते. नहीं तो पहले आुटलुक और अब नेटवर्क 18 में जिस बेरहमी से छंटनी की गई, उस पर प्रेस रिलीज जारी नहीं करते.
5.मीडिया को रेगुलेट करने की जब भी बात आती है, इस इन्डस्ट्री के एक से एक बड़े चेहरे सेल्फ रेगुलेशन का झंड़ा लेकर खड़े हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि पत्रकारिता एकमात्र ऐसा पेशा है जिसके लिए लोग मां की कोख से ही पोप बनकर पैदा होते हैं और उन्हें भला कैसे रेगुलेट किया जा सकता है..लेकिन जब इस इन्डस्ट्री के भीतर यौन उत्पीड़न की घटना होती है, भारी छंटनी का काम होता है, ट्विट करके काम से बेदखल होने की खबर दी जाती है, कई दिनों तक नौकरी चली जाने के खौफ के साये में रखा जाता है..ये सारे झंडबदार वीकएंड मनाने निकल जाते हैं..उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि जो धकिआया गया, उस पर क्या बीत रही होगी ? ऐसे में ये कहना क्या गलत होगा कि सेल्फ रेगुलेशन का मतलब सिर्फ और सिर्फ मालिकों की आवाज बनकर लोगों को झांसा देना और किसी भी हाल में मीडिया पर नियम और कायदे के तहत नहीं आने देना है. आपको बात बुरी लगे तो लगे नहीं, सेल्फ रेगुलेशन के नाम पर इन महंतों ने मीडिया के भीतर प्रतिरोध के स्वर को पूरी तरह कुचलने का काम किया है.
6.यकीन कीजिए, इन दिनों मीडिया में जो कुछ भी चल रहा है, उनसे गुजरते हुए मेरी मानसिक हालत ऐसी हो गई है कि लगता है उन तमाम मीडिया संस्थानों में जाउं, वहां पढ़ रहे मीडिया छात्रों को अपनी किताब मंडी में मीडिया जिसे लेकर मीडिया के बच्चे अक्सर मंहगी होने की शिकायत करते हैं, की मुफ्त प्रति दूं और कहूं- देखो, इस मीडिया के सच से एक बार गुजर जाओ. अपने को तैयार करो कि आगे क्या और कैसे करना है ? तुम हर सवाल के साथ- मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, ये मानवीय सरोकार का वाहक है, जनसंचार संस्कृत के चर धातु से निकला है जैसी दालमखनी बनाना बंद करो. इसे साहित्य के दरवाजे से गुजरने के बजाय, बिजनेस, इकॉनमिक्स, मैनेजमेंट, पॉलिटिक्स और पीआर के जरिए समझने की कोशिश करो. साहित्य से सिर्फ भाषा सीखो, बाकी सब इन विषयों से.
7.देशभर के मीडिया संस्थान जिन्होंने अपने पाठ्यक्रम में पत्रकारिता,मूल्य, मानवता, नैतिकता, सामाजिक विकास में धूप-अक्षत की तरह चिपकाकर रुपचंद मानस और हरीश अरोड़ा जैसे दर्जनों टंकणकारों के दुग्गी( अशोक प्रकाशन को कैंपस में दुग्गी कहते हैं) के लिए विशाल मार्केट तैयार का परिवेश रचते हैं, उन्हें पाठ्यक्रम में एक पेपर अनिवार्य रुप से एस्ट्रेस मैनेजमेंट शामिल करने चाहिए. वो इस पेपर के जरिए समझ सकेंगे कि जब बच्चा बीमार हो, पत्नी एक्सपेक्टेड हो, शादी होनेवाली हो, मां-बाबूजी कुछ दिन रहने साथ आनेवाले हों और इस बीच नौकरी चली जाए तो क्या करें ? माफ कीजिएगा, मैं गांधी, सोल,माइंड,हर्ट,पीस से अलग एक पेपर की बात कर रहा हूं.
8.पगला हो क्या, जिनकी नौकरी गई है वो तो एक शब्द लिख-बोल रहे ही नहीं है. सबके सब इस जुगाड़ा में लगें हैं कि कैसे दूसरी जगह फिट हो जाएं तो तुम क्यों अपनी शाम खराब कर रहे हो ? इतनी खूबसूरत शाम है, सीपी जाओ, वर्कोज में चिल्ल आउट करो, तितलियां ताड़ो..बोक्का मानुष. आज के दिन भी यही सब लेकर बैठे हो. सही बात है कि मीडिया के लोग इस घटना पर कुछ नहीं बोलेंगे, वो कार्पोरेट मजदूर बनकर रह गए हैं..लेकिन कई बार मजदूर भी तो अपनी बात नहीं करते, वो ठेकेदारों से पंगा लेने के बजाय कहीं और दीहाड़ी खोजने चले जाते हैं लेकिन तब हमारा खबर हर कीमत पर, आपको रखे आगे, सबसे तेज..उनके बारे में बात करते है न..सोशल मीडिया का काम बदलाव की चिंता के बजाए उन खबरों को सार्वजनिक करना तो है ही जो शादी-ब्याह,पार्टी-कॉकटेल से अलग फेसबुक और ट्विटर के बीच होने की मांग करते हैं.
9.कितना सुरक्षित है मीडिया कारोबार और कैसे बचेंगे मानव मूल्य ? कुछ नहीं तो पूरी उम्मीद है कि यूजीसी के लाखों रुपये अब देशभर के कॉलेजों और संस्थानों में होनेवाले मीडिया सेमिनारों पर खर्च होंगे, हजारों के फाइल फोल्डर बांटे जाएंगे, बच्चों से दो से तीन सौ रुपये लिए जाएंगे..शिक्षक इनमे मिले सर्टिफिकेट से अपनी इन्क्रीमेंट बढ़ा सकेंगे और आप देख लीजिएगा कल को उन्हीं मठाधीशों,महंतों को रजनीगंधा की लड़ियों से सम्मानित करते हुए इस पर दालमखनी बनाने के लिए बुलाया जाएगा जो अभी इत्मिनान से बैठकर चुरुट सेवन कर रहे होंगे, अनारगोली खाकर हेवी लंच ठिकाने लगा रहे होंगे ताकि डिनर के लिए स्पेस क्रिएट हो सके.
(विनीत कुमार के एफबी वॉल से साभार)