सुमीत ठाकुर
सवाल मीडिया के अर्थशास्त्र का है….
क्रॉस मीडिया ऑनरशिप के जमाने में पूंजीपति ही मीडिया समूहों को चलाने की क्षमता रखते हैं.छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के पितामह अपनी जीवनी में लिखते है जीवन भर पत्रकारिता करने के बाद पता चला है कि मालिक, मालिक होता है और नौकर, नौकर. दरअसल सारा मामला संपादकीय विभाग और मार्केटिंग विभाग के बीच का था.बबन प्रसाद मिश्र रायपुर नवभारत में संपादक थे और खबरों के चयन और विज्ञापन की जगह को लेकर हुए विवाद के बाद श्री मिश्रा ने इस्तीफा दे दिया था.आपको बता देना होगा सही होगा कि बबन प्रसाद मिश्र ने ही छत्तीसगढ़ में नवभारत अखबार की नींव रखी थी..इस संदर्भ का उल्लेख इसलिए किया जा रहा है कि ताकि मीडिया में पूंजी के हस्तक्षेप को समझा जा सकें…
बीते दिनों एक बड़े मीडिया समूह ने अपने लगभग 320 कर्मचारियों से त्यागपत्र लिया.सोशल मीडिया में बहस शुरू हुई.मीडिया समूह के दफ्तर के सामने पदच्युत कर्मचारियों.समाजसेवियों और दूसरे मीडिया संस्थानों के पत्रकारों ने प्रदर्शन किया.हालांकि इसके पहले भी कुछ नामी मीडिया घरानों ने कास्ट कटिंग के नाम पर कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया था.उन मीडिया घरानों की तो चर्चा ही नहीं हुई जो छोटे या क्षेत्रीय स्तर पर संचालित होते हैं।
कानूनी रुप से मीडिया घरानों में जो छंटनी होती है.उसमें कर्मचारियों से इस्तीफा मांगा जाता है.इस्तीफे के एवज में एक या दो महीने की पगार भी दे दी जाती है.ताकि कोर्ट-कचहरी से बचा सके.इधर कर्मचारियों के पास भी सिवाय इस्तीफा देने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता क्योंकि कोई भी कर्मचारी कोर्ट के चक्कर नहीं काटना चाहता.हालांकि इस्तीफा-कांड के आरोप-प्रत्यारोप.प्रदर्शन का दौर होता है.जिसका व्यवहारिक तौर पर कोई फायदा पीड़ितों को नहीं मिल पाता.मेरे खुद के निजी अनुभव है कि जब एक चैनल अपने कर्मचारियों को निकालना चाहता है तो उसे कोई रोक नहीं सकता है.प्रदर्शनों और दूसरे दबावों का भी कोई असर नहीं होता.अक्सर कंपनी कर्मचारियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालने में सफल भी हो जाती है.जिसका असर ये होता है कि कर्मचारियों में सामूहिक इस्तीफा-कांड के खिलाफ समय पर विरोध करने का साहस नहीं हो पाता. एक पक्ष ये भी है कि अगर मामला कोर्ट में चला जाए तो दूसरी नौकरी मिलने में दिक्कतें आने की आशंका भी मन में होती है.अब बात मीडिया के अंदरुनी ढांचे की..
दरअसल मीडिया के कोर्सेस में पढ़ाने जाने वाले मीडिया एथिक्स का व्यवहारिक मीडिया की जिंदगी कम से कम इस्तेमाल किया जाता है.दरअसल इसको मान लेने में अब कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि जैसे दूसरे व्यवसायिक घराने दूसरे उत्पादों का व्यापार करते हैं.ठीक वैसे ही मीडिया भी मंडी में है.और समाचार भी एक उत्पाद है.पत्रकारिता के चोले के भीतर चैनल औऱ अखबारों में बढ़ते मालिक के हस्तक्षेप और संपादक नाम की कम चुकी गरिमा इसके उदाहऱण मात्र है.अब विज्ञापनदाता संपादक और पत्रकार से ज्यादा महत्व रखता है.
सरकार सरकारी विज्ञापनों के जरिए मीडिया पर कंट्रोल कर सकती है.आपको जानकर हैरत होगी अनुशासन की बात करने वाली एक पार्टी की सरकार ने एक राज्य में उस चैनल को कई दिनों तक केबल में प्रसारित होने पर रोक लगवा दी थी.तो जब धंधा ही है तो धंधे का एक सिर्फ एक उसूल होता है…मुनाफा….गम काहे का….
(लेखक सात सालों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं.)