भटकाव बनता सम्मान का सवाल….!!
तारकेश कुमार ओझा
आज के दौर में बेशक बड़प्पन व उदारता दुर्लभ चीज होती जा रही है। लेकिन अतीत में उदारता की एक एेसी ही विरल घटना मेरे दिल को छू गई। दरअसल 90 के दशक में बांग्लादेश की प्रख्यात लेखिका तस्लीमा नसरीन की पुस्तक लज्जा को लेकर तब बांग्लादेश समेत भारत में भी तहलका मचा हुआ था। भारी विवाद औऱ हंगामे के चलते देश में भी इस पुस्तक को लेकर लोगों में भारी कौतूहल था। लेकिन चूंकि पुस्तक बांग्ला में थी। इसलिए पुस्तक को पढ़ने – समझने का कोई विकल्प लोगों के पास नहीं था। एेसे में एक हिंदी साप्ताहिक ने उक्त पुस्तक का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद करा कर उसे धारावाहिक रूप में छापना शुरू किया। स्वाभाविक रूप से लाखों की संख्या में लोगों ने इसे पढ़ना शुरू किया। लेकिन आश्चर्य की बात यह रही कि शुरू के दो अंक में पुुस्तक के अंश के नीचे अनुवादक का नाम नहीं छपा। तीसरे अंक में अंश के बीच पाठकों को एक बॉक्स नजर आया, जिसमें खेद प्रकाश के साथ संपादक का पक्ष था कि गलती से अनुवादक का नाम दो अंकों में नहीं जा पाया। संपादक मंडली का ध्यान जब इस ओर गया और उन्होंने अनुवादक से इसके लिए क्षमा याचना की, तो उन्होॆंने इसका जरा भी बुरा नहीं माना।
यह प्रसंग आज के दौर के चमकते – दमकते महंगे खिलाड़ियों के संदर्भ में खासा प्रासंगिक है। जो देखते ही देखते अकूत धन – संपत्ति औऱ शोहरत का मालिक बन जाने के बावजूद हमेशा अपेक्षित संसाधन और सम्मान न मिलने की शिकायत करते रहते हैं। हाल में दो नामचीन खिलाड़ियों का अपना नाम राष्ट्रीय सम्मान के लिए न भेजे जाने पर क्षोभ व्यक्त करना इसी की कड़ी मानी जा सकती है। बेशक खिलाड़ियों को हर संभव सुविधा और सम्मान मिलना चाहिए। लेकिन अपने लिए खुद ही हमेशा सम्मान – उपाधि की मांग करते रहना और न मिलने पर विवाद की स्थिति पैदा करना क्या उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप मानी जा सकती है। एेसे में दूसरे क्षेत्रों में संघर्ष कर रहे उन साधकों का क्या , जो कुछ न मिलने के बावजूद अपने – अपने क्षेत्र में अनवरत साधना में जुटे रहते हैं। आज के दौर में जरा सा नाम – प्रचार मिलते ही खिलाड़ियों को विज्ञापन व अन्य मद से भारी पैसा मिलने लगता है। इसके बावजूद उनकी शिकायतें बनी रहती है। बेशक आज के दौर में सौरव गांगुली और महेन्द्र सिंह धौनी जैसे खिलाड़ी भी है। धौनी ने गुपचुप तरीके से टेस्ट क्रिकेट से संन्यास लेकर एक उदाहरण पेश किया। वहीं सौरव गांगुली पर रिटायरमेंट के बाद से ही राजनीति में शामिल होने का भारी दबाव रहा। कहते हैं कि उन्हें खेल मंत्री बनाने तक का प्रस्ताव दिया गया। लेकिन किसी भी दबाव के आगे न झुकते हुए उन्होंने राजनीति में जाने से साफ इन्कार कर दिया। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब कुछ खेल रत्न यह जानते हुए भी कि विज्ञापन व कमाई के दूसरे रास्तों में व्यस्त रहने के चलते एक दिन के लिए भी वे सदन नहीं जा पाएंगे, इसके बावजूद वे राज्यसभा सदस्यता व दूसरे पदों का लोभ नहीं छोड़ पाते।
सम्मान का यह संकट केवल खेल ही नहीं दूसरे क्षेत्रों में भी हावी है। वर्ना क्या वजह थी कि जांबाज माने जाने वाले एक पुलिस अफसर को महज चंद हजार की घूस लेने के आरोप में अपने ही महकमे के एक बूढ़े अधिकारी का गिरेबां पकड़ कर देर तक झिंझोड़ना पड़ा। जबकि इस मामले में उस अधिकारी की ही फजीहत हुई। क्योंकि आरोप साबित नहीं हो सका। लेकिन चैनलों पर वह जांबांज अधिकारी इंस्पेक्टर का कॉलर पकड़ कर एेसे खींच रहा था मानो पाकिस्तान जाकर दाऊद इब्राहिम को धर दबोचा हो। क्या यह सम्मान व प्रचार की भूख का ही नतीजा था। समाज के दूसरे क्षेत्रों में भी सम्मान और प्रचार की यह अंधी भूख अच्छी – भली और संभावनाशील प्रतिभाओं को अकाल – काल कवलित करने का कार्य़ करती अाई है। क्योंकि उन पर हमेशा कुछ न कुछ नया और अलग करते रहने का भारी दबाव था।